हरियाणा में BJP ने शुरु की जाट-ग़ैर जाट की राजनीति?
हरियाणा के कुछ हलकों में रिपोर्टिंग के दौरान हमने लोगों से सुना कि 'जब से राज्य में बीजेपी आई है, तभी से जाति की ये गंदी राजनीति शुरु हुई, वरना राज्य में सभी बिरादरियों का भाईचारा था'. लेकिन इतिहास का हवाला देकर कुछ राजनीतिक विश्लेषक इस बात को ग़लत साबित करते हैं.
हरियाणा के राजनैतिक इतिहास पर 'पॉलिटिक्स ऑफ़ चौधर' नाम की किताब लिख चुके वरिष्ठ पत्रकार सतीश त्यागी कहते हैं, "जाट-ग़ैर जाट की राजनीति का प्रारम्भ मौजूदा दशक में, ख़ासकर 2014 के चुनाव से हुआ हो, ऐसा नहीं है. आज़ादी से पहले भी इस क्षेत्र में ये चीज़ें मौजूद थीं. जब 'रहबरे हिन्द' की उपाधि प्राप्त चौधरी छोटू राम का इस क्षेत्र में राजनीतिक दौर था, उसके इर्द-गिर्द भी ये चीज़ें आ गई थीं. जाट समुदाय से आने वाले छोटू राम पंजाब प्रांत में एक प्रभावशाली नेता थे और इस इलाक़े में कांग्रेस कमेटी के मुख्य पदों पर भी रहे थे. लेकिन जैसे ही राष्ट्रीय आंदोलन में महात्मा गांधी का बहुत ज़्यादा प्रभाव बढ़ा तो इस इलाक़े में आंदोलन की बागडोर वैश्यों और ब्राह्मणों के हाथ में चली गई."
"पंडित श्री राम शर्मा इस इलाक़े से राष्ट्रीय आंदोलन के बड़े चेहरे के रूप में उभरे. तो छोटू राम को यह महसूस हो गया कि 'वैश्यों और ब्राह्मणों' के नेतृत्व के रहते खेतों में काम करने वाली जातियों का एजेंडा वो स्थापित नहीं कर पाएंगे और उन्होंने अपनी धारा बदल ली. कई जगह आप देखते हैं कि वो गांधी की आलोचना भी करते हैं. इसके बाद के इतिहास पर नज़र डालें तो पाएंगे कि इस क्षेत्र में पंडित श्री राम शर्मा बनाम चौधरी छोटू राम की राजनीति चलती रही है."
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"1962 के चुनाव के दौरान इसी राजनीति को एक नया मोड़ दिया कांग्रेस नेता भगवत दयाल शर्मा ने जिन्होंने जाट बहुल क्षेत्र झज्जर में प्रोफ़ेसर शेर सिंह जैसे कद्दावर जाट नेता को चुनौती दी. भगवत दयाल शर्मा को संयुक्त पंजाब के मुख्यमंत्री रहे प्रताप सिंह कैरों का आशीर्वाद प्राप्त था और कैरों चाहते थे कि हरियाणा (अंबाला डिवीजन) में कोई समान्तर जाट नेतृत्व ठीक से ना उभरे. उस दौर में देवी लाल और प्रोफ़ेसर शेर सिंह नामी जाट चेहरों के तौर पर पहचान बना रहे थे."
"इसलिए उनके कद को कम करने के लिए कैरों ने भगवत दयाल शर्मा का इस्तेमाल किया. इस चुनाव में शर्मा ने भरपूर कोशिश की थी कि समाज में ध्रुवीकरण हो और वोट दो हिस्सों में टूट जाएं. एक तरफ जाट हों और दूसरी तरफ अन्य समुदाय के लोग. इसका नतीजा भी वो पहले से जानते थे और वही हुआ. हरियाणा से केंद्र में मंत्री बनने वाले पहले नेता और तीन बार के विधायक प्रोफ़ेसर शेर सिंह को भगवत दयाल शर्मा ने पछाड़ दिया और जाति आधारित राजनीति ने अपना काम किया."
त्यागी कहते हैं कि "भगवत दयाल शर्मा ने इसके बाद एक काम और किया कि नया सूबा (हरियाणा) बनते ही जो चुनाव हुए उनमें अपनी ही पार्टी के उन सभी लोगों को उन्होंने निर्दलीय प्रत्याशी खड़े करके हरवा दिया जो सीएम की दौड़ में उनके प्रतिद्वंद्वी हो सकते थे. जब इसकी पोल खुली तो उनके ख़िलाफ़ एक मोर्चा बना जिसमें वो सब नेता शामिल हुए जिन्हें शर्मा ने हरवाया था. इनका नेतृत्व जाट नेता देवी लाल और यादवों के नेता राव बिरेंद्र सिंह कर रहे थे. इस मोर्चे के बारे में कहा गया था कि खेतों में काम करने वाली जातियाँ एक ब्राह्मण के नेतृत्व को ख़ारिज कर रही हैं. लेकिन उस समय इतनी खुलकर बातें नहीं होती थीं. सोशल मीडिया था नहीं. फिर भी समाज में एक समझ बनी कि कौन किसके वर्चस्व को ललकार रहा है.
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https://www.bbc.com/hindi/india-50086650
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