क्या पाकिस्तान और अफ़गानिस्तान में चुनाव नहीं लड़ सकते अल्पसंख्यक? फ़ैक्ट चेक
नागरिकता संशोधन अधिनियम को देश भर में विरोध प्रदर्शनों का सामना करना पड़ रहा है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह बार-बार इस अधिनियम के पक्ष में तर्क पेश कर रहे हैं.
शनिवार को गृह मंत्री अमित शाह ने कर्नाटक के हुबली में रैली के दौरान कहा, ''अफ़ग़ानिस्तान में बुद्ध के पुतले को तोप से गोले दाग़ कर फूँक दिया गया. उन्हें (हिंदू-सिख अल्पसंख्यक) वहां (अफ़ग़ानिस्तान-पाकिस्तान) चुनाव लड़ने का अधिकार नहीं दिया, स्वास्थ्य की सुविधाएं नहीं दी गई, शिक्षा की व्यवस्था उनके लिए नहीं की. जो सारे शरणार्थी थे हिंदू, सिख, जैन बौद्ध ईसाई वो भारत के अंदर शरण लेने आए.''
दरअसल अमित शाह नागरिकता संशोधन अधिनियम की वकालत में ये बता रहे थे कि कैसे अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश से आने वाले सिख, हिंदू शरणार्थी को उनके देश में सताया जा रहा है और उन्हें मौलिक अधिकार नहीं दिए जा रहे.
ये नया कानून पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान, अफ़गानिस्तान और बांग्लादेश से भारत आए गैर-मुस्लिम समुदाय को नागरिकता देने की बात करता है. अधिनियम के इस प्रावधान का ही लोग विरोध कर रहे हैं.
लेकिन क्या वाक़ई अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों के पास चुनाव लड़ने या वोट देने का अधिकार नहीं है?
बीबीसी ने पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान और बांग्लादेश के अल्पसंख्यकों के चुनावी अधिकारों को समझने की कोशिश की. साथ ही ये पड़ताल की कि वर्तमान समय में उनको चुनावी प्रक्रिया के क्या-क्या अधिकार दिए गए हैं.
पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों के चुनावी अधिकार
पाकिस्तान के संविधान के अनुच्छेद 51 (2A) के मुताबिक़ पाकिस्तान की संसद के निचले सदन नेशनल असेंबली में 10 सीटें अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षित हैं. साथ ही चार प्रांतों की विधानसभा में 23 सीटों पर आरक्षण दिया गया है.
पाकिस्तान में कुल 342 सीटें हैं और जिनमें से 272 सीटों पर सीधे जनता चुनकर अपने प्रतिनिधि भेजती है. 10 सीटें अल्पसंख्यकों के लिए और 60 सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित हैं.
अल्पसंख्यकों के लिए संसद में पहुंचने के दो तरीके हैं:
- इन आरक्षित 10 सीटों का विभाजन राजनीतिक पार्टियों को उन्हें 272 में से कितनी सीटों पर जीत मिली है इसके आधार पर होता है. इन सीटों पर पार्टी खुद अल्पसंख्यक उम्मीदवार तय करती है और संसद में भेजती है.
- दूसरा विकल्प ये है कि कोई भी अल्पसंख्यक किसी भी सीट पर चुनाव लड़ सकता है. ऐसे में उसकी जीत जनता से सीधे मिले वोटों पर आधारित होगी.
कोई भी अल्पसंख्यक अपने चुनावी क्षेत्र से चुनाव लड़ रहे किसी भी उम्मीदवार को वोट करने के लिए स्वतंत्र है. यानी वोटिंग का अधिकार सभी के लिए समान है.
आज़ादी के बाद पाकिस्तान का संविधान 1956 में बना फिर इसे रद्द करके 1958 में दूसरा संविधान आया और इसे भी रद्द कर दिया गया और 1973 में तीसरा संविधान बना जो अब तक मान्य है. ये संविधान पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों को समान अधिकार देने की बात करता है.
यानी पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों के लिए सीटें तो आरक्षित हैं ही, साथ ही वो अन्य सीटों से चुनाव भी लड़ सकते हैं.
2018 के चुनाव में महेश मलानी, हरीराम किश्वरीलाल और ज्ञान चंद असरानी सिंध प्रांत से संसदीय और विधानसभा की अनारक्षित सीटों से चुनाव लड़े और संसद पहुंचे.
अफ़गानिस्तान में क्या हैं हिंदू-सिख के चुनावी अधिकार
अब बात अफ़गानिस्तान की. 1988 से अफ़गानिस्तान गृह युद्ध और तालिबान की हिंसा का शिकार है. चरमपंथी संगठन अल-क़ायदा का ठिकाना भी अफ़गानिस्तान रहा. साल 2002 में यहां अंतरिम सरकार बनाई गई और हामिद करज़ई राष्ट्रपति बने. इसके बाद साल 2005 के चुनाव में देश की निचली सदन और ऊपरी सदन में प्रतिनिधि चुन कर पहुंचे और अफ़गानिस्तान की संसद मज़बूत बनी.
अफ़गानिस्तान की आबादी कितनी है इसका सही आधिकारिक आंकड़ा मौजूद नहीं है क्योंकि 70 के दशक के बाद यहां जनगणना नहीं हो सकी. लेकिन वर्ल्ड बैंक के मुताबिक यहां की आबादी 3.7 करोड़ है.
वहीं अमरीका के डिपार्टमेंट ऑफ़ जस्टिस की रिपोर्ट की मानें तो जिसमें हिंदू-सिख अल्पसंख्यकों की संख्या यहां महज़ 1000 से 1500 के बीच हैं.
अफ़ग़ानिस्तान की निचली सदन यानी जहां प्रतिनिधियों का सीधा चुनाव जनता करती है वहां 249 सीट हैं. यहां अल्पसंख्यकों को चुनाव लड़ने की आज़ादी है. लेकिन नियमों के मुताबिक अफ़ग़ानिस्तान में संसदीय चुनाव में नामकरण भरते वक़्त कम से कम 5000 लोगों को अपने समर्थन में दिखाना पड़ता था.
ये नियम सभी के लिए एक समान थे लेकिन इससे अल्पसंख्यक समुदाय के लिए अपना प्रतिनिधि संसद में भेजना मुश्किल था. 2014 में अशरफ़ ग़नी सत्ता में आए और उन्होंने हिंदू-सिख अल्पसंख्यकों के समीकरण को देखते हुए निचले सदन में एक सीट रिज़र्व की है.
इस वक़्त इस सीट पर नरिंदर पाल सिंह सांसद हैं. इसके अलावा अफ़गानिस्तान की ऊपरी सदन में एक सीट धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए रिज़र्व है. इस वक़्त अनारकली कौर होनयार इस सदन में सांसद हैं. अल्पसंख्यक समुदाय की ओर से ये नाम तय किए जाते हैं जिसे राष्ट्रपति की ओर से सीधे संसद में भेजा जाता है.
इसके अलावा कोई भी अल्पसंख्यक अपने चुनावी क्षेत्र के उम्मीदवार को वोट कर सकता है. साथ ही अल्पसंख्यक किसी भी सीट से चुनाव भी लड़ सकते हैं बशर्ते वो अपने लिए पांच हज़ार लोगों का समर्थन जुटा लें.
बीबीसी ने अफ़ग़ानिस्तान के सांसद नरिंदर सिंह खालसा से बात की और जानना चाहा कि अफ़गानिस्तान के अल्पसंख्यक सिख-हिंदुओं के पास कैसे चुनावी अधिकार हैं.
उन्होंने कहा, ''अल्पसंख्यंकों को चुनाव लड़ने की आज़ादी है और वोट देने की भी आज़ादी है. रोक तो कभी नहीं थी लेकिन पिछले तीस सालों में तालिबान की हिंसा के कारण तेजी से पलायन हुआ और हमारी संख्या घटती गई. चार साल पहले हमें रिज़र्व सीट मिली क्योंकि हम पांच हज़ार का समर्थन जुटा नहीं सकते थे. और बात सुनी गई. सरकार से नहीं हमें तालिबान से परेशानी है. आज भी कोई भी हिंदू-सिख चाहे तो मुझे वोट दे या किसी अपने पसंदीदा उम्मीदवार को कोई रोक नहीं है मतदाताओं पर. अगर समर्थन हासिल कर लिया जाए तो हम एक से ज़्यादा सीटों पर चुनाव भी लड़ सकते हैं.''
हमने लंदन में स्थित बीबीसी पश्तो के पत्रकार एमाल पशर्ली बताते हैं कि ''साल 2005 से देश में स्थिर सरकार बन रही है. लेकिन कभी अल्पसंख्यकों को वोटिंग या चुनाव लड़ने के अधिकार से वंचित नहीं किया गया. पिछले तीन दशकों में हिंदू-सिख ही नहीं अन्य धार्मिक मान्यताओं को मानने वाले लोगों ने भी पलायन किया है. गृह युद्ध इसकी वजह रही है.''
बांग्लादेश में कोई भी अल्पसंख्यक लड़ सकता है चुनाव
बांग्लादेश में संसदीय चुनाव में किसी भी अल्पसंख्यक समुदाय के लिए सीटें आरक्षित नहीं की गई हैं बल्कि महिलाओं के लिए 50 सीटें ही आरक्षित की गई हैं.
बांग्लादेश संसद में 350 सीटें हैं जिसमें से 50 सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित हैं. 2018 में हुए संसदीय चुनाव में 79 अल्पसंख्यक उम्मीदवारों में से 18 उम्मीदवार जीतकर संसद पहुंचे थे.
इससे पहले बांग्लादेश की 10वीं संसद में इतने ही अल्पसंख्यक सांसद थे. स्थानीय अख़बार ढाका ट्रिब्यून के मुताबिक बांग्लादेश की नौंवी संसद में 14 सांसद अल्पसंख्यक समुदाय से थे, जबकि आठवीं संसद में आठ सांसद अल्पसंख्यक थे.
यानी बांग्लादेश की राजनीति में अल्पसंख्यकों को समान चुनावी अधिकार दिए गए हैं.
भारतीय संसद में आरक्षण कैसे पाकिस्तान से अलग है
भारत के संविधान के अनुच्छेद 334 (क) में लोकसभा और राज्यों की विधान सभाओं में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षण संबंधी प्रावधान है. वर्तमान में लोकसभा और राज्यों की विधानसभा में केवल यही आरक्षण है जिसमें अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के लिए सीटें आरक्षित रहती हैं.
लोकसभा की 543 में से 79 सीटें अनुसूचित जाति और 41 सीटें अनुसूचित जनजाति के लिए रिज़र्व हो जाती हैं. वहीं, विधानसभाओं की 3,961 सीटों में से 543 सीटें अनुसूचित जाति और 527 सीटें जनजाति के लिए सुरक्षित हो जाती हैं. इन सीटों पर वोट तो सभी डालते हैं, लेकिन कैंडिडेट सिर्फ एससी या एसटी का होता है.
यानी भारत में आरक्षित सीट का मतलब है कि इस सीट पर उम्मीदवार तय वर्ग से ही होगा. सभी राजनीतिक पार्टियां ऐसे उम्मीदवार को ही टिकट देंगी लेकिन उनका चुनाव जनता के वोट के आधार पर ही होगा.
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