छत्तीसगढ़ः सारकेगुड़ा में गोलबंद हो रहे हैं आदिवासी



सारकेगुड़ा की महिलाएं

छत्तीसगढ़ के बीजापुर ज़िले के सारकेगुड़ा गाँव में महुआ के पेड़ के आस-पास गाँव वाले सफाई में लगे हुए हैं.
यहाँ एक बार फिर गाँव वाले उसी तरह जुटने के बारे में सोच रहे हैं जैसा 28 जून 2012 की रात को वो जमा हुए थे, जब सुरक्षा बलों ने उन्हें माओवादी समझकर चारों तरफ से घेरा और अंधाधुंध गोलियां चलाई थीं.
पास ही तेंदू का पेड़ भी है. सिर्फ़ ये दोनों पेड़ ही नहीं, बल्कि आसपास वो तमाम पेड़ हैं जिनपर गोलियाँ लगीं थीं और मरने वालों के खून के छींटे उनपर पड़े थे.
लोग इस एनकाउंटर के बारे में बातें कर रहे हैं और सारकेगुड़ा के प्रधान चिन्हु से सलाह भी ले रहे हैं. अपने आँगन में लेटे हुए चिन्हु बीमार हैं इसलिए वो गांववालों की बातचीत में बढ़-चढ़कर हिस्सा नहीं ले पा रहे.
ज़मीन पर बिछी हुई चटाई पर बैठे हुए चिन्हु ने बीबीसी से कहा कि जो गोलियों के निशान पेड़ों पर थे वो अब ख़त्म हो गए हैं. मगर जो आत्मा पर लगे, वो अभी तक हरे हैं.


सारकेगुडा के प्रधान चिन्हु
Image captionसारकेगुडा के प्रधान चिन्हु

एकजुट होने की कोशिश

सारकेगुड़ा, छत्तीसगढ़ के बीजापुर ज़िले के बासागुडा थाना क्षेत्र में आता है. साल 2012 में जिस रात ये घटना घटी थी, उस वक़्त सारकेगुड़ा में कोर्सागुड़ा और राजपेंटा के आदिवासी भी मौजूद थे.
इस मामले की जांच के लिए सेवानिवृत जज के नेतृत्व में गठित आयोग ने सुरक्षाबलों के 190 जवानों को 'फ़र्ज़ी मुठभेड़' का दोषी पाया है.
अब छत्तीसगढ़ के इस सुदूर अंचल के लोग उसी जगह पर बड़े पैमाने पर जमा होने की योजना बना रहे हैं जहाँ घटना घटी थी.
सभी लोग आपस में रायशुमारी कर रहे हैं कि गोली चलाने वालों के ख़िलाफ़ आपराधिक मामला बासागुड़ा थाने में दर्ज किया जाए या नहीं.
इस संघर्ष का नेतृत्व सारकेगुड़ा की ही कमला काका कर रही हैं जो घटना की चश्मदीद भी हैं. कमला काका का भतीजा राहुल भी उन लोगों में से था जिसकी गोली लगने से मौत हो गई थी.
इसके अलावा मारे जाने वालों में उनके चचेरे भाई समैया भी थे. अब कमला काका के बुलावे पर सामजिक कार्यकर्ता हिमांशु और सोनी सोरी भी सारकेगुड़ा पहुँच गए हैं.


कमला काका
Image captionकमला काका

सरकारों का खेल

आशंका व्यक्त की जा रही है कि सिर्फ़ सारकेगुड़ा ही नहीं बल्कि आसपास के कई और गाँव के रहने वाले आदिवासी राज्य सरकार पर दबाव डालने के लिए गोलबंद होने लगे हैं.
यहीं रहने वाले सत्यम मडकाम ने भी अपने दो भाइयों को खोया है जिनकी समाधि पास ही में बनाई गई है.
उन्हें न्यायमूर्ति अग्रवाल की रिपोर्ट के बारे में पता चला तो वो और भी ज़्यादा दुखी हो गए क्योंकि मौजूदा राज्य सरकार कांग्रेस की है जिसने घटना के ख़िलाफ़ आंदोलन किया था और इस मुद्दे को विधानसभा के अंदर और बाहर भी उठाया था. कांग्रेस ने जांच समिति भी गठित की थी.


सत्यम मडकाम अपने दोनों भाइयों की समाधि के पास
Image captionसत्यम मडकाम अपने दोनों भाइयों की समाधि के पास

मगर गाँव के दिनेश इरपा की पत्नी जानकी को इसलिए दुःख है कि अब जब कांग्रेस राज्य सरकार में है वो इस मामले में कुछ नहीं कर रही है.
वैसे जब घटना घटी थी तो केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी और उस वक़्त के गृह मंत्री पी चिदंबरम ने भी मरने वाले आदिवासियों को 'माओवादी' कहा था.


इरपा जानकी
Image captionइरपा जानकी

गाँव के गनपत इरपा कहते हैं कि घटना के बाद मरने वालों के आश्रितों को दो लाख रुपये मुआवज़ा मिला था. लेकिन जानकी कहती हैं कि क्या इंसान की जान की क़ीमत सिर्फ दो लाख रुपये हैं.
वैसे सरकारी सूत्रों की अगर मानी जाए तो ये रिपोर्ट राज्य सरकार के पास 17 अक्टूबर को पहुँच गई थी. लेकिन इसे ज़ाहिर नहीं किया गया. मामला तब सामने आया जब इस रिपोर्ट के अंश अखबारों में छपने लगे.
कांग्रेस द्वारा गठित जांच कमिटी में उस वक़्त शामिल विक्रम शाह मंडावी अब बीजापुर के विधायक बन चुके हैं. बीबीसी से बात करते हुए वो कहते हैं कि उनकी पार्टी के एक प्रतिनिधिमंडल ने राज्यपाल से मुलाक़ात की और घटना के दोषियों पर कार्रवाई की मांग की.


आदिवासी महिलाओं के साथ बीबीसी संवाददाता सलमान रावी
Image captionआदिवासी महिलाओं के साथ बीबीसी संवाददाता सलमान रावी

सामाजिक कार्यकर्ता इसे हास्यास्पद मानते हैं क्योंकि क़ानून व्यवस्था राज्य सरकार के अधीन है. राज्य में उस वक़्त भारतीय जनता पार्टी की सरकार थी. मगर जब रिपोर्ट आई है तो कांग्रेस की सरकार है.
सामाजिक कार्यकर्ता सोनी सोरी का कहना था कि कांग्रेस के प्रतिनिधिमंडल को राज्यपाल के पास जाने की बजाय मुख्यमंत्री के पास जाना चाहिए था क्योंकि इसपर फ़ैसला तो केंद्र सरकार को नहीं बल्कि राज्य सरकार को लेना है.


सामाजिक कार्यकर्ता सोनी सोरी
Image captionसामाजिक कार्यकर्ता सोनी सोरी

विक्रम मंडावी का कहना है कि उनकी पार्टी यानी कांग्रेस के सभी आदिवासी विधायक जल्द ही मुख्यमंत्री से मिलेंगे और दोषियों पर कार्रवाई के लिए अनुरोध करेंगे.
हालांकि इन सबके बीच सारकेगुड़ा में सामाजिक कार्यकर्ताओं की हलचल बढ़ गई है. वो अब गाँव वालों से विमर्श कर रहे हैं ताकि घटना के अभियुक्त सुरक्षा बलों के जवानों के ख़िलाफ़ औपचारिक रूप से प्राथमिकी दर्ज कराई जा सके.


कुछ आदिवासी बच्चे

'रोजगार के लिए लौटे लेकिन मिली गोलियां...'

सारकेगुड़ा वो गाँव है जहाँ से आदिवासी पलायन कर आंध्र प्रदेश चले गए थे. वो ख़ुद को माओवादियों और सुरक्षा बलों के बीच पिसा हुआ पा रहे थे.
मगर सामाजिक कार्यकर्ताओं की अपील के बाद लिंगागिरी और सारकेगुड़ा के आदिवासी वापस लौटे थे. इनको आश्वासन दिया गया था कि अब ये यहाँ सुरक्षित रहेंगे.
गाँव के गनपत इरपा कहते हैं कि उनका परिवार और गाँव के दूसरे आदिवासी बड़ी उम्मीद लेकर वापस लौटे थे.
वो कहते हैं, "यहाँ आदिवासी इसलिए लौटे क्योंकि हमें भरोसा दिया गया कि हम सुरक्षित रहेंगे. रोज़गार भी मिलेगा. मगर मिला क्या? गोलियां.."


ग्रामीण

वैसे रिपोर्ट के आने के बाद से न तो विपक्ष यानी भारतीय जनता पार्टी का कोई नेता यहाँ आया और ना ही सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी का ही नेता.
कांग्रेस के स्थानीय विधायक विक्रम मंडावी बीबीसी से कहते हैं कि वो एक दो दिनों में वहां जाएंगे और लोगों से बात करेंगे.
इससे पहले विधायक रह चुके भारतीय जनता पार्टी के नेता महेश गागडा ने भी कभी गाँव के लोगों से मुलाक़ात नहीं की.


आदिवासी

वक़्त के साथ सारकेगुड़ा भी बदल गया है. पहले लोग बासागुडा थाने के पास वाले पुल से जाया नहीं करते थे, लेकिन अब जाने लगे हैं. सड़क भी पक्की बन रही है. मगर जगरगुंडा तक जो सड़क इसे जोड़ेगी वो अभी भी कच्ची है.
सामजिक कार्यकर्ता हिमांशु कहते हैं कि सड़क आदिवासियों के लिए नहीं बनाई जा रही है बल्कि इस इलाके में पाए जाने वाले लौह अयस्क के दोहन के लिए बनाई जा रही है.
वो कहते हैं, "आदिवासियों का जंगल ही बचा रह जाए और उनकी भी जान भी बची रह जाएगी, यही यहाँ के लोगों पर बड़ा अहसान होगा."
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