क्या भारत के मुसलमान गुजरात दंगे को भूल चुके हैं?: नज़रिया
भारत में इन दिनों आम चुनाव चल रहे हैं.
भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जिस अंदाज़ और शैली में चुनावी रैलियों को संबोधित कर रहे हैं, उससे मुझे साल 2002 के गुजरात दंगों के बाद दिसंबर, 2002 में हुए गुजरात विधानसभा के चुनाव याद आ रहे हैं.
उस चुनाव के दौरान मोदी के भाषण और चुनावी रैलियों की भी याद भी आ रही है.
साल 2002 के बाद हर चुनाव के समय में संवाददाता, पत्रकार और रिसर्चर ये सवाल पूछते आए हैं कि क्या गुजरात के मुसलमान 2002 के दंगों से उबर पाए हैं?
मेरे विचार से यह सवाल ना केवल गुजरात के मुसलमानों के लिए बल्कि देश भर के मुसलमानों के लिए अभी भी मौजूं बना हुआ है.
बीते पांच साल के दौरान, भारत के मुसलमानों ने भी इस सवाल की आंच को महसूस किया है.
ये सवाल मुझे फिर से साल 2002 में ले जाता है और मैं ख़ुद से लगातार यह पूछता रहता हूं कि मैं क्यों नहीं इस हादसे को भूल जाता हूं और बीजेपी को माफ़ कर देता हूं.
ठीक उसी तरह, जिस तरह गुजराती मुसलमान 1969, 1985 और 1992 के दंगों को भुला चुके हैं और संभवत: कांग्रेस को माफ़ कर चुके हैं.
हालांकि, लोग ये तर्क दे सकते हैं कि उस वक़्त के दंगों में ना तो सत्तारूढ़ पार्टी की वैसी भूमिका थी, जैसी भूमिका 2002 में मानी जा सकती है. कई लोग 2002 के दंगों को राज्य प्रायोजित तक मानते हैं. बहरहाल, सच्चाई यही है कि गुजरात के मुसलमान दंगों के साथ रहते आए हैं और इसके असर को उनसे अलग करके नहीं देख सकते हैं.
गुजरात दंगों का असर
28 फ़रवरी, 2002 की दोपहर करीब 12 बजे, जब मैं अपने कॉलेज नोट्स पढ़ रहा था, तब मैंने देखा कि महिलाओं का समूह खुले मैदान में अपनी चूड़ियां दिखा रहा है. फिर नंगी तलवारें और भगवा गमछा लपेटे लोगों को अहमदाबाद सिटी के दानिलिम्बदा में स्थित हमारी सोसायटी की ओर दौड़कर आते हुए देखा.
हमारी सोसायटी के सामने खुले मैदान के उस पार कुछ दलित और पिछड़ी जातियों की सोसायटी मौजूद थी. देखते-देखते सामने युद्ध का मैदान बन चुका था. ये साफ़ दिख रहा था कि नज़दीक की झोपड़ियों के मुस्लिम युवा हमें दंगा करने वालों से बचाने की कोशिश कर रहे हैं.
हमें बचाने की कोशिश करने वालों में, हमारे घर के सामने रहने वाली और हमारे घरों में काम करने वाली दलित महिलाएं भी शामिल थीं. फिर पुलिस आई और उसने हालात पर नियंत्रण कर लिया.
22 साल के इंजीनियरिंग छात्र के लिए यह अनुभव दिल दहला देने वाला था. सुरक्षा के लिए भागकर हमें मुसलमानों के एक इलाके में शरण लेनी पड़ी. जब हम अपने घर लौटे तो हमारे कंपाउंड में पत्थर, ईंट, डंडे, इत्यादि बिखरे पड़े थे. ऐसा एक बार नहीं, कई बार हुआ.
राज्य में स्थिति लगातार बिगड़ती जा रही थी. हर दिन बलात्कार, लूट और हत्या की खबरें आ रही थीं. पड़ोस के दस लोग, इलाके से निकलने के दौरान मारे गए थे. मेरे अब्बू के सहकर्मी ने बताया कि उनके दफ़्तर के बाहर दो लोगों को ज़िंदा जला दिया गया.
हमने घर के अंदर ही रहने का फैसला लिया. चार महीने तक हम अपने ही इलाके में कैद रहे. इस दौरान ना तो मैं और ना ही मेरा छोटा भाई कॉलेज जा पाए और ना ही मेरे अब्बू अपने दफ्तर गए.
फिर एक दिन मैंने बाहर निकलने का फ़ैसला किया, हालांकि अपने इलाके से बाहर निकलना बेहद डराने वाला अनुभव था. मैंने रुमाल से अपने चेहरे को ढक लिया था और धीरे धीरे बाइक चलाते हुए कॉलेज पहुंचा.
तब मेरे क्लास के कुछ साथियों ने चिल्ला कर कहा था, "मियां आयो छे, आने कापो." (मुसलमान आया है, इसके टुकड़े टुकड़े कर दो.) यह भयावह अनुभव था और मैं यह सुनकर काफी हिल गया था, बिखर गया था.
उसी साल मैंने इंजीनियरिंग पास की, लेकिन कई कंपनियों ने मुझे नौकरी देने से इनकार कर दिया. उन लोगों ने मुझे साफ़-साफ़ कहा कि वे मुसलमान को नौकरी नहीं देना चाहते. दंगों का ऐसा असर था कि कुछ साल तक मुझे ये सपने में भी डराते रहे.
कटुता का भाव
बीते सालों में गुजरात के मुसलमानों को काफ़ी कुछ सहना पड़ा है लेकिन ग़ैर-मुस्लिमों के प्रति उनमें कटुता का भाव पैदा नहीं हुआ है.
इसलिए मेरे जैसे कई गुजराती मुसलमान दंगे नहीं रोक पाने और लोगों की सुरक्षा करने में नाकाम रहे तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की भूमिका को संभवत: भूल जाएं (कांग्रेस का अतीत भी बीजेपी जितना ही दागदार है).
लेकिन मोदी ने जिस तरह से गांव, कस्बों और शहरों में जा जाकर लोगों के बीच नफ़रत फैलाने के लिए, "हम पांच, हमारे पच्चीस" और "मियां मुशर्रफ़" जैसे नारों का इस्तेमाल किया है, उसे हम नहीं भूल पाएंगे.
राज्य के मुख्यमंत्री के तौर पर उन्हें लोगों के बीच अमन, भाईचारा और एक दूसरे के प्रति सम्मान का भाव पैदा करने की कोशिश करनी चाहिए थी लेकिन उन्होंने लोगों के बीच नफ़रत फैला कर समाज को बांटने का काम किया.
उनकी पहचान उनकी नफ़रत की राजनीति ही बनी. यही वजह है कि हम दंगों के असर को भले भूल जाएं लेकिन हम सांप्रदायिक आधार पर राज्य और देश को बांटने के लिए मोदी और बीजेपी को शायद ही माफ़ कर पाएं.
अगर मोदी को 2002 के दंगों के लिए ज़िम्मेदार ठहराया जाएगा, तो कांग्रेस को भी 1969, 1985, 1989 और 1992 के अहमदाबाद दंगों के लिए ज़िम्मेदार माना जाएगा. लेकिन कांग्रेस ने इन दंगों के आधार पर लोगों के बीच नफ़रत फैलाने को अपनी राजनीति का हिस्सा नहीं बनाया था.
उबर पाए गुजरात के मुसलमान
गुजरात के मुसलमान आर्थिक तौर पर प्रभावित तो हुए ही थे, उनकी सामाजिक ज़िंदगी पर भी असर पड़ा था. दंगों के बाद मुसलमानों के अपने कमतर होने और देश के दोयम दर्जे के नागरिक होने का एहसास हुआ. इन मनोभावों से उबरने में मुसलमानों को कई साल लगे.
मुसलमानों को ये भी महसूस हुआ कि ना तो कांग्रेस और ना ही बीजेपी, उन्हें फिर से खड़ा होने में मदद करेगी. उन्हें ये भी लगा कि कांग्रेस ऐसा वातावरण बना रही है जिस पर मुसलमान केवल उनपर निर्भर हो जाएं. मुसलमानों को कहा गया उन्हें सबकुछ मिलेगा लेकिन अपना हक़ मांगने का अवसर नहीं मिलेगा.
मुस्लिम विद्वानों, धार्मिक नेताओं और मुस्लिम नेताओं को इफ्तार और ईद के जलसे में ज़रूर बुलाया जाता रहा लेकिन समुदाय का उत्साह बढ़ाने, उन्हें प्रेरित करने और उनकी मदद करने के नाम पर कुछ नहीं हुआ.
2011 की जनगणना के मुताबिक गुजरात की कुल आबादी में मुसलमान 7.1 प्रतिशत हैं. यह समुदाय आर्थिक, शैक्षणिक, स्वास्थ्यगत ढांचा और राजनीतिक प्रतिनिधित्व जैसे तमाम मसलों पर ग़ैर-मुस्लिम समुदायों पर निर्भर है.
90 के दशक से ही 182 सदस्यीय गुजरात विधानसभा में महज एक-दो मुस्लिम विधायक रहे हैं. मुस्लिम इलाकों में आज भी गिनती के स्कूल, स्वास्थ्य केंद्र, अस्पताल और सामुदायिक भवन हैं.
2002 के दंगों के बाद पूरा समुदाय इस तरह से लाचार हुआ कि वह ना तो अपने बच्चों को शिक्षित बना पाया ना ही उन्हें प्राथमिक स्वास्थ्य सुविधाएं मिलीं और ना ही जीवन यापन के लिए ज़रूरी पैसा कमा पाए. यह आज भी जाहिर होता है.
इतना ही नहीं, इस समुदाय को सामाजिक बहिष्कार का भी सामना करना पड़ा. लोग मुसलमानों से मिलने-जुलने और बात करने तक से कतराते थे.
ऐसे में किसी राज्य या केंद्र सरकार की मदद या फिर दूसरी राजनीतिक पार्टियों की मदद के बिना ही, लोगों ने खुद और समुदाय को खड़ा करना शुरू किया. बिना किसी शैक्षणिक पृष्ठभूमि के मुसलमानों ने स्कूल खोलना शुरू किया. मुसलमानों ने ये महसूस किया कि अगली पीढ़ी को शिक्षित करना होगा, सशक्त बनाना होगा.
यही वजह है कि 2019 में, गुजरात में मुस्लिम ट्रस्टों और व्यक्तिगत मुसलमानों के स्वामित्व में चलने वाले स्कूलों की संख्या 200 से ज्यादा है और इनमें से अधिकांश अहमदाबाद में मौजूद हैं. मुस्लिम इलाकों में दस अस्पताल और 10 स्वास्थ्य केंद्र स्थापित हो चुके हैं. कई जगहों पर सामुदायिक भवन, सामुदायिक केंद्र और मुस्लिम छात्र-छात्राओं के लिए छात्रावास भी स्थापित किए गए हैं.
कितना बदलाव आ पाया
मुस्लिम इलाके में आपको ढेरों युवा मिल जाएंगे जो अपने इलाके को रहने लायक बना रहे हैं. इन इलाकों में सामान्य सुविधाएं तक मुहैया नहीं हैं लेकिन मुस्लिम युवा अपने इलाके को साफ सुथरा रख रहे हैं, पेड़ पौधे लगा रहे हैं, आस पड़ोस के बच्चों को पढ़ा रहे हैं, कचरा जमा कर रहे हैं. पुराने अखबार, कपड़े जमा कर ज़रूरतमंदों तक पहुंचाने का काम कर रहे हैं.
ऐसी संस्थाएं भी आ गई हैं जो मुस्लिम युवाओं को राज्य और केंद्र स्तर की प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए तैयार करने का काम कर रही हैं. उन्हें रोज़गारोन्मुख पाठ्यक्रमों के लिए तैयार कर रही है. उद्यमियों, डॉक्टरों, डेंटिस्ट, वकील, और स्कूल चलाने वालों के अपने-अपने एसोसिएशन बन गए हैं जो समुदाय के लोगों की मदद कर रहे हैं.
गुजरात में, शिया, सुन्नी और दूसरे इस्लामिक समूह, समुदाय के लिए एकजुटता के साथ काम कर रहे हैं. ऐसा भारत के दूसरे हिस्सों, खासकर उत्तर भारत में नहीं नजर आता है.
अब मुसलमानों ने गैर इस्लामिक समुदाय और संस्थाओं, ट्रस्ट और लोगों से मदद लेना शुरू किया है. वे विचारधारा को अहमियत नहीं दे रहे हैं और बड़े मानव संसाधन के तौर पर विकसित हो रहे हैं.
गुजरात के मुसलमानों को यह भी मालूम हो गया है कि उन्हें केवल अपने समुदाय के लिए काम नहीं करना है, बल्कि अपने विकास के लिए दूसरे समुदायों को भी साथ लेना होगा.
हाल ही में युवाओं के एक समूह ने स्थानीय शराब माफिया और अवैध शराब विक्रेताओं के खिलाफ पुलिस की मदद से शांतिपूर्ण ढंग से मुहिम चलाई है. इन युवाओं में सीए, डॉक्टर और वकील जैसे पेशेवर पढ़ाई कर चुके और अच्छी पृष्ठभूमि के युवा शामिल थे.
दरअसल, यह सांप्रदायिक हिंसा और नफ़रत फैलाने की राजनीतिक का सबसे सटीक जवाब है जो प्यार, करुणा और सशक्तिकरण से हासिल होता है. इसका समाज और देश पर भी साकारात्मक असर पड़ता है.
खुद को सशक्त बनाने की इस प्रक्रिया से मुस्लिम समाज में इतना साहस और भरोसा तो पैदा हुआ है कि वह अपने राजनेताओं और सरकारी अधिकारियों से सवाल जवाब कर सकें लेकिन इस दौरान समुदाय अलग थलग भी हुआ है.
एक तरह का मुस्लिम घेटो विकसित हो गया है. ज्यादातर मुस्लिम बच्चे अपने ही समुदाय के बच्चों के बीच पढ़ते लिखते हैं. ज्यादातर लोग अपने ही समुदाय के डॉक्टरों के पास जाते हैं, अपने ही समुदाय के रेस्टोरेंट में जाते हैं. इन सबके चलते समुदायों के बीच आपसी संवाद कम हुआ है.
जहां मुस्लिम समाज नहीं बढ़ पाया
अभी भी मुसलमानों की निर्भरता कांग्रेस और अन्य सेक्युलर पार्टी के नेताओं पर बहुत अधिक है. वे इस बात को नहीं याद रखते हैं कि मुस्लिम बाहुल्य इलाके में वे मुसलमानों के समर्थन से जीते हैं तो उन्हें मुसलमानों का साथ देना चाहिए.
मुसलमानों को अपना राजनीतिक नेतृत्व तैयार करना चाहिए. लेकिन धार्मिक और राजनीतिक नेता, समुदाय के अंदर नए लोगों को उभरने का मौका नहीं देते. मुसलमानों को ऐसे सेक्युलर चेहरे की ज़रूरत है जो विभिन्न पार्टियों के बीच काम कर सके.
कांग्रेस ने लंबे समय तक मुस्लिम मतदाताओं को अहमियत नहीं दी. कांग्रेस की नरम हिंदुत्व की राजनीति में मुसलमानों के लिए जगह नहीं है. ना ही कांग्रेस के पास मुसलमानों के लिए कोई विज़न है जिससे मुस्लिम समाज की शैक्षणिक, आर्थिक और स्वास्थ्यगत हालात में सुधार आए.
ढीले रवैए के चलते ही मुसलमान कांग्रेस से दूर हुए हैं. कांग्रेस पर टोपी पहनने और भव्य इफ्तार पार्टियां देने के लिए मुसलमानों का तुष्टिकरण करने का आरोप लगता आया है लेकिन मुसलमानों को इन हथकंडों की ज़रूरत नहीं है. मुसलमानों की असली चिंता, मॉब लिंचिंग और फे़क इनकाउंटर वाले शासन में सुरक्षा की है.
इसलिए हमें कांग्रेस और दूसरी सेक्यूलर पार्टियों से भी सवाल पूछने होंगे. हमें अपने समुदाय में राजनीतिक नेतृत्व को उभारना होगा. हमें ऐसे युवा चेहरों को निखारना होगा जो ना केवल समुदाय और उनके मुद्दों का प्रतिनिधित्व कर सकें, बल्कि दूसरे समुदाय और राजनीतिक दलों के साथ भी मिलजुलकर काम कर सकें.
(लेखक अहमदाबाद यूनिवर्सिटी में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर हैं, ये लेखक के निजी विचार हैं.)
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