#दिल्लीपुलिस: 1984 के सिख विरोधी दंगों और 2020 के दंगों की तुलना कितनी सही?
"हम दिल्ली में दूसरा 1984 नहीं होने देंगे. कम से कम इस अदालत के रहते हुए तो ऐसा नहीं होगा.''
दिल्ली हाईकोर्ट के जस्टिस एस. मुरलीधर ने बुधवार को केंद्र और दिल्ली सरकार को लताड़ लगाते हुए यह बात कही.
जस्टिस मुरलीधर साल 1984 में हुए सिखविरोधी दंगों का ज़िक्र कर रहे थे, जिनमें अकेले दिल्ली में 3,000 से ज़्यादा लोग मारे गए थे.
इधर, शिवसेना ने भी दिल्ली की मौजूदा हिंसा की तुलना 1984 के दंगों से की. शिवसेना ने कहा, "दिल्ली की मौजूदा 'हॉरर फ़िल्म' देखकर 1984 दंगों की भयावहता याद आती है. इस हिंसा के पीछे कौन था, यह स्पष्ट होना ही चाहिए.''
सिखविरोधी दंगों के 36 वर्षों बाद ये पहली बार है, जब दिल्ली ने इतने बड़े स्तर पर हिंसा का सामना किया है. मगर क्या वाक़ई 1984 के दंगों और वर्तमान हिंसा में कोई समानता है?
तब की स्थिति और आज की स्थिति में कितना अंतर है?
संजय सूरी 1984 में अंग्रेज़ी अख़बार दि इंडियन एक्सप्रेस में बतौर क्राइम रिपोर्टर काम करते थे. उन्होंने 1984 के दंगों को विस्तार से कवर किया और उसकी भयावहता के चश्मदीद भी रहे.
बीबीसी से बातचीत में सूरी ने कहा, "हर दंगा अपने आप में अलग होता है. दो दंगों के बीच में कोई तुलना नहीं की जा सकती. लेकिन इतना ज़रूर है कि हर दंगे में क़ानून व्यवस्था पूरी तरह धराशायी हो जाती है.''
सूरी कहते हैं, "1984 में बहुत बड़े स्तर पर हिंसा हुई थी. तब 3,000 से भी ज़्यादा लोग मारे गए थे. अभी 32 लोगों की मौत की ख़बर है, लेकिन इससे दंगों की भयावहता कम नहीं हो जाती. एक भी व्यक्ति का मारा जाना या घायल होना, हमें डराने के लिए काफ़ी होना चाहिए."
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पुलिस की निष्क्रियता
1984: The Anti Sikh Riots and After किताब लिखने वाले सूरी याद करते हैं, "सिख विरोधी दंगों के समय क़ानून-व्यवस्था का जैसे नामोनिशान मिट गया था. पुलिस पूरी तरह निष्क्रिय हो गई थी. या यूं कहें कि पुलिस भी दंगाइयों के साथ मिलकर हिंसा में जुट गई थी.''
संजय सूरी सिख विरोध दंगों के चश्मदीद रहे हैं. वो याद करते हैं, ''मैंने ख़ुद अपनी आंखों से देखा कि पुलिस कैसे हिंसा में शामिल थी. अगर मैंने किसी और से सुना होता, तो शायद यक़ीन न करता. लेकिन जो ख़ुद होते हुए देखा, उसे कैसे झुठला दूं?''
सूरी ने चश्मदीद के तौर पर जांच आयोग के सामने हलफ़नामा भी दायर किया है.
दिल्ली में हो रही हिंसा में भी पुलिस की भूमिका पर सवाल खड़े हुए हैं. दिल्ली हाईकोर्ट ने पुलिस की सुस्त कार्रवाई पर नाराज़गी जताई है.
अदालत ने कपिल मिश्रा, परवेश वर्मा और अनुराग ठाकुर जैसे नेताओं के भड़काऊ बयानों पर एफ़आईआर न करने, सोशल मीडिया पर हिंसा से जुड़े वीडियो की जांच न करने और बचाव के लिए फ़ौरी कदम न उठाने पर दिल्ली पुलिस को जमकर लताड़ लगाई है.
1984 के दंगों को कवर करने वाले वरिष्ठ पत्रकार राहुल बेदी भी पुलिस की निष्क्रियता को एक बड़ी समानता बताते हैं.
वो कहते हैं, "पुलिस के दंगों में शामिल होने का मतलब हमेशा ये नहीं होता कि वो ख़ुद दंगाइयों के साथ मिलकर मारकाट करने लग जाए. पुलिस के दंगों में शामिल होने का मतलब होता है उसका अपराधियों को शह देना. उन पर कार्रवाई न करना और हिंसा की खुली छूट देना. पुलिस के दंगे में शामिल होने का मतलब है दंगाइयों को इम्युनिटी देना, उनकी रक्षा करना."
अब भी सोशल मीडिया पर ऐसे कई बयान आए हैं, जिनमें पुलिस मूकदर्शक सी बनी दिख रही है. कई पीड़ितों और चश्मदीदों ने पुलिस पर त्वरित कार्रवाई न करने का आरोप लगाया है.
सिख विरोधी दंगों को करीब से देखने और उसे कवर करने वाले वरिष्ठ पत्रकार प्रकाश पात्रा भी मानते हैं कि पुलिस की तब की और अब की भूमिकाओं में काफ़ी समानताएं हैं.
वो कहते हैं, ''मैंने देखा था कि 84 के दौरान कैसे पुलिस अपने सामने हो रही हिंसा को नज़रअंदाज़ करती थी. इस बार भी शुरुआत में पुलिस की कुछ ऐसी ही निष्क्रियता देखने को मिली."
जब पुलिस दंगा रोकने के लिए निष्पक्ष होकर कार्रवाई नहीं करती, तो राजनीति विज्ञान की भाषा में इसे Pogrom (पोग्रैम) की स्थिति कहते हैं. कई राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि दिल्ली की मौजूदा हिंसा में भी कुछ ऐसा ही हुआ.
प्रशासन की ढिलाई
संजय सूरी कहते हैं कि प्रशासन अगर चाहे, तो दंगे शुरू होने से पहले ही स्थिति काबू में कर सकता है.
वो कहते हैं, ''प्रशासन के पास इतनी ताकत होती है, इतनी मशीनरी होती है और इतने साधन होते हैं कि अगर वो वाक़ई हिंसा रोकना चाहे, तो बहुत कुछ कर सकता है."
सूरी कहते हैं कि अगर हिंसा के पूर्वानुमान के बावजूद एहतियाती कदम न उठाए जाएं और दंगों को बेकाबू होने दिया जाए, तो इसका मतलब यह है कि शायद सरकार और प्रशासन दंगों को रोकना ही नहीं चाहते.
वो कहते हैं, ''दिल्ली में जैसे हालात बन रहे थे, जिस तरह भड़काऊ भाषण दिए जा रहे थे और जिस तरह की बातें सोशल मीडिया पर लिखी-बोली जा रही थीं, उन्हें देखकर प्रशासन को अच्छी तरह अंदाज़ा हो गया होगा कि आगे क्या होने वाला है. इसके बावजूद कोई ठोस कदम नहीं उठाए गए.''
अब से कुछ वक़्त पहले जब सीएए विरोधी प्रदर्शन हो रहे थे, तब दिल्ली के कई हिस्सों में मोबाइल इंटरनेट सेवा बंद कर दी गई थी. लेकिन हाल के तनावपूर्ण हालात के बाद ऐसा नहीं किया गया. अब इस बारे में भी सवाल पूछे जाने लगे हैं.
राहुल बेदी याद करते हैं, ''2002 के गुजरात दंगों में भी कुछ-कुछ ऐसा ही हुआ था. गुजरात दंगों के दौरान तो आर्मी को भी तैनात किया था, लेकिन असल में उसे कार्रवाई के लिए कोई अथॉरिटी नहीं दी गई थी.''
1984 के दंगों को याद करते हुए बेदी बताते हैं, "उस वक़्त भी प्रशासन ने जानबूझकर ऐसा ही किया था. मुझे याद है, इंदिरा गांधी की हत्या बुधवार को हुई थी और आर्मी को शूट ऐट साइट का आदेश शनिवार दोपहर को दिया गया था. तब तक बहुत कुछ तबाह हो चुका था."
बेदी मानते हैं कि दंगों का यह टेम्पलेट (प्रारूप) साल 1984 में ही बना लिया गया था, जिसे अब अपग्रेड करके इस्तेमाल किया जाता है.
भड़काऊ भाषण
दिल्ली हिंसा के पीछे नेताओं के भड़काऊ भाषणों को भी ज़िम्मेदार माना जा रहा है. कोर्ट ने भी इन भाषणों पर सुनवाई के दौरान काफी कुछ कहा है.
अगर 1984 से तुलना की जाए, तो उस वक़्त भी भड़काऊ भाषणों और बयानबाजियों की कमी नहीं थी. तब और अब में जो एक बड़ा फ़र्क है, वो है सोशल मीडिया का.
सिखविरोधी दंगों को कवर करने वाले पत्रकार बताते हैं कि सोशल मीडिया के ज़रिए अफ़वाहें फैलाई जाती हैं और उस समय लोग गुट बनाकर अफ़वाहें फैलाते थे.
संजय सूरी याद करते हैं, ''इंदिरा गांधी की हत्या के बाद उनका शव तीन मूर्ति भवन लाया गया था. उस समय वहां बसों में भर-भरकर लोग लाए गए थे और ये लोग नारे लगा रहे थे- 'ख़ून का बदला ख़ून से लेंगे'. इन नारों का दूरदर्शन पर लाइव प्रसारण हो रहा था. इसके कुछ ही देर बाद रक़ाबगंज गुरुद्वारे से शुरू हुई हिंसा पूरी दिल्ली में फैल गई.''
सूरी कहते हैं कि दंगों के बाद बाकियों के लिए हालात धीरे-धीरे सामान्य हो जाते हैं, लेकिन न्याय के इंतज़ार में तरसते पीड़ितों और उनके परिवारों के लिए सबकुछ हमेशा के लिए बदल जाता है.
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