बीजेपी को उल्टा तो नहीं पड़ेगा पूर्वोत्तर में 'हिंदुत्व एजेंडा' .....?
साल 2016 की 24 मई का दिन. जगह असम के गुवाहाटी का खानापाड़ा मैदान. मंच पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत उनके कैबिनेट के सभी शीर्ष मंत्री मौजूद थे. साथ ही मौजूद थे बीजेपी के सबसे वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह.
पूर्वोत्तर राज्यों में किसी भी सभा में एक साथ बीजेपी के इतने नेता कभी शामिल नहीं हुए. बीजेपी और उनके सहयोगी पार्टी के 14 मुख्यमंत्री भी इस कार्यक्रम में उपस्थित थे. दरअसल ये कार्यक्रम असम में पहली बार सत्ता में आई बीजेपी सरकार के मुख्यमंत्री सर्वानंद सोनोवाल का शपथ ग्रहण समारोह था.
बीजेपी ने अपने एक मुख्यमंत्री के शपथ ग्रहण कार्यक्रम को इतने बड़े समारोह का रूप देकर कर एक तरह से पूर्वोत्तर राज्यों में सालों से राज कर रही कांग्रेस को साफ संदेश दे दिया था कि अब इस क्षेत्र में उसको कोई नहीं रोक सकता. ऐसा हुआ भी. पूर्वोत्तर में कांग्रेस के हाथ से एक के बाद एक सभी राज्य निकलते चले गए और अब वो यहां के किसी भी राज्य में नहीं है.
इसकी एक बड़ी वजह थी नॉर्थ ईस्ट डेमोक्रेटिक अलायन्स यानी नेडा का गठन. मुख्यमंत्री सोनोवाल के शपथ ग्रहण के एक दिन बाद अमित शाह की अध्यक्षता में नेडा का गठन हुआ जिसमें पूर्वोत्तर राज्यों की सभी गैर कांग्रेसी पार्टियां शामिल हो गई. उस दिन तक सबकुछ बीजेपी जैसे चाह रही थी ठीक वैसा ही हो रहा था.
क्योंकि महज़ पांच सीटों वाली बीजेपी ने असम की 126 विधानसभा सीटों में से 61 सीटे जीती थी. अमित शाह का नेडा बनाने का मूल मसकद था पूर्वोत्तर के सभी राज्यों से कांग्रेस का सफाया करना.
दरअसल देश के इस हिस्से में ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि प्रधानमंत्री मोदी ने असम और पूर्वोत्तर के लोगों से शुरूआत में केवल विकास की बात की थी. उन्होंने मुख्यमंत्री सोनोवाल के शपथ ग्रहण मंच से भी यही कहा था कि असम सरकार राज्य के विकास के लिए जितना दौड़ेगी, दिल्ली की केंद्र सरकार भी यहां के विकास के लिए उससे एक कदम ज्यादा प्रयास करेगी.
ये वही नरेंद्र मोदी है जिन्होंने प्रधानमंत्री बनने से पहले पश्चिम बंगाल में एक चुनावी सभा में साफ शब्दों में कहा था कि वो जिस दिन केंद्र की सत्ता संभालेंगे उस दिन बांग्लादेशी घुसपैठियों को अपना बोरिया-बिस्तार बांधना पड़ेगा.
राजनीति के जानकार आज भी कहते है कि उनके भाषण का असम के लोगों पर काफी असर पड़ा और 2016 में बीजेपी की इतनी बड़ी जीत कहीं न कहीं मोदी पर लोगों का भरोसा जताना भी था.
लेकिन जानकार बताते हैं कि असम में सरकार बनने के महज़ ढाई साल के भीतर यानी 2019 आते आते माहौल ऐसा बन गया है कि अब वही लोग बीजेपी नेताओं को काला झंडा दिखाने लगे हैं और इसका एक बड़ा कारण बीजेपी का हिंदुत्व एजेंडा है जो खासकर पूर्वोत्तर के राज्यों में काम नहीं कर रहा है.
भाजपा के ख़िलाफ़ क्यों हैं सहयोगी दल
मेघालय से प्रकाशित होने वाले अख़बार द शिलॉंग टाइम्स की संपादक पैट्रीशिया मुखीम ने बीबीसी से कहा,"पूर्वोत्तर के खासकर कबाइली प्रदेशों में बीजेपी का हिंदुत्व एजेंडा चलने वाला नहीं है. अगर आने वाले चुनाव में पार्टी को थोड़े बहुत वोट मिलते हैं तो असम में ही उसका मौक़ा बचा है."
हालाँकि वो कहती हैं कि असम में भी बीजेपी का प्रदर्शन पहले के मुकाबले अच्छा नहीं रहेगा क्योंकि नागरिकता संशोधन बिल को लेकर सभी लोग काफी नाराज़ है.
मुखीम कहती है, "असम में 2016 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस 15 साल से सत्ता में थी तो उसके खिलाफ सत्ता विरोधी लहर थी. इसके अलावा लोग परिवर्तन चाह रहे थे. तो लोगों ने अपने वोट बीजेपी को दे दिए. लेकिन आज वो स्थिति नहीं रही.लोग इस बिल को लेकर बेहद खफा है. "
वो बताती हैं कि मेघालय में भी पार्टी को मुश्किल होगी.
उन्होंने कहा," पिछली बार मेघालय विधानसभा में बीजेपी को जो दो उम्मीवार थे वे इतनी मज़बूत थे कि किसी भी पार्टी से खड़े होते तो चुनाव जीत जाते.दरअसल मेघालय में लोग पार्टी को नहीं व्यक्ति को वोट देते हैं."
विकास का मुद्दा छूट गया पीछे?
हालांकि बीजेपी नेता इस तरह के विरोध के बाद भी ये स्वीकार करने को तैयार नहीं कि आने वाले समय में पार्टी को कोई नुकसान उठाना पड़ेगा.
असम प्रदेश बीजेपी के वरिष्ठ नेता विजय गुप्ता कहते है, "अगर कोई ये कह रहा है कि भारतीय जनता पार्टी विकास के मुद्दे से हट गई है तो ये पूरी तरह गलत है. हम अगर असम की बात करें तो यहां चार नए पुलों का उद्घाटन हुआ है और चार नए पुलों का निर्माण होगा. वहीं पूर्वोत्तर की कनेक्टिविटी की बात है तो जब भारतीय जनता पार्टी की सरकार नहीं थी तो केवल 12 फ्लाइट आया करती थी लेकिन आज 256 फ्लाइट यहां आती है. हमने सड़क और रेल कनेक्टिविटी में भी काफी काम किया है. आज त्रिपुरा और मिजोरम जैसे राज्य रेल से जुड़ गए है."
जब बीजेपी की सरकार ने इस क्षेत्र के लिए इतना कुछ किया है तो फिर विरोध क्यों हो रहा है. सहयोगी पार्टियां साथ क्यों छोड़ रही है? इस सवाल का जवाब देते हुए भाजपा नेता कहते है," अगर किसी एक मुद्दे पर सहयोगी दल के कुछ लोग हमसे सहमत नहीं है तो इसका मतलब ये नहीं है कि वे नेडा का हिस्सा नहीं है. इससे नेडा की एकता पर कोई सवाल नहीं है."
भाजपा नेता साथ ही स्वीकार करते हैं कि अगर उनकी पार्टी एक मुद्दे (नागरिकता संशोधन बिल) को छोड़ दे तो नेडा के सभी साथी उनके साथ फिर आ जाएंगे.
वो कहते है," कुछ लोग इस मुद्दे की गलत व्याख्या करने में लगे हुए है. हमने 2014 तक की समय सीमा रखी है, इसके बाद आने वाले किसी भी व्यक्ति को नागरिकता नहीं दी जाएगी. इस बिल में पहले कई संशोधन हुए है और हमारी सरकार यहां के लोगों की सुरक्षा के लिए ही ये संशोधन कर रही है."
1918 से है घुसपैठ की समस्या
इस पूरे मुद्दे पर नजर रख रहे गुवाहाटी हाई कोर्ट के सीनियर वकील कमल नयन चौधरी ने कहा,"असम के इतिहास को देखें तो यहाँ बांग्लादेश से जो घुसपैठ की समस्या है वो 1918 से शुरू हुई थी.उस समय एक देश था, तो पूर्वी बंगाल के जो लोग असम आकर बस थे वो अवैध नहीं थे."
"1951 में जो राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) बनाई गई थी उस समय ही असम में पूर्वी बंगाल के 30 फ़ीसदी लोग थे. वो तो यहां के लोगों ने मान लिया था. उसके बाद भी जब घुसपैठ जारी रही तो 1979 में असम आंदोलन हुआ. लंबे चले आंदोलन के बाद असम समझौता हुआ. इस समझौते में 1971 तक आए सभी लोगों को स्वीकार लिया गया."
"अभी बीजेपी जो बिल लाई है उसमें 2014 तक आए हिंदू लोगों को यहाँ नागरिकता देने की बात कह रहें हैं. अगर इतनी भारी संख्या में बंगाली लोग आएंगे तो असमिया लोगों का तो अस्तित्व ही खत्म हो जाएगा. इसलिए यहां लोग कड़ा विरोध कर रहें है."
नागरिकता बिल को लेकर असम प्रदेश कांग्रेस के लोग भी लगातार विरोध कर रहे हैं, लेकिन पार्टी की असली भूमिका राज्यसभा में देखने को मिलेगी. अगर कांग्रेस सांसद राज्यसभा में इस बिल का विरोध करेंगे तो सरकार इस बिल को नहीं ला पाएगी.
ऐसे ही एक सवाल का जवाब देते हुए असम प्रदेश कांग्रेस के प्रवक्ता अपूर्व भट्टाचार्य कहते है,"जिस कदर भाजपा के ग्यारह सहयोगी दलों ने बैठक कर इस बिल का विरोध करने का निर्णय लिया है उससे साफ हो गया है कि इन लोगों ने भाजपा को बिदाई देने का मन बना लिया है.बीजेपी जिस नेडा की बात करती है उसके लोग ही उनके खिलाफ हो गए है."
पूर्वोत्तर राज्यों में लोकसभा की कुल 25 सीटें है. जबकि असम में सबसे ज्यादा 14 सीटें है.
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