नागरिकता संशोधन विधेयक: क्या ये आइडिया ऑफ़ इंडिया के ख़िलाफ़ है-नज़रिया
भारत की जो मूलभूत परंपरा रही है वो ये है कि कोई भी शरणार्थी अगर हमारे द्वार पर आया है और वो अपने मुल्क में प्रताड़न का शिकार है, तो हमने उससे ये नहीं पूछा है कि उसकी जाति क्या है, उसका मज़हब क्या है, वो किस समुदाय का है, हमने उसको पनाह दी है.
ये आज से नहीं बल्कि सदियों से भारत की मूलभूत अवधारणा का आधार रहा है. जब पारसी पांचवी और आठवीं सदी में परसिया से प्रताड़ित हो कर भागे थे (जो आजकल ईरान, इराक़ है), तो वो गुजरात पहुंचे थे.
वो लोग संजन में आकर उतरे थे और वहां के राजा राणा जाधव ने उनको पनाह दी थी. इसके बाद वो भारत की फिज़ां में घुलमिल गए.
इस तरह के इतिहास में अनेकों उदाहरण हैं, जहां भारत ने अपना दिल और दिमाग़ संकीर्ण नहीं किया और एक व्यापकता और दरियादिली दिखाई.
गृहमंत्री अमित शाह ने लोक सभा में नागरिकता संशोधन विधेयक पेश करते हुए कांग्रेस पर आरोप लगाया कि धर्म के आधार पर विभाजन कांग्रेस ने किया था.
गृह मंत्री ने या तो इतिहास पढ़ा नहीं है या फिर पढ़ा है तो उससे वो जान कर ओझल होना चाह रहे हैं और ग़लत बयान दे रहे हैं.
इतिहास ये है कि सबसे पहले 1907 में धर्म के आधार पर टू नेशन थ्योरी की बात भाई परमानंद ने की थी, जो हिंदू महासभा के नेता थे.
उसके बाद 1924 में लाला लाजपत राय ने ट्रिब्यून अख़बार में एक लेख लिखा था जहां उन्होंने इस बात को दोहराया था. वो भी हिंदू महासभा के नेता थे. वो बहुत बड़े संग्रामी थे और आज़ादी की लड़ाई में उन्होंने अपने प्राणों की बलि दे दी. लेकिन ये उनके विचार थे.
इसके बाद जब इक़बाल मुस्लिम लीग के अध्यक्ष बने, तो 1930 में उन्होंने भी ये बात कही.
उसके बाद 1937 में जब अहमदाबाद में हिंदू महासभा का महाअधिवेशन हुआ, तो सावरकर ने इस बात को दोहराया.
फिर 1940 में मोहम्मद अली जिन्ना ने ये बात कही.
फिर 15 अगस्त 1943 को सावरकर ने दोबारा कहा कि जिन्ना के टू नेशन थ्योरी से मुझे कोई शिकायत नहीं है.
इसलिए इतिहास को संज्ञान में लेते हुए हम उम्मीद करते हैं कि जिस पद पर अमित शाह बैठे हैं उसकी गरिमा को ध्यान में रखते हुए इतिहास को तोड़ मरोड़ कर प्रस्तुत नहीं करना चाहिए.
उस वक्त सदन में इस बात को ज़ोर से रखा गया था कि ये इतिहास से विपरीत है, इसे सदन की कार्यवाही से निकाला जाना चाहिए.
बीजेपी ने बार-बार कहा है कि 1955 के नागरिकता क़ानून में बदलाव करने के लिए नागिरकता (संशोधन) विधेयक को लाया जा रहा है. पार्टी ने ये भी कहा है कि ये मुसलमान समेत किसी के ख़िलाफ़ नहीं है.
कांग्रेस का मानना है कि शर्णार्थियों के लिए एक व्यापक क़ानून बनना चाहिए जो धर्म, फिरका, जाति, मज़बह से ऊपर हो. और साथ-साथ ही वो क़ानून अंतरराष्ट्रीय संधियों का भी संज्ञान ले.
भारत ने संयुक्त राष्ट्र द्वारा बनाए नागरिक और राजनीतिक अधिकारों पर अंतरराष्ट्रीय करार (ICCPR) पर भी हस्ताक्षर किए हैं. उसके अनुच्छेद 5, 6 और 7 में मानव अधिकारों की रक्षा के लिए हर ज़रूरी क़दम उठाने की बात कही गई है.
इसमें कहा गया है कि सदस्य देश किसी ख़ास समुदाय को उनके मूलभूत अधिकारों से वंचित नहीं रखेंगे और सदस्य देश उन मानवाधिकारों का सम्मान करेंगे, जो इस करार द्वारा प्रदत्त हैं.
ये नागरिकता विधेयक पूरी तरह से ग़ैर-संवैधानिक है क्योंकि एक धर्मनिरपेक्ष देश में धर्म नागरिकता का आधार नहीं हो सकता.
हालांकि बीजेपी का कहना है कि वो केवल तीन देश (पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफ़ग़ानिस्तान) में जहां अल्पसंख्यकों पर धर्म के आधार पर अत्याचार हो रहा है, वहाँ के लोगों के लिए नागरिकता देने का फ़ैसला लिया जा रहा है.
बीजेपी के इस बयान में इस बात का ज़िक्र नहीं किया जा रहा है कि पूरे विश्व में 198 देश हैं, तो ऐसे में भारत का बनाया क़ानून क्या सिर्फ तीन मुल्कों के लिए बनाया जाना चाहिए.
श्रीलंका से आने वाले तमिल विस्थापित के लिए अलग क़ानून क्यों?
और अगर बीजेपी का दावा है कि पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफ़ग़ानिस्तान का राजधर्म इस्लाम है तो फिर मालदीव का क्या है?
ये एक विचित्र क़ानून है कि बांग्लादेश के लिए एक क़ानून, नेपाल और भूटान के लिए दूसरा क़ानून. अफ़ग़ानिस्तान के लिए एक क़ानून, श्रीलंका और मालदीव के लिए दूसरा क़ानून. ये किस किस्म का क़ानून है- इसका न तो कोई सिर है न पैर.
भारत एक पंथ निरपेक्ष देश है और यहां क़ानून चाहे वो भारतीय के लिए हों या फिर ग़ैर-भातीयों के लिए, वो धर्म के आधार पर नहीं बनाया जा सकता.
ये बिल संविधान की धारा 14, 15, 21, 25 26 का उल्लंघन है. साथ ही संविधान के मूल ढांचे का ये उल्लंघन है जिसका ज़िक्र केशवानंद भारती मामले में हुआ था.
1973 में आए केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य मामले में शीर्ष न्यायालय की 13 न्यायाधीशों की पीठ ने कहा था कि संविधान संशोधन के अधिकार पर एकमात्र प्रतिबंध यह है कि इसके ज़रिए संविधान के मूल ढांचे को हानि नहीं होनी चाहिए.
ये फ़ैसला जल्दबाज़ी में लाए जाने वाले संशोधनों पर अंकुश लगाने का काम करता है.
शीर्ष अदालत की कई खंडपीठ ने इसको फिर आगे बढ़ाया और व्यापाक रूप दिया. ये क़ानून उन सबके विरूद्ध है.
और तो और तो ये भारत की परंपरा और मूलभूत सिद्धांत के ख़िलाफ़ है.
ये माना जा सकता है कि इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जाएगी. भले कांग्रेस ऐसा न करे लेकिन मुल्क में बहुत सारे ऐसे संगठन हैं जो इससे पूरी तरह से ख़फ़ा हैं.
तो ये कहा जा सकता है कि ये क़ानून तो शीर्ष अदालत जाने वाला है क्योंकि ये ग़ैर संवैधानिक क़ानून है.
मैं मानता हूं कि कुछ लोगों को सरकार से डर लगता है और इस कारण वो एक ग़ैर संवैधानिक क़ानून पर सरकार के साथ खड़े हैं.
हमें उम्मीद है कि जो इस क़ानून का रीज़नेबल क्लासिफ़िकेशन का आधार अदालत में टिक नहीं पाएगा.
रीज़नेबल क्लासिफ़िकेशन का आधार ये है कि जो समान हैं, उनके बीच असमानता नहीं देखा जाना चाहिए.
अगर कोई शरणार्थी प्रताड़ित है और आपसे पनाह मांगता है तो आप उससे ये नहीं पूछ सकते हैं कि उसका धर्म क्या है और उसकी जाति क्या है.
एक शरणार्थी, सिर्फ शरणार्थी है चाहे वो किसी भी धर्म का क्यों न हो.
(ये लेखक की निजी राय है. मनीष तिवारी कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और प्रवक्ता हैं)
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