कोरोना वायरस: मुंबई TISS के पूर्वोत्तर के छात्र क्यों हैं परेशान
"तीन लोग हमारे पास आए और उन्होंने हमें 'कोरोना वायरस' कहा. मैंने उनसे बहस किया फिर वो थोड़ी देर चुप हुए, लेकिन वो हमें कई बार 'कोरोना वायरस' कहते रहे."
नागालैंड के एक छात्र ने नाम ज़ाहिर न करने की शर्त पर मुंबई में अपने साथ हुए इस भयावह अनुभव के बारे में बीबीसी से बताया. शाम के वक्त जब उनके साथ यह घटना हुई, तब वह किसी काम से लौट रहे थे.
वह कहते हैं, "मैं एक महिला साथी के साथ था और हम लोग चेंबूर में शिवाजी चौक के पास सड़क पार कर रहे थे. अचानक लड़कों का यह समूह हमारे पास आ गया. जब मुंबई जैसे शहर में ऐसी घटना होती है, तो यह बहुत दुख पहुंचाती है."
नागालैंड का यह छात्र ऐसे अनुभव से गुज़रने वाला पहला शख्स नहीं है. मुंबई के टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज़ (TISS) में पढ़ने वाले पूर्वोत्तर राज्यों के तमाम लोगों ने अपने साथ हो रहे भेदभाव के अनुभव साझा किए हैं.
छात्रों के साथ ये भेदभाव TISS कैम्पस के अंदर नहीं बल्कि कैम्पस के बाहर हो रहा है.
वे बताते हैं कि जब से चीन से कोरोना वायरस फैलना शुरू हुआ, उन्हें ऐसी घटनाओं का सामना करना पड़ रहा है. वे कहते हैं कि उनके नैन-नक्श की वजह से उनके साथ इस तरह का भेदभाव हो रहा है.
यह मसला इतना गंभीर हो चुका है कि TISS की नॉर्थईस्ट स्टूडेंट्स फोरम (NESF) ने इसकी निंदा करते हुए बयान जारी किया है. TISS प्रशासन ने भी इसका संज्ञान लिया है.
बीबीसी ने TISS में पढ़ने वाले पूर्वोत्तर के कुछ छात्रों से उनके साथ होने वाले भेदभावपूर्ण बर्ताव के बारे में जानने की कोशिश की.
कोरोनावायरस और भेदभाव
नॉर्थईस्ट स्टूडेंट्स फोरम के बयान में ऐसे कई वाकयों का ज़िक्र है, जब सार्वजनिक जगहों पर छात्रों को चीनी समझा गया या उन्हें कोरोना वायरस कहा गया. 10 फरवरी को ऐसी ही एक बड़ी घटना नागालैंड के एक छात्र और उनसे मिलने आई दोस्त के साथ हुई.
नॉर्थईस्ट स्टूडेंट्स फोरम के मुताबिक, "जो दोस्त मिलने आई थी, उसकी इजाज़त के बिना उसका वीडियो बनाया गया. फिर अन्य लोगों ने उसे सोशल मीडिया पर यह कहते हुए फैलाया कि हो सकता है वह चीन से कोरोना वायरस लेकर आई हो. जब हमने इस अफ़वाह और निजता के हनन का विरोध किया, तो नागालैंड के छात्र को गाली-गलौज और धमकी भरे बर्ताव का सामना करना पड़ा."
TISS के छात्र और NESF के सदस्य जीत हज़ारिका ने बताया कि इस घटना से उस लड़की बहुत सदमा पहुंचा और वह डरी हुई है.
जीत ने कहा, "हम इस बारे में संस्थान के डायरेक्टर से मिले. संस्थान के सभी अधिकारियों ने इस बात का संज्ञान लिया है. वे कैंपस में सुरक्षा सुनिश्चित करेंगे और लोगों को भेदभाव न करने के लिए संवेदनशील बनाने की दिशा में काम करेंगे. हम लोग रिहायशी इलाकों में भी लोगों को संवेदनशील बनाने पर काम कर रहे हैं."
"हमें मुंबई में इसकी उम्मीद नहीं थी."
मणिपुर के एक छात्र रिचर्ड कमेई कहते हैं कि दूसरी जगहों के मुकाबले कैंपस का माहौल फिर भी संवेदनशील है, लेकिन अन्य जगहों पर आमतौर पर भेदभाव होता ही है.
वह बताते हैं, "लोकल ट्रेन में सफर करते समय कोई भी कॉमेंट कर देता है. अगर मैं सिर्फ म्यूज़िक भी सुन रहा हूं, तब भी वो मुझे तुच्छ महसूस कराने वाली बातें करते हैं. अगर मैं अपनी मातृभाषा में माता-पिता से बात कर रहा हूं, तो कुछ लोग कौतूहल भरी निगाह से मुझे देखते हैं या मेरा मज़ाक उड़ाते हैं."
जीत बताते हैं, "लोग हमसे पूछते हैं कि तुम कहां से हो. कई बार लोग स्वाभाविक जिज्ञासा के तहत हमारे बारे में जानना चाहते हैं. लेकिन अक्सर लोग असंवेदनशील होते हैं. वो मान लेते हैं कि हम लोग किसी और देश से आते हैं. हम देश के बाकी लोगों जैसे नहीं दिखते हैं, तो वो हमें बाहरी कहते हैं और राष्ट्रीयता साबित करने को कहते हैं. कोरोना वायरस ने एक बार फिर उजागर कर दिया कि वो हमारे बारे में जानना ही नहीं चाहते हैं."
एक और छात्र ने नाम न ज़ाहिर करने की शर्त पर कहा, "हम मानते हैं कि हम अलग दिखते हैं और हमें पता है कि हमारे प्रति लोगों की प्रतिक्रियाएं और बर्ताव अलग होंगी. लेकिन हमें मुंबई में इसकी उम्मीद नहीं थी. यह बहुत बड़ा शहर है, जहां अलग-अलग इलाकों के लोग रहते हैं. हम मुंबई शहर को कॉस्मोपॉलिटन शहर मानते हैं."
कई छात्रों ने यह भी बताया कि क्यों ऐसी घटनाएं उन्हें तक़लीफ पहुंचाती हैं और क्यों कई मौकों पर वो असहाय महसूस करते हैं. एक छात्र ने बताया, "कुछ मौकों पर जब हमने इस भेदभाव पर असहमति जताई, तो लोगों ने गु़स्से में और हिंसात्मक तरह से जवाब दिया. ऐसी किसी घटना से बचने के लिए हम चुप रहते हैं और बात टाल जाते हैं."
सच्ची 'अनेकता में एकता' की ज़रूरत है
रिचर्ड मानते हैं, "भारत की व्याख्या करने वाले सिद्धांतों में 'अनेकता में एकता' भी एक सिद्धांत है. यह विविधता भरा देश है, जिसमें कई संस्कृतियों और मतों के लोग रहते हैं. लेकिन जो घटनाएं हो रही हैं, वो देश को एकरूप बनाने की ओर इशारा करती हैं. विभिन्नताओं को सम्मान नहीं दिया जा रहा है. खाना, भाषा, संस्कृति और चेहरे को देखें तो हम भारत के दूसरे शहरों के लोगों से अलग दिखते हैं. इसी को हमसे भेदभाव करने का पैमाना बनाया जा रहा है."
रिचर्ड और जीत इस बात पर ज़ोर देते हैं कि लोगों के बीच विभिन्न संस्कृतियों और अनेकता को संरक्षित किए जाने पर बात होनी चाहिए. वह कहते हैं, "सबसे पहले तो संस्कृति, भाषा और चेहरे के फ़र्क को समझिए और लोगों को इन अंतर को स्वीकार करना होगा. पूर्वोत्तर के तमाम कार्यकर्ता अक्सर मांग करते हैं कि हमारी शिक्षा पद्धति को बदलाव की ज़रूरत है. पूर्वोत्तर के इतिहास का एक बड़ा हिस्सा पाठ्यक्रम से गायब है. यह एक लंबी प्रक्रिया है और इसका कोई एक समाधान नहीं है."
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