जम्मू-कश्मीर: ख़ास दर्जा ख़त्म, तो क्या अब सामान्य होंगे हालात?
केंद्र सरकार ने 5 अगस्त, 2019 को ऐतिहासिक फ़ैसला करते हुए भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 और 35-ए को निष्प्रभावी करते हुए जम्मू कश्मीर राज्य के पुनर्गठन का फ़ैसला लिया. इसके तहत 31 अक्तूबर, 2019 से राज्य की जगह दो केंद्रशासित प्रदेशों की व्यवस्था अस्तित्व में आ गयीं.
अनुच्छेद 370 से जम्मू कश्मीर को नाममात्र की स्वायत्तता हासिल थी, लेकिन इसे निरस्त कर दिया गया ताकि इलाके में विकास को बढ़ावा देने और आतंकी गतिविधियों पर अंकुश लगाने के लिए सुरक्षा बलों पर सीधे केंद्र का नियंत्रण हो.
दरअसल मौजूदा केंद्र सरकार को यह लगा कि बीते तीन दशक से राज्य में सुरक्षा बलों की भारी तैनाती के बाद भी न तो कश्मीरी जनता पूरी तरह काबू में है और न ही वहां होने वाले विद्रोह प्रदर्शनों को दबाया जा सका है.
ऐसे में उन्होंने एक देश, एक संविधान के विचार को यहां लागू करने का फ़ैसला किया.
जम्मू कश्मीर का विशेष दर्जा निरस्त किए जाने से जम्मू कश्मीर राज्य का संविधान और उनका अपना झंडा भी निरस्त हो गया है. इससे ढेरों कश्मीरियों की भावनाएं आहत हुई हैं.
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सुप्रीम कोर्ट में कई याचिकाएं
सरकार के अचानक और एकतरफ़ा ढंग से लिए गए इस फ़ैसले को अलोकतांत्रिक और असंवैधानिक भी बताया जा रहा है. यही वजह है कि सुप्रीम कोर्ट में इस फ़ैसले की समीक्षा सम्बन्धी कई याचिकाएं दाखिल की गई हैं.
26 अक्टूबर, 1947 को जम्मू-कश्मीर के महाराजा और भारत सरकार के बीच हुए विलय के समझौते के मुताबिक यह राज्य भारत का अभिन्न हिस्सा है हालांकि इसके कुछ हिस्से भारतीय प्रशासन के तहत आते हैं तो कुछ पाकिस्तान और चीन के अधिकार क्षेत्र में.
इस पूरे क्षेत्र को अपने आधिपत्य में लेने के लिए भारत लगातार अपनी प्रतिबद्धता जताता आया है लेकिन अब तक इस पूरे हिस्से पर उसका नियंत्रण नहीं हो सका है.
यहां तक कि 1965 और 1971 के युद्ध में भारत ने पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर पर क़ब्ज़ा जमा लिया था लेकिन संयुक्त राष्ट्र के 1948 के प्रस्ताव के प्रावधानों के तहत नियंत्रण रेखा की गरिमा को बनाए रखने के लिए भारत को जीते हुए हिस्सों को वापस करना पड़ा था.
यूएन का 1948 का प्रस्ताव भारत और पाकिस्तान के लिए कश्मीर विवाद के सौहार्दपूर्ण हल निकालने की बाध्यता से सम्बन्धित है.
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शासन और मानवाधिकार मामलों पर असर
राज्य में चरमपंथियों और आंतरिक विद्रोह का समर्थन करने वाले अलगाववादी नेता अमूमन राष्ट्रीय सुरक्षा के आधार पर हिरासत में ही रहते हैं. लेकिन 5 अगस्त, 2019 के बाद से, तीन पूर्व मुख्यमंत्रियों यानी फ़ारूक अब्दुल्ला, उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ़्ती समेत मुख्यधारा के राजनेताओं को भी, बिना किसी आपराधिक मामले के, हिरासत या घर में नज़रबंद रखा जा रहा है.
कई मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक़, कुल मिलाकर 4,000 से ज़्यादा नेता, सामाजिक कार्यकर्ता, कारोबारी और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को केंद्र सरकार की जल्दबाजी और संदेहास्पद प्रक्रिया के जरिए हिरासत में लिया गया है.
आम जनजीवन पर पाबंदियां जारी हैं, लोग बेरोक टोक कहीं आ जा नहीं सकते. संचार के साधनों पर पाबंदियां हैं और कश्मीर घाटी में लॉकडाउन जैसी स्थिति है.
इन वजहों से बीते तीन महीने से यह पूरा इलाका कटा हुआ है और मानवाधिकार संकट का सामना कर रहा है.
मानवाधिकार उल्लंघन से सम्बन्धित मामलों पर देश के अंदर और देश के बाहर, ख़ासकर यूएन में, लगातार बात हो रही है. लोगों की आवाज़ों को दबाने और मीडिया पर जानबूझ कर अंकुश लगाए जाने को लेकर लोगों में गंभीर चिंताएं हैं.
हालांकि सत्तारूढ़ पार्टी के शीर्ष नेता इस बात को बार-बार दुहरा रहे हैं कि उन्होंने अपने चुनावी घोषणा पत्र का एक वादा पूरा किया है.
देश भर में भी इसको लेकर उत्साह का माहौल दिखा है लेकिन घाटी के लोग बेहद दुखी और अपमानित महसूस कर रहे हैं.
डिजिटल अर्थव्यवस्था में व्यवधान
अपने सभी नागरिकों के संवैधानिक अधिकारों की सुरक्षा करने की भारी ज़िम्मेदारी केंद्र सरकार पर होती है, ताकि लोग गरिमापूर्वक जीवन जी सकें.
कश्मीर के लोगों का न केवल अपने परिवार और दोस्तों से संपर्क टूट गया है बल्कि वे सामाजिक-आर्थिक सुविधाओं का लाभ भी नहीं ले पा रहे हैं.
इंटरनेट सुविधाएं उन तक नहीं पहुंच पा रही हैं. लोगों की शारीरिक और मानसिक इलाज से सम्बन्धित योजना आयुष्मान भारत पूरी तरह से बाधित है.
इसी तरह से मनरेगा के तहत मज़दूरी का भुगतान, विधवा पेंशन, वृद्धावस्था पेंशन और छात्रवृति की योजनाएं भी बुरी तरह प्रभावित हुई हैं.
जब तक सरकार संचार नेटवर्क पूरी तरह से बहाल नहीं करती है, तब तक नागरिकों के आर्थिक कल्याण की योजनाओं को लागू कर पाना संभव नहीं होगा.
दोनों केंद्र शासित प्रदेश यानी जम्मू,कश्मीर और लद्दाख में कुल 22 ज़िले हैं. यहां के ज़िले एक दूसरे से जलवायु और भौगोलिक तौर पर काफ़ी अलग होते हैं.
विषम जलवायु के चलते इनमें से कईयों का संपर्क कई महीनों तक कट जाता है. प्रत्येक जिले के विकास की रणनीतिक योजना पर कभी विचार नहीं किया गया जिसकी कमी के चलते इलाके का आर्थिक विकास भी नहीं हुआ.
एमएम अंसारी
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