लोकसभा चुनाव 2019: मोदी सरकार की उज्ज्वला स्कीम का लाभ कितनों को मिला?
दावे: भारत सरकार का दावा है कि ग्रामीण इलाकों के करीब एक करोड़ घरों में घरेलू गैस सिलेंडर पहुंचाने की उसकी योजना बेहद कामयाब है और इसके चलते प्रदूषण फैलाने वाले घरेलू ईंधनों के इस्तेमाल में काफ़ी कमी हुई है.
वहीं विपक्षी कांग्रेस पार्टी का कहना है कि इस योजना में बुनियादी दिक्कतें हैं और यह जल्दबाजी में शुरू कर दी गई है.
क्या है हक़ीकत: सरकार की इस योजना के चलते रसोई गैस (एलपीजी) बड़ी संख्या में आम लोगों के घरों तक पहुंची. लेकिन सिलेंडर को रीफिल करने की लागत को देखते हुए लोगों ने इसका इस्तेमाल जारी नहीं रखा और परंपरागत ईंधन की ओर वापस लौट गए क्योंकि वे उन्हें अमूमन मुफ़्त में मिल जाते हैं.
भारत सरकार ने 2016 में खाना पकाने के लिए स्वच्छ ईंधन के इस्तेमाल को बढ़ाने वाली अपनी महत्वपूर्ण योजना प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना शुरू की.
इसका उद्देश्य केरोसिन, लकड़ी और दूसरे जैविक ईंधन जैसे कि गोबर के उपले इत्यादि से होने वाले प्रदूषण को समाप्त करके ग़रीब घरों की महिलाओं के जीवन को बेहतर बनाना था.
शुरुआती तौर पर, इस योजना को केवल ग्रामीण इलाकों में आधिकारिक तौर पर ग़रीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों के लिए रखा गया था.
लेकिन दिसंबर, 2018 में सरकार ने देश के बाक़ी ग़रीब लोगों को भी इस योजना के तहत लाभ देने की घोषणा की.
केंद्र सरकार का दावा है कि ये बेहद कामयाब योजना है. साथ में ये भी कहा जाता है कि इस योजना से सबसे ज़्यादा फ़ायदा महिलाओं को हो रहा है.
वहीं विपक्षी कांग्रेस पार्टी का आरोप है कि सरकार इस योजना में बुनियादी दिक्कतें हैं.
कांग्रेस पार्टी का ये भी दावा है कि अभी भी दस करोड़ भारतीय घरों में गैस सिलेंडर की जगह केरोसिन का इस्तेमाल होता है.
कैसे काम करती है ये योजना?
सरकार घरेलू गैस आपूर्ति करने वाली कंपनियों को उन कनेक्शन का भुगतान करती है जो वो लोगों के घरों में मुफ़्त में लगाते हैं.
उज्जवला योजना के तहत भारत सरकार हर मुफ्त एलपीजी सिलेंडर की कंपनियों को 1600रुपए की सब्सिडी देती है. ये पैसा सिलेंडर की सेक्युरिटी फीस और फिटिंग चार्ज के एवज में दिया जाता है. इस स्कीम के तहत लाभार्थियों को चूल्हे का इंतजाम खुद करना पड़ता है. जिनके पास गैस चूल्हा खरीदने का पैसा नहीं है उनके लिए मासिक किश्त का विकल्प भी मौजूद है. मासिक किश्त पर चूल्हे के साथ साथ पहले सिलेंडर का रिफिल भी लिया जा सकता है, जिस पर कोई ब्याज़ नहीं लगेगा.
मई, 2014 में जब बीजेपी सत्ता में आई थी, तब तक पिछली सरकारों की विभिन्न योजनाओं के तहत कुल 13 करोड़ एलपीजी कनेक्शन ही वितरित किए गए थे.
आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक सरकार ने करीब आठ करोड़ ग़रीब परिवारों को एलपीजी कनेक्शन देने का लक्ष्य बनाया था जिसमें 9 जनवरी, 2019 तक 6.4 करोड़ परिवारों को कनेक्शन दिया जा चुका है.
ऐसे में यह संभव है कि मई, 2019 तक सरकार अपने लक्ष्य को पूरा भी कर ले. लेकिन ये पूरी कहानी नहीं है.
सिलेंडर रीफिल में क्या हैं मुश्किलें?
2016 में जब ये योजना शुरू की गई थी तब दिल्ली में एक एलपीजी सिलेंडर को भरवाने में 466 रुपये लगते थे.
लेकिन अब यह लगभग दोगुना होकर 820 रुपये तक पहुंच गया है.
गैस सिलेंडरों की बढ़ती क़ीमत का मुद्दा संसद में भी उठ चुका है.
पत्रकार नितिन सेठी ने सूचना के अधिकार के तहत सरकार से ये जानकारी मांगी है कि शुरुआती एलपीजी कनेक्शन मिलने के बाद कितने परिवार अपने सिलेंडर का रीफिल करा रहे हैं.
बीबीसी से बातचीत में नितिन ने बताया, "यह स्पष्ट है कि जिन परिवारों को मुफ़्त में एलपीजी कनेक्शन मिले उनमें से अधिकांश ने दूसरी बार गैस सिलेंडर नहीं भरवाए क्योंकि वे उसका ख़र्च नहीं उठा सकते हैं."
सेठी के मुताबिक ऐसे लोग फिर से परंपरागत ईंधन जिसमें गोबर के उपले और लकड़ियां आदि शामिल हैं, का इस्तेमाल करने लगे हैं.
सरकार का क्या है कहना?
लेकिन सरकार इस नज़रिए से सहमत नहीं है. पेट्रोलियम मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने नवंबर, 2018 में कहाथा कि जिन लोगों को नए एलपीजी कनेक्शन दिए गए उनमें से 80 फ़ीसदी लोगों ने चार बार सिलेंडर भरवाए हैं.
वे कहते हैं, जो 20 फ़ीसदी लोग सिलेंडर रीफिल नहीं करवा रहे हैं, वो ऐसा इसलिए कर रहे हैं क्योंकि वो वन्य क्षेत्र के आसपास रहते हैं और उन्हें ईंधन के लिए लकड़ियां आसानी से मिल जाती हैं.
एलपीजी गैस वितरण करने वाली कंपनियों में सबसे बड़ी कंपनी इंडियन ऑयल कॉरपोरेशन ने दिसंबर, 2018 में कहा है कि जिन लोगों को नए कनेक्शन दिए गए हैं, औसतन उन लोगों ने साल में तीन बार सिलेंडर रीफिल करवाए जबकि शहरों में भारतीय उपभोक्ताओं का यह औसत एक साल में सात सिलेंडर का है.
हालांकि इस बात के प्रमाण भी मिले हैं जिनसे ये पता चलता है कि खाना पकाने वाले परंपरागत ईंधन आसानी से मिल जाते हैं जिसके चलते लोग एलपीजी सिलेंडर के इस्तेमाल करने से बचते हैं.
2016 में इस योजना के शुरू होने के कुछ महीनों के बाद रेटिंग एजेंसी क्रिसिल ने अपनी एक रिपोर्ट के जरिए ये आंकने की कोशिश की कि एलपीजी सिलेंडर का इस्तेमाल करने के लिए लोग बड़ी संख्या में क्यों नहीं सामने आ रहे हैं.
क्रिसिल के आंकड़ों के मुताबिक इस योजना में शामिल नहीं हुए परिवारों में 35 फ़ीसदी परिवारों को दूसरे ईंधन के लिए कोई ख़र्च नहीं करना होता है. इनमें एक तिहाई परिवारों को लकड़ियां और दो तिहाई परिवारों के लिए गोबर के उपले मुफ़्त में मिल जाते हैं.
इसी रिपोर्ट में ये भी कहा गया है कि गैस सिलेंडर को रीफिल कराने के लिए लंबा इंतज़ार भी करना होता है और रीफिल कराने की लगातार बढ़ती क़ीमत के चलते भी लोग एलपीजी के इस्तेमाल से दूर हुए हैं.
ऐसे में यह संभव है कि लोग एलपीजी का कनेक्शन तो ले रहे हैं लेकिन बाद में दूसरे सस्ते ईंधन का इस्तेमाल करने लगें हैं.
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केरोसिन के इस्तेमाल में कमी
जहां तक केरोसीन तेल के इस्तेमाल की बात है, तो बीते पांच सालों में इसकी सालाना खपत में कमी आई है.
आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक केरोसिन के इस्तेमाल में औसतन प्रत्येक साल 8.1 फ़ीसदी की कमी दर्ज हुई है.
इस गिरावट की एक बड़ी वजह तो यही होगी कि सरकार ने केरोसिन पर सब्सिडी को ख़त्म कर दिया है.
ग्रामीण इलाकों में केरोसिन का इस्तेमाल खाना पकाने और रोशनी करने के लिए होता है. कई बार इसका इस्तेमाल इलेक्ट्रिॉनिक उपकरण चलाने के लिए भी किया जाता है.
क्रिसिल ने 2016 में जो सर्वे किया था, उसके सैंपल के 70 फ़ीसदी लोगों ने बताया था कि खाना पकाने के लिए वे अभी भी केरोसिन का इस्तेमाल कर रहे हैं.
हालांकि अभी इतनी जानकारी उपलब्ध नहीं है जिससे कांग्रेस के उस दावे की सत्यता को जांचा जा सके जिसके मुताबिक अभी भी 10 करोड़ लोग खान पकाने के लिए केरोसिन का इस्तेमाल करते हैं.
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