#Faiz_Ahmad_Faiz की वह नज़्म जिसे हिन्दू विरोधी बता कर सियासत की रोटी सेंकने की कोशिशें हो रही उसकी हक़ीक़त क्या है देखिये और समझिए ।
पाकिस्तानी शायर फैज अहमद फैज ने 1979 में जनरल जियाउल हक के मार्शल लॉ के दौर में अपनी नज़्म 'हम देखेंगे' लिखी थी.
फैज़ 1984 में चल बसे थे. इसके दो साल बाद इकबाल बानो ने सैनिक शासन के खिलाफ एक सभा में ये गीत गाया और अचानक इसके बाद ये इंकबाल का नगमा हो गया. एशिया के अलग-अलग हिस्सों में जब भी हुक़ूमत के खिलाफ कोई आंदोलन चलता है तब इस गीत को याद किया जाता है. इसे गाने वाले निकल जाते हैं. आईआईटी कानपुर में भी जब कुछ छात्रों ने जामिया मिल्लिया के समर्थन में आंदोलन किया तो उनको ये गीत याद आया. उन छात्रों को अपने छोटे से आंदोलन के लिए क्या कुछ झेलना पड़ा- ये कहानी अलग है, लेकिन जिन बातों की वजह से इस आंदोलन को गैरकानूनी बताया जा रहा है, उनमें फैज की ये नज़्म भी है. इसे हिंदू विरोधी नज़्म बताया जा रहा है. अब एक कमेटी तय करेगी कि ये हिंदू विरोधी है या नहीं?
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फैज़ 1984 में चल बसे थे. इसके दो साल बाद इकबाल बानो ने सैनिक शासन के खिलाफ एक सभा में ये गीत गाया और अचानक इसके बाद ये इंकबाल का नगमा हो गया. एशिया के अलग-अलग हिस्सों में जब भी हुक़ूमत के खिलाफ कोई आंदोलन चलता है तब इस गीत को याद किया जाता है. इसे गाने वाले निकल जाते हैं. आईआईटी कानपुर में भी जब कुछ छात्रों ने जामिया मिल्लिया के समर्थन में आंदोलन किया तो उनको ये गीत याद आया. उन छात्रों को अपने छोटे से आंदोलन के लिए क्या कुछ झेलना पड़ा- ये कहानी अलग है, लेकिन जिन बातों की वजह से इस आंदोलन को गैरकानूनी बताया जा रहा है, उनमें फैज की ये नज़्म भी है. इसे हिंदू विरोधी नज़्म बताया जा रहा है. अब एक कमेटी तय करेगी कि ये हिंदू विरोधी है या नहीं?
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