कोरोना लॉकडाउन के शिकार, लाचार लोगों के पलायन के क़रीब 1500 किलोमीटर की आँखों देखी


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'चूंकि संख्या में वे इतने ज़्यादा हैं और इतने अलग-अलग तरह के हैं कि हिंदुस्तान के लोग स्वभाविक तौर पर बँटे हुए हैं.'
ट्रेन की छत पर लदे लोगों की भीड़ और इस किताब कवर पर लिखा नाम- भारत गांधी के बाद. रामचंद्र गुहा की इस किताब का नाम, कवर फ़ोटो और ऊपर लिखी किताब की पहली लाइन 2020 के भारत का सच हो गई है.
हिंदुस्तान के लोग संख्या में इतने ज़्यादा हैं कि स्वभाविक तौर पर बँटे हुए हैं. कोरोना से लड़ाई के ज़रूरी हथियार सोशल डिस्टेंसिंग यानी 'दूरियां हैं ज़रूरी' को मानने और धज्जियां उड़ाने को मजबूर लोगों के बीच ये फ़र्क़ साफ़ महसूस होता है.
फ़ेसबुक, ट्विटर पर जब वक़्त काटने, उम्मीद जगाने के लिए कविताएँ, कहानियां सुनाई जा रही हैं. तब सड़क पर उदास कहानियां, कविताएं रची जा रही हैं. इन कविताओं को कोई कवि नहीं, वो भीड़ रच रही है जो कविता, कहानी सुनाने और अंताक्षरी खेलकर खुश होने वाली भीड़ से बहुत दूर पैदल चले जा रही है.
दिल्ली से मुरादाबाद होकर लखनऊ और फिर रायबरेली, फ़तेहपुर, कानपुर, आगरा होते हुए दिल्ली लौटने की अपनी 24 घंटे की क़रीब डेढ़ हज़ार किलोमीटर की यात्रा में मैंने लाख से ज़्यादा लोगों को सड़क पर देखा. ये उन्हीं लाचार, लॉकडाउन के शिकार लोगों की तकलीफ़ों की रत्तीभर ही आंखों देखी है.

दिल्ली से जाते हुए

दिल्ली से यूपी पहुंचने तक

दिल्ली के दिलशाद गार्डन से आनंद विहार पहुंचने तक पूरे रास्ते में लोगों की भीड़ चले जा रही है.
आसमान बारिश के आने का और भीड़ गाड़ी वालों से लिफ़्ट मांगकर कुछ दूर जाने का इशारा कर रहे थे. आसमान का इशारा कुछ देर बाद हक़ीक़त में बदला. लेकिन दूसरा इशारा किसी काम नहीं आया.
आनंद विहार स्टेशन के सामने सैकड़ों लोग खड़े हैं. ये 27 मार्च की शाम है और अभी तक सरकार की ओर से पैदल चल रहे लोगों के लिए बसों को चलाने का ऐलान नहीं हुआ था.
एक शख़्स ने कहा, ''वॉटस ऐप पर आया है कि सरकार बसों से गांव भेज रही है.''
आनंद विहार के आगे ग़ाज़ीपुर फ्लाइओवर पर बैठे कुछ लोग सुस्ता रहे हैं. बगल में टाटा मोटर्स का बड़ा गोदाम सूना पड़ा है. कार्गो कंटेनर ही कंटेनर दिख रहे थे. इन कंटेनर्स को क्रेन से उठाने वाले जैसे लोग इन फ़िलहाल बंद पड़े गोदामों की ओर पीठ किए हुए बैठे हैं.

ग़ाज़ीपुर का कार्गो कंटेनर

मौत सामने दिखती है तो...

दिल्ली के ग़ाज़ीपुर में हमेशा की तरह अब भी गायें खड़ी हैं. अकसर बड़ी गाड़ियों को अपनी मासूम ठसक से रोक देने वाली ये गायें इंसानों को नहीं रोक पा रही हैं.
ग़ाज़ीपुर श्मशान घाट के अंदर लाश जलने की गंध बाहर आ रही है.
जिन कुछ लोगों ने चेहरे पर कोरोना से बचने के लिए मास्क नहीं लगाया था, वो अब नाक को ढक रहे हैं. मौत सामने दिखती है तो ज़िंदगी कीमती लगने लगती है.
गाज़ीपुर के विशाल कूड़े के पहाड़ की चीलें भीड़ के काफ़ी ऊपर उड़ रही हैं. मेरे मन में आशंकाओं को जन्म और अनचाहे संकेतों की ओर इशारा करते हुए.

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नोएडा से मुरादाबाद की ओर

यूपी बॉर्डर शुरू होते ही भीड़ का मानो विस्फोट हुआ हो. सड़क किनारे लोग-लोग ही थे. 27 मार्च की रात ये भीड़ बढ़ी चली जा रही है. कुछ लोग सामान ढोने वाले रिक्शे पर सवार थे. कुछ बेटियां पापा के कंधों पर चढ़ी दूर तक भीड़ देख रही थीं. कुछ लोग एक बाइक पर चार लोगों को बैठाए लिए जा रहे हैं कुछ सड़क पर बैठे सुस्ता रहे हैं.
अब क़रीब तीन घंटे हो चुके हैं, मेरी आंखें लगातार सड़क के बाएं लोगों की भीड़ चलते हुए देख चुकी हैं. राइट रहने वाले लोग फ़र्राटे से अपनी गाड़ियों से चले जा रहे हैं. लेफ़्ट वाले लोग ज़मीन से जुड़े पैदल बढ़े रहे जा रहे हैं. इस संघर्ष में कुदरत ने भी साथ दिया. रोमेंटिक लगने वाली बारिशें क्रूरताओं पर उतर आईं. तेज़ बारिश में लोग भीग रहे हैं.
लेकिन कोई रुक नहीं रहा है. कुछ बच्चे बारिश में आसमान की ओर देख रहे हैं. ये वही आसमान है, जिससे आते-जाते हवाई जहाज़ों को देखते हुए ये बच्चे अकसर सिर्फ़ बाय-बाय कहकर हसरत पूरी करते होंगे.

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कोरोना जैसी बीमारी...

इस बात से बिलकुल बेख़बर कि एक रोज़ ऐसे ही हवाई जहाज़ों से कोरोना जैसी बीमारी भारत में घुसेगी और अपने खेल-खेल में बनाए नन्हें रेत, तीन ईंट वाले घरों को भी इन बच्चों को भी बाय-बाय कहकर जाना पड़ेगा.
सड़कों के किनारे बिल्डर्स के बोर्ड 'वेलकम टू... सिटी' कह रहे हैं. लेकिन जब ये भीड़ सिटी छोड़कर जा रही है, तो दुनिया का कोई भरोसा इनका वेलकम नहीं कर रहा. वो निर्माणाधीन इमारतें भी नहीं, जिन्हें बनाने वाले मज़दूर भी सड़क पर आ गए हैं. कोई मदद नहीं कर रहा. मैं तो बिलकुल भी नहीं. मेरे पास उपलब्ध जगहें भर गई हैं.
पैदल चल रहे लोगों में ख़ुद को देखने पर गाड़ी में बैठे ख़ुद से नफ़रत होती है. समय की बारिशें लोगों को बेघर कर रही हैं. कोरोना संक्रमण से शायद बच जाऊँगा. लेकिन जिन-जिन सैकड़ों लोगों की निगाह ने मुझसे उम्मीद की और मैं कुछ नहीं कर पाया, इस अपराधबोध का संक्रमण कुछ दिन शायद आसानी से जीने नहीं देगा.

बस

मुरादाबाद से लखनऊ के रास्ते

मुरादाबाद से ठीक पहले गढ़मुक्तेश्वर का एक पेट्रोल पंप. यहां एक बस खड़ी है, जिसके अंदर लोगों की भीड़ है. छत पर 50 से ज़्यादा लोग बैठे हुए हैं. बस चलाने वाले दो लोग गालियों के साथ इन लोगों से पैसे मांग रहे हैं. जितना मैं पहचान पाया, उससे लगा कि शायद इन लोगों के पास बसवालों को देने के लिए पैसे तक नहीं हैं.
बस कंडक्टर, ड्राइवर चिल्ला रहे हैं- "*** तुम्हारे बाप की बस है जो पैसे नहीं दोगे. *** पर लात मारकर छत से गिरा दूँगा." मैंने जब चिल्लाते लोगों का वीडियो बनाना शुरू किया तो वो चुप हो गए. रुकी बस चल पड़ी.
लेकिन ये सब देखकर एक फ़िल्मी डायलॉग याद आया. 'इस दुनिया में सिर्फ़ दो तरह के इंसान हैं, अच्छे इंसान जो अच्छा काम करते हैं और बुरे जो बुरा काम करते हैं. बस यही फ़र्क़ है इंसानों में. और कोई नहीं.'
मैं चिल्लाते लोगों में बुरा इंसान देख चुका था. अच्छे इंसान आगे मिले. जो हाई-वे किनारे बने अपने घरों, गलियों में बड़े-बड़े भगोनों में दाल चावल, शरबत, बिस्किट, संतरे लेकर आ खड़े हुए थे.
बिना किसी ख़ौफ़ के ये लोग लोगों की भीड़ के बीच खड़े होकर सामान बांट रहे थे. मुझ जैसे लोगों की तरह कार में बैठे संक्रमण से डरे तमाशबीन नहीं बने हुए थे.

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सरकार के माइक से ऐलान और हक़ीक़त

रामपुर के पास एक ही परिवार के कुछ लोग टोल प्लाज़ा के पास रात में 12 बजे बैठे दिखे. ये लोग मुरादाबाद से रामपुर की 26 किलोमीटर की यात्रा तय करके सुस्ता रहे थे. पूछा तो पता चला कि क़रीब 400 किलोमीटर की यात्रा करके गोरखपुर पैदल ही जा रहे हैं.
इन लोगों का कहना था, "जहां झुग्गी लगाकर रह रहे थे, वहां मारने लगे कि यहां से चले जाओ. अपने घर चले जाओ. कोई मत रुको."
सरकार के मदद के ऐलान पर कृष्णा देवी कहने लगीं, "हम लोग ऐलान सुने. माइक में बोलते हुए जाते हैं. फिर पेपर में निकलता है. मोबाइल में निकलता है. लेकिन हम लोगों को कोई सुविधा नहीं मिली, तब तो भगे भइया. कोई शौक लगता है पैदल-पैदल भगने में. आधार कार्ड और बाकी कागज़ हमारे गांव के पते के थे. भूखे, प्यासे यहां मरे. इससे बढ़िया बढ़ने लगे घर पैदल-पैदल. यही बात की परेशानी है भइया."

कृष्णा देवी
Image captionकृष्णा देवी

मैंने कहा कि गोरखपुर तो यहां से काफ़ी दूर है, कैसे जाएंगे? जवाब मिला, "10-15 दिन लग जाएंगे. जब सरकार हमारा कोई सहयोग नहीं कर रही है तो क्या करें. इसलिए हम लोग पैदल यात्रा कर रहे हैं. खाने के लिए बस आटा-चावल सीधा है. वही बस खाते बनाते निकल जाएंगे. कोई दाता धर्मी मिलेगा तो चले जाएंगे."
दिनेश प्रसाद ने भी कहा, "सरकार ऐलान करती है. कुछ देती नहीं है. कितने सारे लोग बस में जा रहे हैं. एसडीएम ने हम लोगों के हाथ-पैर में पानी छिनका. कहने लगा कि तुम लोगों को साधन (गाड़ी) मिलेगा, मैं गिनती गिना रहा हूं. जब हम लोग रेलवे लाइन पर बैठे तो गिनती गिनाते-गिनाते बोले कि तुम लोग दो घंटे के अंदर बाईपास पकड़ लो. बाईपास से कोई साधन मिलेगा तो तुम लोग भग जाओ. नहीं तो पैदल यात्रा करो."

दिनेश प्रसाद
Image captionदिनेश प्रसाद

सड़कों पर लाचार लोग

कुछ दिन पहले यूपी पुलिस ने कुछ गांधीवादी लोगों को पदयात्रा करने के 'जुर्म' में पकड़ा था. अब जब लगभग पूरे भारत की सड़कों पर लाचार लोग पदयात्राएं कर रहे हैं, तब कोई प्रशासन इन सभी पदयात्रा कर लोगों का हाथ नहीं पकड़ पा रहा.
सीतापुर बस अड्डे से पहले पांच लोग रिक्शे पर मिले. मैंने पूछा तो पता लगा, ''बुधवार शाम दिल्ली से चले थे. आज शनिवार लग गया है. बारी-बारी से रिक्शा चलाते हैं. देर सवेर पहुंच ही जाएंगे. वहां रहकर क्या करेंगे. कमाई का कोई तरीका नहीं बचा. कम से कम घर में नमक रोटी तो मिल जाएगा.''
रास्ते में गन्नों से लदे ट्रक और खेतों में तैयार गेंहू भी दिखे. लॉकडाउन का असर इन पर भी हुआ तो मैं सोचने लगा कि कौन सी पार्टी चुनावों में किसानों की क़र्ज़माफ़ी को लेकर कैसे लुभावने ऐलान करेंगी. भारत के घोषणापत्रों में बहुत कुछ नया जुड़ने वाला है.

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लखनऊ की नीली सुबह और दिल्ली जैसे जवाब

दिल्ली से लखनऊ पहुंचते-पहुंचते मददगार लोगों को छोड़ दिया जाए तो कहीं कोई दुकान नहीं मिलती है, जहां आप चाय पी सकें या कुछ खा सकें.
सड़क किनारे पड़ने वाला हर स्वघोषित 'मशहूर ढाबा' सूनेपन के लिए बदनाम लग रहा था. लखनऊ शहर में घुसने से कुछ किलोमीटर पहले पेट्रोल पंप पर एक छोटी कार खड़ी थी.
इस कार के अंदर बच्चे सो रहे थे. बाहर उसी घर का सदस्य पूरे शरीर को कपड़े से ढका सो रहा था. वो उठा और बात हुई तो कहने लगा, ''मैंने सोची थोड़ा सुस्ता लूं. बार-बार आंख सी लग रही थी. पता लगे कोरोना से बच जाऊं लेकिन ठुकके कहीं मर जाऊं.''
ये डर तब और जायज़ लगने लगा, जब ख़बर पढ़ी कि कर्नाटक के पेड्डा गोलकुंडा में ट्रक और वैन की टक्कर में सात मज़दूरों की मौत हो गई. ये मज़दूर अपने घर लौट रहे थे. मरने वालों में दो बच्चे भी शामिल हैं.

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कोरोना और भूख

दिल्ली से मुरैना पैदल चलकर जाने वाले इंसान की मौत ये डर और बढ़ाती हैं. तब जब लोग अब भी चले जा रहे हैं.
अब जाना सिर्फ़ हिंदी की ख़ौफ़नाक क्रिया नहीं रह गई. हर भाषा के लोग जा रहे हैं और इससे ख़ौफ़नाक कुछ नहीं.
लखनऊ शहर में भी दिल्ली जैसा ही हाल था. यहां भी कुछ लोग पैदल ही चले जा रहे थे. मैंने कितने ही लोगों से वही अब तक घिस चुका सवाल पूछा- कहां जा रहे हैं और क्यों?
सबका लगभग वही जवाब, 'कुछ किलोमीटर पहले से चले हैं, काफ़ी दूर जाना है. यहां रहकर क्या करेंगे. कोरोना और भूख से मरने से अच्छा है गांव चले जाएं.'
मन में ख़याल आया कि कुछ दिन पहले तक शहरों की वजह से खाली होते ये गांव अचानक कितने भर जाएंगे. जिन शहरों की नौकरियों की वजह से हज़ारों लोग अपने बच्चों को बड़ा और मां-बाप को बूढ़ा होते नहीं देख पाए होंगे, वो अब कितने ही दिन अपने गांव में बिताएंगे. अपनों के बीच गांव में बैठे-बैठे ये लोग आने वाले दिनों में ये जान पाएंगे कि ज़रूरतों की थाली में सबसे छोटी कटोरी प्यार की होती है.

लालगंज

लखनऊ से रायबरेली

लखनऊ के मॉल्स, बड़े दफ़्तर की इमारतें बंद हैं. टेक्नॉलजी के युग में चीज़ों को क़रीब से देखने का एक तरीक़ा ज़ूम होता है. कोरोना की वजह से पैदा हुई दूरियों में लोग कई ऐप्स के सहारे दूर रहकर एक-दूजे को ज़ूम कर रहे हैं.
ये बड़े दफ़्तर बंद होकर भी शायद ऐसे ही चल रहे हैं. लखनऊ से रायबरेली जाते हुए पीजीआई अस्पताल के आगे से गुज़रते लोग अंदर की तरफ़ डरी नज़रों से देख रहे हैं.
बछरांवा में पुलिस बैरिकेटिंग लगाए खड़ी थी. यहां से रायबरेली ट्रेन कोच फ़ैक्ट्री से कुछ दूर लालगंज की ओर बढ़ने पर कई जगह पुलिस दिखती है. ये पुलिस ऐसी जगहों पर भी तैनात दिखी, जहां कुछ दिन पहले तक पुलिस को घटना के बाद पहुंचने में घंटों लग जाते थे.
लालगंज रेलवे स्टेशन सुनसान था. व्यस्त रहने वाला लालगंज का गांधी चौराहा खाली पड़ा हुआ था. ये देखकर हैरानी हुई कि यहां भी लोग पैदल चले जा रहे थे. हालांकि ये लोग दिल्ली, हरियाणा से आ रहे लोग नहीं थे. कोई लखनऊ से चला था तो कोई इलाहाबाद से. वजह सबकी वही.

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लालगंज से फ़तेहपुर की ओर बढ़ने पर जनता बाज़ार के पास एक गांव पड़ता है गोगूमऊ.
इस गांव में कुछ लोग शहर से सुबह ही आए हैं. इनके गांव पहुंचने के कुछ ही देर बाद प्रशासन की एक गाड़ी आती है और उन लोगों की जांच करती है जो शहर से आए हैं. कोरोना से सतर्कता में योगी आदित्यनाथ सरकार की मुस्तैदी साफ़ दिखती है.
गांवों के लोगों ने मास्क की बजाय गमछा लपेटा हुआ है. कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो कह रहे हैं, 'अरे ई कोरोनो वोरोना हमका न होई, ई सब शहरी चोचला हंय.''
इन्हीं गांवों के इलाक़े से निकलने के कुछ देर बाद मुझे फ़ोन पर पता चला कि शहर से आए लोगों को ग्रामीण अपने घर नहीं आने दे रहे हैं.

मज़दूर

फ़तेहपुर से आगरा: गांव से शहर का पलायन?

इलाहाबाद से फ़तेहपुर होकर आगरा की ओर जाती सड़क.
28 मार्च की सुबह हो चुकी है. हम दिल्ली की ओर लौट रहे हैं. यानी गांव से शहर की ओर जाती सड़क. इस सड़क पर अपेक्षाकृत काफ़ी कम भीड़ है. जबकि शहर से गांव की ओर आती सड़क अब भी भरी है.
दूध, तेल के ट्रकों में लोग चढ़े बैठे हैं. ये फ़िसलन भरे गोल टैंक वाले ट्रक होते हैं, जिससे गिरने की आशंकाएं ज़्यादा रहती हैं. फिर भी लोग चढ़े बैठे हैं.
दोनों ही तरफ़ की सड़कों पर यूपी प्रशासन की खाली बसें जाती या आती हुई दिख रही हैं. इसकी वजह कुछ देर बाद तब समझ आती है, जब मैं उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का 28 मार्च को 11 बजे किया ट्वीट देखता हूं.
योगी सरकार ने पलायन कर रहे लोगों के लिए 1000 बसों का इंतज़ाम करने का ऐलान किया था.

प्रशासन का आदेश...

कानपुर से आगरा के रास्ते में कुछ किलोमीटर की दूरी पर पुलिस के कुछ सिपाही 100 से ज़्यादा लोगों की भीड़ को रोके खड़े इंतज़ार कर रहे हैं. ये इंतज़ार किसी बस या ट्रक का है. बस या ट्रक के आते ही पुलिसवाले लोगों को बस में चढ़वा रहे हैं.
"जहां जगह मिले, बैठ जाओ. यही मौक़ा है. फिर मौक़ा नहीं पाओगे. ऊपर चढ़ जाओ. ठीक रहेगा."
आगरा के शाहदरा चुंगी में पुलिस के कुछ जवान लोगों को ये कहते हुए ट्रकों में चढ़वा रहे हैं.
उत्तर प्रदेश होमगार्ड के डीसी यादव ने दावा किया, "सुबह से तीन हज़ार लोगों को चढ़वा चुके हैं. ये प्रशासन का आदेश है, इंस्पेक्टर का आदेश है कि बैठा दो. ग़रीब, मजबूर कहां मरेंगे. खाना वग़ैरह भी खिलवा रहे हैं. आम जनता भी मदद कर रही है. हम लोग पूरा मेहनत कर रहे हैं."
इनके अलावा एक जवान को ट्रकों पर बैठे लोगों को पानी की बोतल, संतरे और बिस्किट के पैकेट फेंककर पकड़ाते हुए देखा. पानी की बोतल लोगों को देकर वो पिता की तरह कह रहे थे- पानी ले लो, आगे प्यास लगेगी.

उत्तर प्रदेश होमगार्ड के डीसी यादव
Image captionउत्तर प्रदेश होमगार्ड के डीसी यादव

दिल्ली की ओर...

भारत सरकार ने सभी नेशनल हाईवे पर टोल टैक्स बंद किया हुआ है. पब्लिक- प्राइवेट पार्टनरशिप के तहत बना यमुना एक्सप्रेस-वे पहले की तरह टोल वसूली में लगा हुआ है.
रास्ते में मुसाफ़िरों के लिए बने जन-सुविधा केंद्र और खाने की दुकानें सब बंद हैं. नोएडा घुसते ही अब भी वैसे ही लोगों की भीड़ सड़क पर है. ये मुझ जैसे किसी रिपोर्टर के लिए कितना दुखद है कि हम एक ही लेख में एक लाइन बार-बार लिखे जा रहे हैं. 'यहां भी सड़कों पर लोगों की भीड़ है.' लेकिन इसके अलावा कोई दूसरा सच दिख भी नहीं रहा.
'भइया दीदी के लिए गुलाब ले लो.' ये कहकर नोएडा के मॉल्स और मेट्रो स्टेशनों के बाहर गुलाब बेचने वाली बच्चियां ग़ायब हैं. साथ में गुलाबों की ख़ुशबू भी ग़ायब है.
दिल्ली घुसते ही रास्तों का आसमान भले ही साफ़ दिखने लगा है. लेकिन सड़कें लोगों के दुखों की वजह से मैली लगने लगी हैं. गाज़ीपुर के उस श्मशान घाट में अब भी कोई लाश जल रही थी.

आनंद विहार

साइकिल पर अपने दो बच्चों को बैठाए एक लड़का सामान लादे कहीं जा रहा है. मैंने पूछा- कहां जा रहे हो. जवाब मिला- कहीं नहीं सर, यहीं जा रहे हैं पांच मिनट दूर बस. मैंने कहा, 'ऐसा लग तो नहीं रहा, सच बताओ. मैं पुलिस से नहीं हूं.'
ये सुनते ही वो बोला, 'कानपुर निकल रहे हैं. वहीं घर है हमारा. यहां रुककर क्या करेंगे.'

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आनंद विहार की वो वायरल तस्वीर और रामायण

योगी के हज़ार बसों को चलाए जाने के ऐलान के बाद आनंद विहार में हज़ारों की संख्या में लोग खड़े थे. ऊपर नीले आसमान में चांद और चमकता तारा दिख रहा था. आसमान में कोई टूटता तारा नहीं दिखा. टूटने का हुनर अब ज़मीन ने हासिल कर लिया था.
आनंद विहार की वायरल तस्वीरों को आपने शायद देखा होगा, उन तस्वीरों में कुछ बातें शायद चूक गईं.
28 मार्च को रात साढ़े सात बजे के क़रीब आनंद विहार सड़क पर सैकड़ों पुलिसवाले भी तैनात थे. भीड़ को शांति से लाइन में लगने को कहते हुए. भीड़ के बिलकुल बीच में खड़े होकर बिना किसी सोशल डिस्टेंसिंग के लोगों की मदद करते हुए.
ये जो पुलिसवाले मैंने यूपी और दिल्ली में मदद करते देखे, ये उन वायरल वीडियोज़ जैसे नहीं थे जिनमें कुछ पुलिसवाले लोगों पर लाठी चलाते दिखे थे. बल्कि ये लोग अपनी कोरोना संक्रमण के ख़ौफ़ को किनारे रखकर अपना फ़र्ज़ निभा रहे हैं.

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जब ये लिख रहा था, तब मेरी बात बीबीसी मराठी की मेरी सहयोगी अनघा पाठक से हुई. अनघा बताने लगीं, ''एक पुलिसवाले की ड्यूटी नासिक के श्मशान घाट के बाहर लगी है. 30 साल से कम उम्र का वो पुलिसवाला कहता है कि घर जाता हूं तो बच्चों को हाथ नहीं लगाता हूं, अब बच्चे भी मुझसे नाराज़ हो गए हैं.''
दिलशाद गार्डन के पास 24 घंटे पहले जैसी ही भीड़ है. मैं जब यहां से एक दिन पहले निकला था तो वही पुलिसवाले अब भी खड़े थे. मैं उन्हीं पुलिसवालों के पास जाकर पूछता हूं, ''आप लोगों ने कुछ खाया या नहीं?''
हँसते हुए जवाब मिला- भाई तूने तो ऐसी पेट भर दिया.
मैं 24 घंटे बाद जब घर लौटा तो रात के नौ बज रहे थे. टीवी पर रामायण चल रही है. भगवान श्रीराम गुरुकुल से घर लौट आए हैं. लेकिन जो हज़ारों, लाखों लोग सड़कों पर हैं, वो शायद अब भी घर नहीं लौट पाए होंगे.

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