ये सब खतम करो. मैं करने पर आया न, जडवाल को पूरा खोल के चौराहे पर लटका दूंगा. क्या समझा? नजीबुल्लाह को टांगा था न काबुल में, तू बस पैदा हुआ था तब. छोड़ दे इनको.
– डुकी बना (गुलाल, 2009)
नजीबुल्लाह. अफगानिस्तान का वो राष्ट्रपति जिसका हश्र का सुन कर जडवाल के गुर्गे रणसा और दिलीप को छोड़ देते हैं. 28 सितंबर, 1996 को नजीबुल्लाह को कभी उन्हीं की राजधानी रहे काबुल की आरियाना चौक में एक खंबे से टांग दिया गया था. लेकिन ये फांसी नहीं थी. जान उनकी जाने कब चली गई थी. टांगे जाने से पहले उन्हें एक ट्रक के पीछे बांध कर पूरे काबुल की सड़कों पर घसीटा गया था. उस से पहले सिर में एक गोली भी मारी गई थी. उन्हीं के बगल में उनके भाई शाहपुर अहमदज़ाई की लाश भी लटक रही थी.
काबुल फतह कर अफगानिस्तान के शासक होने का दावा करने वाले तालिबान की तरफ से ये जीत का ऐलान था. और इसका भी, कि एक वक्त का अंत हो चुका है. नजीबुल्लाह वो आखिरी राष्ट्रपति थे, जो अफगानिस्तान में सोवियत दखल की देन थे.
नजीबुल्लाह को संयुक्त राष्ट्र के कंपाउंड से निकाल कर तालिबान ने मार डाला था. तालिबान को खड़ा किया था पाकिस्तान और उसके बड़े पापा अमेरिका ने. ताकि अफगानिस्तान से सोवियत भगाए जा सकें. इतना सबको पता है. आज हम जानने की कोशिश करेंगे कि आखिर ऐसा क्या हुआ कि इतना ताकतवर आदमी ऐसी मौत मरा.
नजीबुल्लाह का इंडिया कनेक्शन
अंग्रेज़ी का एक शब्द है टर्ब्युलेंस. माने हद दर्जे की हलचल, अशांति. अफगानिस्तान लगभग आधी सदी से टर्ब्युलेंस में ही जी रहा है. नजीबुल्लाह ने इसे शुरू होते इसे अपने चरम पर पहुंचते देखा. 1947 में पैदा हुए तो अफगानिस्तान एक कॉन्स्टिट्यूशनल मोनार्की था. माने ब्रिटेन जैसी व्यवस्था. ज़ाहिर शाह राजा थे लेकिन संसद भी होती थी, जो सिविलियन सरकार चलाती थी. पढ़ाई कुछ काबुल में हुई, कुछ बारामुला (हां, अपना कश्मीर वाला बारामुला) में. बाद में काबुल यूनिवर्सिटी से मेडिसिन की पढ़ाई कर के डॉक्टर हो गए.
18 की उम्र में वो पीपल्स डेमोक्रैटिक पार्टी ऑफ अफगानिस्तान (PDPA)से जुड़े. ये एक कम्युनिस्ट विचारधारा वाली पार्टी थी. बुलंद कद-काठी और गर्म मिज़ाज के थे तो लोगों ने उन्हें नजीब-ए-गौ कहना शुरू दिया. ‘गौ’ का मतलब सांड होता है. PDPA अफगान संसद में बैठती थी, और नजीब PDPA कामों में हाथ बंटाते रहते थे. करीबी रही बाबरक करमल से, जो आगे चल कर अफगानिस्तान के राष्ट्रपति बने.
उथल-पुथल ने जना था नजीबुल्लाह के राज को
अफगानिस्तान के राजा मुहम्मद ज़ाहिर शाह ने अपने चचेरे भाई मुहम्मद दाउद खान को प्रधानमंत्री बनाया था. 1973 में दाउद ने ज़ाहिर का पत्ता कट कर के अफगानिस्तान को एक गणतंत्र घोषित कर दिया. लेकिन पांच साल के अंदर दाउद का पत्ता कट गया. 1978 में सॉर क्रांति हुई. इसमें PDPA ने दाउद को हटा कर मौत के घाट उतार दिया और अफगानिस्तान में कम्युनिस्टों का राज आ गया. ‘रिपब्लिक ऑफ अफगानिस्तान’ अब ‘डेमोक्रैटिक रिपब्लिक ऑफ अफगानिस्तान’ कहलाने लगा.
राज कहने का ये मतलब नहीं कि कम्युनिस्ट पूरे अफगानिस्तान पर पकड़ बनाए हुए थे. अफगानिस्तान में ऐतिहासिक तौर पर ताकत कबीलों और इलाकों में बंटी रही है. कुछ कबीले और इलाके सरकार के साथ रहते तो कुछ नहीं. ऐसा ही सॉर क्रांति के बाद आई PDPA सरकार के ज़माने में भी था. PDPA सरकार में राष्ट्रपति बने बाबरक करमल. कभी उनके बॉडीगार्ड रहे नजीबुल्ला मिनिस्टर ऑफ स्टेट सिक्योरिटी बने और साथ में ख़दमत-ए-ऐतलाअत-ए-दलवती (KHAD) के चीफ भी. KHAD वैसे ही है जैसे हिंदुस्तान की आईबी.
कम्युनिस्ट सरकार ने अफगानिस्तान में बड़े पैमाने पर सोशल इंजीनियरिंग की, औरतों को हक दिए, धर्मनिरपेक्षता की बात की. इसके अलावा रूस की तरह ही एक पार्टी का राज कायम किया. नाम में डेमोक्रेटिक लगा था, पर था इसमें भी पोलित ब्यूरो ही जो सारे बड़े फैसले लेता था. नजीबुल्लाह पोलित ब्यूरो मेंबर बने. लेकिन कम्युनिस्टों ने सब अच्छा-अच्छा ही नहीं किया. उनके रहते बड़े पैमाने पर लोगों पर बर्बरता हुई, सेंसरशिप रही.
कम्युनिस्ट सरकार के तौर-तरीकों से अफगानिस्तान के देहाती लोगों में काफी असंतोष पनप गया, जो अपने रहने के तौर तरीकों को एकदम से बदलने के पक्ष में नहीं थे. तो सरकार के खिलाफ लड़ रहे मुजाहिदीनों को लोगों का साथ मिलने लगा. एक कम्युनिस्ट सरकार को घिरते देख सोवियत संघ ने अपनी फौज अफगानिस्तान भेज दी. सोवियत को अफगानिस्तान में फौज भेजते देख अमरीका की सीआईए ने पाकिस्तान से मिल कर अफगान मुजाहिदीनों को समर्थन देना शुरू कर दिया. इससे अफगानिस्तान में गृहयुद्ध छिड़ गया.
सोवियत फौज थी, तो PDPA ने मुजाहिदीनों को काफी पीछे धकेल दिया. लेकिन लड़ाई खिंचने लगी तो उन्हें समझ आया कि बेहतर होगा एक हाथ में बंदूक रखते हुए दूसरा हाथ दोस्ती के लिए बढ़ाया जाए. तो नजीबुल्लाह ने 1986 के सितंबर में नेशनल कॉम्प्रोमाइज़ कमीशन बनवाया ताकि मुजाहिदीनों को सरकार के करीब लाया जा सके.
1987 में सोवियत संघ ने नजीबुल्ला को अफगानिस्तान का राष्ट्रपति बनवाया. नजीबुल्ला सोवियत कंधो पर चढ़कर राष्ट्रपति की कुर्सी तक पहुंचे थे. लेकिन अरसे से चली आ रही लड़ाई के बाद वो समझ गए थे कि कम्युनिज़म से अफगानिस्तान में बात बनेगी नहीं. तो उन्होंने PDPA और इस्लामिक परंपराओं के बीच की खाई पाटने की कोशिश शुरू की. उन्होंने अफगानिस्तान का संविधान दोबारा लिखवाया, PDPA का एकाधिकार खत्म करवाया और अफगानिस्तान का नाम बदल कर फिर से रिपब्लिक ऑफ अफगानिस्तान करवा दिया. उन्होंने PDPA की छवि बदल कर मार्कसिस्ट से एक इस्लामिक पार्टी करवाया और अपने नाम नजीब के आगे ‘उल्लाह’ लगवाया (वो नजीबुल्लाह ऐसे ही बने थे).
लेकिन वो मुस्लिम कट्टरपंथ और मुजाहिदीनों से जीत नहीं ही पाए. तंग आकर 9 साल बाद जब सोवियत लौटे तो नजीबुल्लाह अकेले पड़ गए. दिसंबर 1991 में सोवियत संघ टूटा तो नजीबुल्लाह को मिलने वाली सारी मदद बंद हो गई. मुजाहिदीनों के हाथों रोज़ ज़मीन खोते नजीबुल्लाह को आखिर इस्तीफा देने पर मजबूर होना पड़ा. उनकी जगह ली यूएन की बनाई अंतरिम सरकार ने. लेकिन नजीबुल्लाह काबुल से निकल नहीं पाए. एयरपोर्ट पर ही रोक लिए गए. जान बचाने के लिए नजीबुल्लाह यूएन के एक कंपाउंड में छिपे.
इन्हीं दिनों अफगानिस्तान में तालिबान खड़ा हुआ. धीरे-धीरे उसका असर इतना बढ़ा कि दूसरे लड़ाके तक उस से खौफ खाने लगे. तालिबार शहर दर शहर कर के अफगानिस्तान कब्ज़ाते गए. तालिबान के पास अमरीका का डॉलर और पाकिस्तान की आईएसआई की ट्रेनिंग थी. अफगानिस्तान की सरकार के पास अपने फाइटर प्लेन्स में डालने के लिए तेल तक नहीं था. तालिबान कई जगह बिना लड़े जीत गया.
नजीबु्ल्लाह 1992-96 के बीच साढ़े चार साल काबुल के यूएन कंपाउंड में ही रहे. इस इंतज़ार में कि उनके बचने की कोई तरकीब निकल आए. उनके भारत से संबंध अच्छे थे. भारत भी काबुल में तालिबान को नहीं देखना चाहता था. वो यहीं आना चाहते थे. लेकिन वो तालिबान के काबुल पहुंचने तक यूएन के कंपाउंड से नहीं निकल पाए. सितंबर 1996 में तालिबान काबुल में घुस गया. अंतरिम सरकार कुछ दिन लड़ी, फिर पीछे हट गई. काबुल से जाते हुए अहमद शाह मसूद (तब के एक लड़ाके जिन्होंने बाद में नॉर्दन अलायंस बनाया) ने नजीबुल्लाह को साथ चलने को कहा. लेकिन नजीबुल्लाह ने कहा,
‘मैं एक ताजीक के साथ अपनी राजधानी से भाग गया तो पख्तूनों की नज़र में गिर जाउंगा’
नजीब नहीं गए. तालिबान यूएन कंपाउंड के करीब पहुंच गया. द न्यूयॉर्क टाइम्स की रिपोर्ट के मुताबिक 28 सितंबर, 1996 की सुबह तीन बजे के करीब नजीबुल्लाह ने शॉर्टवेव रेडियो पर यूएन की एक दूसरी पोस्ट से संपर्क कर के कहा कि उनके गार्ड नज़र नहीं आ रहे. उन्होंने अपने लिए सुरक्षा मांगी. लेकिन उनकी मदद के लिए कोई नहीं पहुंचा. तालिबान के डर से दो दिन पहले ही ज़्यादातर लोग शहर छोड़ कर चले गए थे.
लोग सुबह सड़कों पर निकले तो आरियाना चौक पर एक ट्रैफिक कंट्रोल टावर से नजीबुल्ला की लाश टंगी हुई देखी. एक पूर्व-राष्ट्रपति का ये हश्र देख कर लोगों को लगा कि तालिबान के आने से पिछले चार सालों से चल रही लड़ाई आखिर खत्म होगी और काबुल पर जब-तब गिरने वाले रॉकेट अब नहीं दागे जाएंगे. शायद इसीलिए लोगों ने नजीबुल्लाह की लाश देखकर नारा लगा दिया,
‘नजीब हत्यारा था. कम्युनिस्टों का यही हाल होना चाहिए’
तब लोग नहीं जानते थे कि तालिबान उनकी ज़िंदगी को कहां से कहां ला पटकेगा. नजीबुल्लाह को कभी एक कम्युनिस्ट हत्यारा कहने वाले लोग आज उनकी तस्वीर अपने घरों और दुकानों में लगाते हैं.
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