मुज़फ़्फ़रपुर के अस्पताल में बच्चे बीमार आ रहे हैं, मरकर जा रहे हैं': ग्राउंड रिपोर्ट
आज सुबह से ही मुज़फ़्फ़रपुर का श्री कृष्णा मेडिकल कॉलेज 45 डिग्री की उमस भरी तीखी धूप के साथ साथ, परिसर के भीतर रो रही माओं के गर्म आँसूओं में भी उबल रहा था.
यह माएं हैं उन बीसियों मासूम बच्चों की जिन्होंने बीते एक पखवाड़े के दौरन इस अस्पताल में दम तोड़ा है.
मुज़फ़्फ़रपुर में 'चमकी बीमरी' या मस्तिष्क ज्वर के साथ साथ अक्यूट इनसेफ़िलाइटिस सिंड्रोम (एइस) की वजह से अपनी जान गंवाने वाले बच्चों का आंकड़ा 93 तक जा पहुंचा है.
इनमें से दो बच्चों ने आज दोपहर यहां दौरे पर आए केंद्रय स्वास्थ मंत्री डॉक्टर हर्षवर्धन के सामने ही दम तोड़ा दिया.
श्री कृष्णा मेडिकल कॉलेज (एस.के.एम.सी.एच) के बाल रोग विशेष इंटेसिव केयर यूनिट (बाल रोग आइ.सी.यू) में लगा शीशे का महीन दरवाज़ा वार्ड के अंदर से आ रही रुदन की आवाज़ों को रोक नहीं पा रहा है.
भीतर 8 बिस्तरों के इस स्पेशल वार्ड के आख़री कोने में सर झुकाए बैठी बबिया देवी सर हिला हिला कर सिसक रही थीं.
बग़ल में लेटी उनकी पांच साल की बेटी मुन्नी ज़िंदगी और मौत से जूझ रही थी. बिस्तर के ऊपर टंगे टूं-टूं करते दो हरे रंग के मोनिटरों पर लाल-पीली रेखाएं बन-बिगड़ रही थी.
मोनिटरों के रंग और आवाज़ के साथ-साथ बबिया का रुदन भी बढ़ता जाता. पिछले दिनों इस वार्ड में दम तोड़ चुके बच्चों के ख़ौफ़ की छाया बबिया के चेहरे पर इतने गहरे तक चिपकी हुई थी की डॉक्टरों के हिम्मत हारने से पहले ही उसने मान लिया था की मुन्नी अब ज़िंदा नहीं बचेगी.
मेरे देखते ही देखते अचानक मोनिटर से आ रही बीप की आवाज़ तेज़ हुई और दो डाक्टर एक साथ मुन्नी की छाती को अपनी मुट्ठियों से दबा दबा कर उसकी साँसे वापस लाने की कोशिश करने लगे.
डॉक्टर के हाथों से दिए गए हर पम्प के बाद मुन्नी का मासूम चेहरा धीरे से ऊपर की ओर उठ जाता. उसके पीले पड़ चुके होठों और उनकी पलकों के कोरों से एक साथ पानी के क़तरे बह निकले. इधर माँ बबिया ने भोजपुरी भाषा में एक हृदय विदारक लोक गीत गाना शुरू कर दिया.
एक दिन पहले ठीक थी मुन्नी
पूछने पर सिर्फ़ इतना बोली कि डाक्टरों ने जवाब दे दिया है, मुन्नी अब नहीं बचेगी. लेकिन हंसती खेलती मुन्नी को आख़िर हुआ क्या था? डाक्टर जहां यह तय नहीं कर पा रहे थे की मुन्नी एईएस की शिकार थी या मस्तिष्क ज्वर की वहीं बबिया को सिर्फ़ इतना याद था कि एक दिन पहले तक उनकी बेटी ठीक थी.
आँसुओं से भीगे चेहरे को अंचल में छिपाते हुए वह बताती हैं, "हम कोदरिया गोसाइपुर गाँव के रहने वाले हैं. शनिवार सुबह 10 बजे मुन्नी को यहां अस्पताल लेकर आए थे. शुक्रवार दिन तक वो ठीक ही थी. खेल कूद रही थी. रात में दाल-भात खाकर सो गई. जब मैं सुबह उठी तो देखा वो बुखार में तप रही थी."
"हम भागे भागे उसे अस्पताल लाए. पहले कुछ दूर तक पैदल ही लेकर दौड़ते रहे, फिर गाड़ी मिली तो किराया देकर यहां तक पहुंचे. लेकिन अस्पताल में उसकी हालत में कोई सुधार नहीं हुआ. उसने तब से आँखें ही नहीं खोली."
मुज़फ़्फ़रपुर में हो रही इन मौतों की वजह को लेकर चिकित्सा विशेषज्ञ बंटे हुए हैं. एक ओर जहां इस मामले में हुए शोध लीची नामक रसीले फल में मौजूद टोक्सिक पदार्थों को बच्चों के भीतर फैलते मस्तिष्क ज्वर के लिए ज़िम्मेदार बताते हैं, वहीं कुछ चिकित्सा विशेषज्ञों का मानना है कि यह विशेष दिमागी बुखार बच्चों के शरीर में ग्लूकोस का स्तर कम होने की वजह से उन पर हमला करता है.
क्या है मौत की वजहें
लम्बे वक़्त से वायरस और इंफ़ेक्शन पर काम कर रहीं वरिष्ठ डॉक्टर माला कनेरिया के अनुसार मुज़फ्फरपुर में हो रही बच्चों की मौत के पीछे कई कारण हो सकते हैं.
वह कहती हैं, "देखिए बच्चों की मौत एईएस की वजह से हो रही है, सामान्य दिमाग़ी बुखार या फिर जापानी इनसेफ़िलाइटिस की वजह से, यह पुख़्ता तौर पर कह पाना बहुत मुश्किल है. क्योंकि इन मौतों के पीछे कई कारण हो सकते हैं."
"कच्चे लीची फल से निकलने वाले टॉक्सिक, बच्चों में कुपोषण, उनके शरीर में शुगर से साथ साथ सोडियम का कम स्तर, शरीर में इलेक्ट्रोलाइट स्तर का बिगड़ जाना इत्यादि. जब बच्चे रात को भूखे पेट सो जाते हैं और सुबह उठकर लीची खा लेते हैं तो ग्लूकोस का स्तर कम होने की वजह से आसानी से इस बुखार का शिकार हो जाते हैं. लेकिन लीची एकलौती वजह नहीं है. मुज़फ़्फ़रपुर में इनसेफ़िलाइटिस से हो रही मौतें के पीछे एक नहीं, कई कारण हैं."
यहां यह बताना ज़रूरी है की मुज़फ़्फ़रपुर लीची की उपज के लिए मशहूर क्षेत्र हैं और यहां के ग्रामीण अंचल में लीची के बाग़ान नज़र आना आम बात है.
उधर मुज़फ़्फ़रपु मेडिकल कॉलेज के आइसीयू वार्ड में में बबिया के साथ बैठी ही थी की अचनाक दो बिस्तर दूर से ज़ोर ज़ोर से रोने की आवाज़ आने लगी.
ये भी पढ़ें-
पलट कर देखा तो दो डॉक्टर बिस्तर के आधे हिस्से में लेटी एक छोटी सी बच्ची के सीने को हिलाते हुए उसे ज़िंदा करने की कोशिश कर रहे थे. बच्ची सुन्न पड़ी थी. अचानक वार्ड में ज़ोर से हल्ला हुआ और दो महिलाएँ एक दूसरे से लिपटकर ज़ोर ज़ोर से रोने लगीं.
वार्ड के बाहर बिछी कुर्सियों पर गिर कर रो रही उनमें से एक रूबी खातून थीं. अंदर बिस्तर पर लेटी उनकी चारा साल की बेटी तम्मना खातून की ज़िंदगी अपने किनारे पर खड़ी थी.
लीची पर सवाल
दीवार पर अपने दोनों हाथ पटक कर चूड़ियां तोड़ते हुए रूबी के रुदन ने मुझे भी सुन्न कर दिया. पर उस पल में रूबी के दुःख की कोई थाह नहीं ले सकता. वह एक माँ थी जिसने शायद अपने बच्चे को हमेशा के लिए जाते हुए देख लिया था.
काले दुःख में डूबी यह माँ आगे बोलती है, "पिछले दो दिनों में इस अस्पताल से एक भी बच्चा ठीक होकर वापस नहीं गया है. सभी बच्चे मर कर हाई वापस गए हैं. मेरी लड़की ने कोई लीची नहीं खाया था. हम रोटी बनाए थे वही खा के अच्छे से सो गयी थी. फिर सुबह उठाए तो नहीं उठी."
"हमने सोचा कि देर तक सोने का मन होगा तो छोड़ दिया उसे वहीं. फिर थोड़ी देर में देखा की घुटनों के बल बैठी हुई थी. हाथ-पैर उसके पूरे कांप रहे थे. फिर हम उसे तुरंत लेकर यहां अस्पताल आए. लेकिन अस्पताल में हालत सुधरी नहीं. डॉक्टर भी अपने में बात करते और चले जाते. मैंने क्या इसलिए लड़की को पाल पोस कर इतन बड़ा किया था कि एक दिन ऐसे ही चली जाए?"
वार्ड के सामने से गुज़रते हुए मैंने देखा की मरीज़ों के परिजन बोतलों में पानी भर भर के ला रहे हैं. पूछने पर पता चला की पूरे मेडिकल कॉलेज में पीने के साफ़ पानी की व्यवस्था नहीं है. इस वजह से इनसेफ़िलाइटिस के मरीज़ों के परिजनों को भी अस्पताल के बाहर बने एक हैंडपम्प तक पानी भरने जाना पड़ता है.
एक ओर जहां मरीज़ हैंडपम्प के पानी के गंदा होने की शिकायत करते हुए मुझे मटमैला रंग का पानी दिखाते हैं वहीं अन्य परिवार बताते हैं की आर्थिक तौर पर खस्ताहाल वह बोतल बंद पानी ख़रीदने को मजबूर हैं. क्योंकि अस्पताल में पीने का पानी उपलब्ध नहीं है.
आज शाम को इसी अस्पताल में हुए एक प्रेस कोनफ़्रेस में बीबीसी के सवाल का जवाब देते हुए केंद्रीय स्वास्थ मंत्री डॉक्टर हर्षवर्धन ने कहा की इनसेफ़िलाइटिस के मरीज़ों के लिए पीने के पानी की उपलब्धता 'कोई क्रिटिकल इश्यू नहीं है.'
Comments