राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के होते हुए उद्धव ठाकरे को क्यों नहीं मना पाई बीजेपी
शिव सेना नेता उद्धव ठाकरे का सपना सच होने पर, अब महाराष्ट्र विधानसभा ने भी उस पर मुहर लगा दी है.
मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने सदन में बहुमत साबित कर दिया. राजनीति के इस खेल में उन्होंने दो नए दोस्त हासिल किए तो एक पुराना विश्वस्त दोस्त खो भी दिया.
राजनीति ना केवल संभावनाओं का खेल है बल्कि बॉलीवुड के शंहशाह शाहरुख ख़ान के फिल्मी संवाद की तरह "हार कर जीतने वाले को बाज़ीगर कहते हैं" भी हैं.
अब आप उद्धव ठाकरे को 'बाजीगर' कहें, ' डार्क हॉर्स' कहें या फिर महाराष्ट्र का गौरव माने जाने वाले 'शिवाजी महाराज' से तुलना करने की कोशिश करें.
कुछ लोग इसे राजनीतिक चतुराई मानते हैं तो कुछ विश्वासघात, लेकिन इन सब उपमाओं और उदाहरणों से सच फिलहाल बदलने वाला नहीं लगता. बहुत से लोगों ने अभी से सरकार को लेकर उलटी गिनती भी शुरु कर दी होगी, लेकिन अक्सर कहा जाता है कि कौओं के कोसने से बैल नहीं मरा करते.
हो सकता है कि कुछ लोगों के दिल में मलाल हो, तकलीफ़ हो, लेकिन साथ ही यह दिखावा भी कि सत्ता के लिए हम सिद्धांतों से समझौता नहीं करते.
कुछ लोग हैं जो अब भी मानते होंगे कि उन्होंने चुप रह कर, दख़ल नहीं देकर ठीक ही किया है क्योंकि उनका मक़सद 'राजनीति' करना नहीं है. इन सब बातों में बहुत कुछ सच हो सकता है, बहुत कुछ आप सच नहीं मानने का दावा कर सकते हैं.
बॉलीवुड के मशहूर नाम नितिन देसाई की सोच से शिवाजी पार्क पर बना शपथ ग्रहण मंच, मैदान और समारोह शानदार था, लेकिन ना जाने क्यों उसमें शोले के फिल्मी गाने "ये दोस्ती हम नहीं तोड़ेंगे" से शुरु होकर "दोस्त दोस्त ना रहा…" पर ख़त्म होता महसूस हो रहा था.
एक अहम सवाल मेरे मित्र ने पूछा कि इस बार महाराष्ट्र की राजनीति में नागपुर के महाल की क्या कोई भूमिका नहीं रही?
नागपुर का महाल इलाका यानी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का मुख्यालय,जहां आरएसएस का हाईकमान है, जहां सरसंघचालक बैठते हैं और दिल्ली में बैठने वाले लोग ख़ास तौर से पत्रकार उसे बीजेपी का रिमोट कंट्रोल कहते हैं. यानी नागपुर से ही बीजेपी की राजनीति चलती है.
उससे उलट बीजेपी और संघ हमेशा कहते रहे कि संघ बीजेपी की राजनीति में कोई दख़ल नहीं देता.
संघ के दूसरे सरसंघचालक माधव सदाशिव गोलवलकर से लेकर अभी डॉ मोहन भागवत तक बहुत कम मौके आए होंगें, जब संघ ने बीजेपी-जनसंघ की राजनीति में सीधे दख़ल दिया हो.
महाराष्ट्र फडनवीस को ज़िम्मेदारी बन गई
गुरुजी गोलवलकर तो सामान्यत राजनीतिक स्वभाव के ही नहीं थे लेकिन राजनीतिक स्वभाव वाले बालासाहेब देवरस ने 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनाने में भूमिका के अलावा शायद ही कोई दखलन्दाजी की हो, जनसंघ से बीजेपी बनने के वक्त भी नहीं, हां, सुदर्शनजी का प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के मंत्रिमंडल से दो मंत्रियों के नाम कटवाना इसका बड़ा अपवाद माना जा सकता है.
खैर! बात अभी महाराष्ट्र में मौजूदा राजनीति की. आरएसएस के लोगों का कहना है कि संघ ने प्रदेश में सरकार बनाने में बीजेपी के फ़ैसले पर कोई दख़ल नहीं दिया.
लेकिन यह भी बताया गया कि दिल्ली की सेन्ट्रल लीडरशिप ने फोन करके संघ हाईकमान को कहा कि आप शिव सेना-फडणवीस मसले पर अपनी तरफ से शिव सेना से बात मत कीजिए और अगर उनका फ़ोन भी आता है तो फ़ोन मत उठाइए.
ख़बर यह भी है कि उद्धव ठाकरे ने संघ मुख्यालय में कोई फ़ोन नहीं किया.
हां, उद्धव ठाकरे और देवेन्द्र फडनवीस के बीच ज़रूर बातचीत हुई, कम से कम तीन बार.
बीजेपी आलाकमान ने संघ हाईकमान को कहा कि इस वक्त शिव सेना "राजनीतिक ब्लैकमेलिंग" कर रही है और यदि उनके दबाव में आ गए तो देश भर में बीजेपी की राजनीति पर इसका असर पड़ेगा, फिर हो सकता है कि हरियाणा में उप-मुख्यमंत्री बने दुष्यंत चौटाला भी मुख्यमंत्री बनने के सपने देखने लगें.
बड़ी पार्टी का ही सीएम बनना चाहिए, इसमें कुछ गलत नहीं है, राजनीति का सिद्धान्त यही कहता है. फिर हो सकता है कि झारखंड के चुनावों में भी ऐसी ही मुश्किल का सामना करना पड़े.
इस बातचीत के बाद संघ हाईकमान ने महाराष्ट्र के मसले में कोई द़खल नहीं दिया.
नागपुर में संघ विचारक दिलीप देवधर कहते हैं कि संघ आमतौर पर ना तो कोई निर्देश देता है और ना ही बीजेपी के लिए राजनीतिक फ़ैसले करता है, लेकिन उसकी नज़र ज़रूर रहती है और वो समीक्षा भी करता है इसलिए अब डॉ कृष्णगोपाल की अगुवाई में एक समन्वय समिति बनाई गई है जो महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों और उसके बाद हुए घटनाक्रम पर पूरी जांच करेगी और संघ हाईकमान को रिपोर्ट देगी.
देवधर की बात मानें तो संघ हाईकमान इस बात से ज़रुर नाराज़ रहा कि बीजेपी लीडरशिप ने विधानसभा चुनावों में एक दर्जन से ज़्यादा पुराने नेताओं के टिकट काट दिए और दूसरी तरफ बीस से ज़्यादा नेता दूसरी पार्टियों से शामिल किए.
इस दौरान बीजेपी नेता और मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडणवीस के बयानों और रवैये से भी संघ खुश नहीं रहा.
देवधर ने बताया कि 2014 के चुनावों के बाद संघ हाईकमान ने नागपुर से ही बीजेपी के वरिष्ठ नेता नितिन गडकरी को मुख्यमंत्री बनाने का सुझाव दिया था, लेकिन बीजेपी लीडरशिप ने नहीं माना और फडनवीस को ज़िम्मेदारी दी गई.
इस बार भी गडकरी का नाम चल रहा था, लेकिन उन्होंनें खुद साफ़ कर दिया कि वे रेस में नहीं हैं.
बीजेपी को था ख़ुद पर भरोसा
2019 के विधानसभा चुनावों के दौरान बीजेपी को भरोसा था कि पिछली बार उसके पास 122 विधायक थे और दो दर्जन से ज़्यादा दूसरी पार्टियों के नेताओं को टिकट दिया है तो वो अकेले अपने दम पर बहुमत हासिल कर लेगी.
इस भरोसे की एक वजह यह भी थी कि पिछला विधानसभा चुनाव बीजेपी ने अकेले लड़ा था जबकि इस बार शिव सेना भी साथ थी, तो उसे उम्मीद थी कि कुछ सीटें बढ़ेंगी, लेकिन ऐसा नहीं हो पाया.
चुनाव नतीजों के बाद जब बीजेपी बहुमत से दूर थी तब शिव सेना को महसूस हुआ कि यह मौका है जब बीजेपी को दबाव में लाया जा सकता है.
इससे पहले शिवसेना के आदित्य ठाकरे को उप-मुख्यमंत्री बनाए जाने की बात चल रही थी.
चुनाव के बाद सरकार में "फ़िफ्टी-फ़िफ्टी" के फ़ार्मूले का मतलब था कि मुख्यमंत्री तो बीजेपी के फडणवीस होंगें, लेकिन मंत्री बराबर-बराबर होगें.
जब शिव सेना को भी मुख्यमंत्री पद देने की बात आई तो दिल्ली में बैठी बीजेपी लीडरशिप ने शिव सेना से कहा कि मुम्बई, कल्याण, उल्लास नगर, डोंबिवली और कई जगहों पर बीजेपी के पार्षद और शिव सेना के पार्षदों की संख्या में ज़्यादा फ़र्क़ नहीं है तो फिर वहां भी बीजेपी के मेयर आधे समय के लिए बनने चाहिए, लेकिन शिव सेना लीडरशिप इसके लिए तैयार नहीं हुई तब बीजेपी ने कहा कि फिर सीएम की कुर्सी के लिए यह सवाल कैसे आता है.
जब कम सीटों के बावजूद मायावती बनीं मुख्यमंत्री
मुझे 1989 के चुनाव याद आ रहे हैं जब एक प्रेस कान्फ्रेंस में विश्वनाथ प्रताप सिंह और अटल बिहारी वाजपेयी साथ बैठे थे.
मैंने सवाल पूछा- यदि चुनाव में बीजेपी को सबसे ज़्यादा सीटें मिलती हैं तो फिर कौन प्रधानमंत्री बनेगा? प्रेस कान्फ्रेंस में पल भर को सन्नाटा.
वी पी सिंह ने वाजपेयी की तरफ देखा. वाजपेयी ने मेरी तरफ़ मुस्करा कर देखा और बोले, "इस बारात के दूल्हा तो वी पी सिंह ही हैं."
यूं तो नब्बे के दशक में यूपी में भी वाजपेयी जी ने कम सीटों के बावजूद मायावती जी को मुख्यमंत्री बनवा दिया था.
इसके अलावा एक और अहम बात कि उद्धव ठाकरे को लगता था कि अगर प्रधानमंत्री उन्हें रिक्वेस्ट करेंगें तो वे मान जाएंगें और फिर 50-50 मंत्री पद को लेकर बीजेपी पर मेहरबानी कर देंगें, लेकिन ऐसा नहीं हो पाया.
दूसरी बात खुद उद्धव ठाकरे को इस बात की उम्मीद नहीं थी कि कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी उनके नाम पर तैयार हो जाएंगी, लेकिन सोनिया गांधी पर महाराष्ट्र के कांग्रेस विधायकों का दवाब था सरकार में बैठने के लिए.
शरद पवार को कम आंकने की ग़लती कर दी
शिव सेना के साम्प्रदायिक होने के मसले पर इन विधायकों ने तर्क दिया कि जब राहुल गांधी को केरल में चुनाव जिताने के लिए कांग्रेस मुस्लिम लीग से सहयोग ले सकती है तो यहां शिव सेना को लेकर आपत्ति क्यों?
फिर विधायकों का कहना था कि यह चुनाव उन्होंने अपने दम पर लड़ा है और जीता है, केन्द्रीय पार्टी ने तो किसी भी तरह की मदद उन्हे नहीं की.
इसके बाद कांग्रेस हाईकमान को विधायकों के टूटने का डर भी सताने लगा था.
शिव सेना के इंकार के बाद बीजेपी ने एनसीपी से रिश्ते बनाने की तैयारी कर ली थी. खुद शरद पवार की प्रधानमंत्री से बात हो गई.
दूसरी तरफ बीजेपी आलाकमान को लगा कि अजित पवार विधायक दल के नेता हैं और उन्हीं के पास विधायकों की ताक़त है तो बीजेपी के वरिष्ठ नेता भूपेन्द्र यादव और खुद अमित शाह ने अजित पवार के साथ बातचीत करके सरकार बनाने की रणनीति को अंजाम दिया, लेकिन शरद पवार आसानी से बाजी हारने वालों में से नहीं रहे.
23 नवम्बर को सवेरे में मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के बाद राजभवन में गर्मागर्म चाय की महक आ रही थी.
टेबल पर सुनहरी कपों मे चाय उड़ेली जा रही थी, लेकिन किसे पता था कि कहावतें ज़िंदगी में कभी-कभी इतनी सच हो जाती हैं -
"देयर आर सो मेनी स्लिप्स, बिटविन कप एंड लिप्स. वो चाय ठंडी हो गई....."
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