अदालतों पर भरोसे की बहाली का फ़ैसला...
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चीफ जस्टिस गोविन्द माथुर और जस्टिस रमेश सिन्हा ने साफ कह दिया कि 50 लोगों के बैनर लगा कर यूपी सरकार ने मौलिक अधिकारों का और आर्टिकल 21 के तहत मिले जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन किया है.
Published : March 10, 2020 00:26 IST
पूरी दुनिया में कच्चे तेल के दामों में 30 प्रतिशत से अधिक की गिरावट से खलबली है कि कहीं अर्थव्यवस्था की सुस्त चाल अब बैठ न जाए. भारत में खलबली है कि कब मध्यप्रदेश में कमलनाथ की सरकार गिर जाए. पिछले कुछ दिनों से कमलनाथ की सरकार के मंत्री और विधायक कब गायब हो जाते हैं पता नहीं चलता. राजनीति अपने काम में लगी है और सारा कुछ हो जाने के बाद यस बैंक के पूर्व संस्थापक राणा कपूर के यहां छापेमारी हो रही है. कोई 4300 करोड़ की मनीलौंड्रिंग कर जाता है, लोगों के पैसे फंस जाते हैं तब उसके यहां छापा पड़ता हुआ दिखता है जबकि सरकार ही कहती है कि 2017 से यस बैंक भारतीय रिजर्व बैंक और वित्त मंत्रालय की निगरानी में था. इलाहाबाद हाइकोर्ट में दो जजों की बेंच ने जो फैसला सुनाया है वो इन सब गतिविधियों से कम महत्वपूर्ण नहीं है. ऐसा फैसला बता रहा है कि कुछ बचा है कि अदालतों के भरोसे ही वरना अब सरकार अपने उन फैसलों के लिए भी शर्मिंदा नहीं होती जो संवैधानिक मूल्यों और मर्यादाओं के खिलाफ़ पाई जाती हैं.
पहले मामला समझिए. लखनऊ की सड़कों पर 50 लोगों की तस्वीरें उनकी निजी जानकारी के साथ बैनर पर लगा दी गईं. लिखा हुआ था कि इन सभी से नागरिकता कानून के विरोध में हुए प्रदर्शनों से सार्वजनिक संपत्ति को हुए नुकसान का हर्जाना वसूला जाना है. इनमें पूर्व आईपीएस एस आर दारापुरी, एक्टिविस्ट सदफ जफर, दीपक कबीर के भी नाम है. 80 साल के वकील शोएब वकील का भी चेहरा है. इस बैनर पर इनकी तस्वीरें हैं, नाम हैं, घर का पता है, पिता का भी नाम है. लिखा है कि इन सभी 50 लोगों ने 19 दिसंबर के प्रदर्शन में सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचायी है जिनसे हर्जाना वसूला जाएगा. 76 साल के दारापुरी कभी लखनऊ पुलिस में डीआईजी थे. उन पर 65 लाख के नुकसान का हर्जाना थोपा गया है. दीपक कबीर तो संस्कृतिकर्मी हैं. हाल ही में उनके कबीर फेस्टिवल का उद्घाटन लखनऊ के कमिश्नर ने किया था. उसमें आईएएस और आईपीएस शामिल हुए थे. स्मार्ट सिटी की बैठक में भी प्रशासन उनकी राय के लिए बुलाता था. अब उसी दीपक कबीर की तस्वीर चौराहे पर लगी है. क्या प्रदर्शन में भाग लेने से सरकार से असहमति रखने के कारण शोएब, दारापुरी, दीपक और सदफ जैसे 50 लोगों की तस्वीर चौराहे पर लगाई गई है. इन सभी का कहना था कि इससे उनके जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार को खतरा पहुंचा है. ये एक तरह की मॉब लिचिंग को उकसाना है कि ये वो चेहरे हैं इनके घर का पता इस गली और इस मोहल्ले का है.
इन सभी की आपत्ति इस बात को लेकर थी कि घर का पता देने से उनकी निजी जानकारी सार्वजनिक हुई है. इससे भीड़ उनके घर आ सकती है. रविवार को छुट्टी के दिन इस मामले को लेकर सुनवाई हुई. चीफ जस्टिस गोविंद माथुर और जस्टिस रमेश सिन्हा की बेंच ने जब सुनवाई की तो यूपी सरकार ने अपने सारे बड़े वकीलों की बैटरी उतार दी. रविवार को अतिरिक्त महाधिवक्ता नीरज त्रिपाठी यूपी सरकार की तरफ से बहस की लेकिन बाद में यह फौज बड़ी हो गई. अदालत के फैसले में लिखा है कि सरकार की तरफ़ से कौन-कौन पेश हुए.
महाधिवक्ता राघवेंद्र सिंह, अतिरिक्त महाधिवक्ता नीरज त्रिपाठी, अतिरिक्त मुख्य स्थायी वकील शशांक शेखर सिंह, अतिरिक्त मुख्य स्थायी वकील अर्चना सिंह. इन सभी ने यूपी सरकार की तरफ से चुनौती दी. हाइकोर्ट ने अपनी तरफ से लखनऊ में 50 लोगों की तस्वीरों वाले बैनर लगाने के मामले में संज्ञान लिया था. कोर्ट ने लखनऊ के ज़िलाधिकारी और पुलिस कमिश्नर से सफाई मांगी थी कि किस प्रावधान के तहत बैनर लगाए गए हैं. सरकार के चारों बड़े अधिवक्ताओं ने अदालत की जनहित याचिका को चुनौती देते हुए कहा कि महाधिवक्ता ने कहा कि बैनर लगाने के लिए राज्य के पास कोई कानूनी प्रावधान नहीं है लेकिन कोर्ट ने इस मामले में स्वतः संज्ञान लेकर चूक की है. क्योंकि बैनर पर जिनके नाम हैं वे ख़ुद सक्षम हैं अदालत में चुनौती देने के लिए. कोर्ट को दखल नहीं देना चाहिए था.
प्रमोटेड: इन स्टोर्स
महाधिवक्ता ने जनहित याचिका के मामले में 2010 के सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देशों का हवाला दिया और कहा कि अदालत को सच्चे जनहित मामलों को प्रोत्साहित करना चाहिए. अनावश्यक याचिकाओं को हतोत्साहित करना चाहिए. कोर्ट याचिकाकर्ताओं की विश्वसनीयता की भी जांच करे. याचिका की बातों का भी मूल्यांकन करे. जिनकी तस्वीरें हैं उन्होंने हर्जाना के आरोपों को कोर्ट में चुनौती दी है. इसलिए इस जनहित याचिका की ज़रूरत नहीं थी. यह मामला लखनऊ का है और यह कोर्ट के अधिकार क्षेत्र में नहीं आता है.
यह एक अजीब तर्क था. क्या लखनऊ का कोई प्रशासनिक मामला इलाहाबाद के चीफ जस्टिस कोर्ट के अधिकार क्षेत्र से बाहर हो सकता है, मगर दलील दी गई. अदालत ने चारों शीर्ष अधिवक्ताओं को आर्टिकल 21 की याद दिलाई जो हर नागरिक को जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार देता है. कहा कि दुनिया का हर देश अपने संविधान में निजता के अधिकार की पहचान करता है. निजता मौलिक अधिकार भी है. निजता में ही किसी व्यक्ति की गरिमा और लोकतांत्रिक मूल्य अंतर्निहीत हैं. शामिल हैं. आर्टिकल 21 संविधान का फेफड़ा है. कोर्ट ने कहा कि हमारे संवैधानिक स्कीम में कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका को अलग-अलग शक्तियां मिली हुई हैं. लेकिन जब लोक प्रशासन या सरकार की तरफ से घोर लापरवाही होती है, कानून का पालन नहीं होता है और वो न्याय तंत्र का एक नया ही चलन बनने लगता है तो उसे ठीक करने के लिए जनहित याचिका दायर की गई है. इस केस में आर्टिकल 21 के तहत जो अधिकार मिला है उसे ठेस पहुंच रही है. इसलिए कोर्ट को स्वत: संज्ञान लेना पड़ा है. कोर्ट की मुख्य चिन्ता है कि मौलिक अधिकार पर हो रहे हमले को रोका जाए. हमारा स्वत: संज्ञान लेना सही है.
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तो चीफ जस्टिस गोविन्द माथुर और जस्टिस रमेश सिन्हा ने साफ कह दिया कि 50 लोगों के बैनर लगा कर यूपी सरकार ने मौलिक अधिकारों का और आर्टिकल 21 के तहत मिले जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन किया है. कोर्ट ने कहा कि बैनर लगाकर प्रशासन ने शर्मनाक रूप से निजी जानकारी को चित्रित किया है. सरकारी एजेंसी ने अलोकतांत्रिक तरीके से काम किया है. कोर्ट ने यह भी कहा कि सरकारी पक्ष के इस बात में दम नहीं है कि जिनकी तस्वीरें बैनर पर लगी हैं उन्होंने हर्जाने के आदेशों को चुनौती दी है और फिर इस याचिका की ज़रूरत नहीं है. क्या यह सामान्य टिप्पणी है कि जिस आदेश का बचाव सरकार कर रही थी उस आदेश का कोई कानूनी प्रावधान नहीं है?
यही तो कहा है इलाहाबाद हाईकोर्ट ने. कोर्ट ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट के 2009 के आदेश के तहत हर्जाना वसूले की प्रक्रिया शुरू हो सकती है लेकिन वह आदेश राज्य को कत्तई आज़ादी नहीं देता है कि किसी की निजता में प्रवेश करे. उसका अतिक्रमण करे.
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कोड ऑफ क्रिमिनल प्रोसिजर 1973 के अनुसार सिर्फ कोर्ट के पास यह शक्ति है कि वह उस व्यक्ति के खिलाफ प्रकाशन का आदेश जारी करे जो वारंट का पालन नहीं कर रहा है. इसके अलावा कोई शक्ति या अधिकार नहीं है जिसके तहत किसी की व्यक्तिगत जानकारी प्रकाशित की जा सके. अगर कोई न्याय से भाग रहा है सिर्फ उसी स्थिति में तस्वीर प्रकाशित की जा सकती है.
हमने कोर्ट के आदेशों का शब्दश: अनुवाद नहीं किया है. भावार्थ पेश किया है. मगर इलाहाबाद हाइकोर्ट के इस फैसले को सिर्फ इस हेडलाइन में नहीं समेटा जा सकता कि बैनर हटाने के आदेश दिए गए हैं. बल्कि हटाने के आदेश से पहले कोर्ट ने जो कहा है वो काफी महत्वपूर्ण है. यूपी सरकार अपने आदेश के पक्ष में कोई कानूनी प्रावधान नहीं दिखा सकी. कोर्ट ने साफ-साफ कहा कि इस आदेश से पता चलता है कि सरकार कुछ खास लोगों को निशाना बनाना चाहती है. इन बैनरों को 16 मार्च से पहले हटा देना होगा.
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क्या 11 लोगों की पदयात्रा करने से राज्य की शांति व्यवस्था को ख़तरा पहुंच सकता है? 2 फरवरी को यूपी के चौरीचौरा से 6 नौजवानों ने दिल्ली के लिए पदयात्रा शुरू की थी. इनकी संख्या बढ़कर 10 हो गई. ये नौजवान रास्ते में नागरिकता कानून की कमियों के बारे में बताते चल रहे थे. लेकिन 11 फरवरी को गाज़ीपुर में गिरफ्तार कर लिया गया. 6 दिनों बाद 16 फरवरी बिना शर्त रिहा कर दिया गया. 24 फरवरी से इन सत्याग्रियों ने फिर से अपनी पदयात्रा शुरू कर दी. पुराने पदयात्रियों में से 3 ही नई यात्रा में बचे रहे बाकी नए जुड़े. इस बार पदयात्रियों की संख्या 20 हो गई. 5 मार्च को इनमें से 11 सत्याग्रियों को गिरफ्तार कर फतेहपुर जेल में बंद कर दिया गया है. इन सभी ने भारतवासियों के नाम एक पत्र लिखा है जिसमें कहा है कि 'हम लोगों ने गाज़ीपुर से 600 किसी यात्रा तय की है. 5 मार्च की रात इन्हें पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया. इनका दावा है कि पुलिस ने कहा कि फतेहपुर में अपना कार्यक्रम न करें. तो सत्याग्रही नहीं माने. सत्याग्रही सर्वधर्म प्रार्थना करना चाहते थे और इससे किसी भी तरीके से शांति भंग नहीं होती है. इस पर उन्हें गिरफ्तार कर हुसैनगंज थाना लाया गया. इनसे शर्त रखी गई है कि वे माफीनामे पर हस्ताक्षर करें. जिसमें ये लिखा है कि हमें शांतिभंग के आरोप में गिरप्तार करिया गया है. वचन देते हैं कि आगे शांतिभंग नहीं करेंगे. सत्याग्रहियों ने यह शर्त मानने से इंकार कर दिया. कहा कि गांधी की बात करना, अमन और भाईचारे की बात करना, अंहिसा के रास्ते पर चलना गुनाह नहीं है. हम गिरफ्तार होने के डर से शर्त कबूल नहीं करेंगे. हम प्रशासन की कानूनी यातनाओं को स्वीकार करने के लिए तैयार हैं. आज के दौर में यही सविनय अवज्ञा है. छात्रों ने अपना नाम आशुतोष राय, मनीष शर्मा, नीरज राय, राजविंद तिवारी, विवेक मिश्र, प्रभात कुमार चंदवंशी, जीतेश मिश्रा, प्रियेश पांडे लिखा है. इनमें से एक को स्वास्थ्य कारणों से रिहा कर दिया गया है. गांधी के संकल्पों को लेकर यात्रा करने से भी गिरफ्तारी हो जाती है.'
कच्चे तेल की अंतरराष्ट्रीय कीमतों में 30 प्रतिशत से भी अधिक की गिरावट आ गई. 1991 में हुए खाड़ी युद्ध के बाद कच्चे तेल की कीमतें गिरी हैं. दूसरी तरफ कोरोना वायरस के कारण तेल की मांग में भारी गिरावट आई है क्योंकि सामूहिक गतिविधियां बंद हैं. चीन में ही फैक्ट्रियां बंद हो गईं. तेल की मांग में आ रही कमी को देखते हुए आर्गेनाइज़ेशन ऑफ दि पेट्रोलियम एक्सपोर्टिंग कंट्रीज़ ओपेक ने अपने सहयोगी देशों के सामने प्रस्ताव रखा कि तेल के उत्पादन में कमी की जाए. इस प्रस्ताव को रूस ने मानने से इंकार कर दिया है. मीडिया रिपोर्ट के अनुसार रूस की आपत्ति इस बात को लेकर है कि
अमरीका की शेल कंपनियां कभी अपना उत्पादन कम नहीं करती हैं. इससे हमें नुकसान होंगा मगर शेल कंपनियां उत्पादन करती रहेंगी. अमरीकी प्रतिबंध के कारण साइबेरिया तेल कुओं और जर्मनी के बीच पाइपलाइन का काम पूरा नहीं हो पा रहा है. इन कारणों से रूस ओपेक के प्रस्ताव से अलग हो गया.
अमरीका की शेल कंपनियां कभी अपना उत्पादन कम नहीं करती हैं. इससे हमें नुकसान होंगा मगर शेल कंपनियां उत्पादन करती रहेंगी. अमरीकी प्रतिबंध के कारण साइबेरिया तेल कुओं और जर्मनी के बीच पाइपलाइन का काम पूरा नहीं हो पा रहा है. इन कारणों से रूस ओपेक के प्रस्ताव से अलग हो गया.
इससे यह हुआ कि 2017 से तेल के उत्पादन और कीमतों को स्थिर रखने की ओपेक और सहयोगी देशों की व्यवस्था ध्वस्त हो गई. सऊदी अरब और रूस आमने सामने हो गए हैं. सऊदी अरब में भी शाही तख्तापलट की कोशिशों और गिरफ्तारी की खबरों ने भी उथल पुथल मचा दी. हमें ध्यान रखना चाहिए कि मध्य पूर्व की तेल कंपनियों में काम कर रहे भारतीयों की कमाई का बड़ा हिस्सा भारत में आता है. अगर वहां के मार्केट में मंदी आई तो उसका असर भारत पर भी पड़ेगा. ताश के पत्ते की तरह दुनिया के बाज़ार ढहे जा रहे हैं. दुनिया की अर्थव्यवस्था अनिश्चितता के दौर से गुज़र रही है. तेल के इस संग्राम के कारण यह और बढ़ गई है जिसका असर शेयर बाज़ारों पर भी दिखा.
जापान, फिलिपिन्स, सिंगापुर, इंडोनेशिया के शेयर बाज़ार 20 प्रतिशत से अधिक गिर गए. अमरीका के तीनों इंडेक्स को खुलते ही 15 मिनट के लिए रोका गया. उसके बाद जब कारोबार शुरू हुआ तो शेयरों का गिरना जारी रही. बाद में कुछ संभला.
कहा जाने लगा है कि अमरीकी अर्थव्यस्था लंबे समय के लिए सुस्ती में जा सकती है. अमरीकी सरकार ट्रेज़री बिल और बान्ड बेचती है. इसे काफी सुरक्षित निवेश माना जाता है. लेकिन अब इसकी भी गारंटी नहीं है. इतिहास में पहली बार होगा जब ट्रेज़री बिल का रिटर्न 1 प्रतिशत से भी कम होगा. भारत के शेयर बाज़ारों में भी गिरावट ने धड़कनें बढ़ा दी हैं. सेंसेक्स और निफ्टी में 9 मार्च को आई गिरावट ऐतिहासिक कही जा रही है. इतिहास में एक दिन में इतनी गिरावट कभी नहीं देखी गई. सुरक्षित माने जाने वाले कई शेयर धाराशायी हो गए. लाइव मिंट के अनुसार टाटा कंस्लटेंसी सर्विसेज लिमिटेड के शेयरों में 7 प्रतिशत की गिरावट आ गई. रिलायंस इंडस्ट्री लिमिटेड के शेयरों के दाम 12 प्रतिशत गिर गए.
9 मार्च को सेंसेक्स सुबह 2300 अंक नीचे गिर गया. मगर बाज़ार बंद होने पर गिरावट 1942 अंक पर आ गई. सेंसेक्स 35,635 अंक पर जाकर बंद हुआ. शेयर बाज़ारो में निवेशकों के करीब सात लाख करोड़ हवा हो गए. भारतीय रुपया एक डालर के मुकाबले 74 पर आ गया. लाइव मिंट ने लिखा है कि विदेशी निवेशकों ने भी भारतीय बाज़ारों में अपनी हिस्सेदारी बेचनी शुरू कर दी. विदेशी संस्थानिक निवेशकों ने इस महीने की 9 मार्च तक 10,000 करोड़ की हिस्सेदारी बेच दी है.
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