कोरोना संकट: लॉकडाउन के दौरान लोगों की तरफ़ बढ़ते मदद के ये हाथ
"मैं साफ़-सुथरी रहती हूँ. बराबर अपने हाथ धोती रहती हूँ और मास्क पहनकर साइकिल से कहीं भी आया-जाया करती हूँ."
इन डिसक्लेमर्स के साथ ऐश्वर्या सुब्रमण्यम ने 20 मार्च को ट्विटर पर पोस्ट डाली कि वह दूसरों की मदद करना चाहती है.
उन्होंने लिखा कि अगर किसी के बुज़ुर्ग माता-पिता बेंगलुरु में रह रहे हैं तो वह उनका हालचाल लेने जा सकती हैं.
यह पोस्ट वायरल हो गई और उनके पास इस तरह के अनुरोधों की बाढ़ सी आ गई.
किसी ने उन्हें केयरमॉन्गर्स के बारे में बताया. यह उनके ही शहर की एक महिला की पहल थी.
एक दिन बाद ऐश्वर्या ने चार रोटियां और दही-चने की सब्जी बनाई. उन्होंने इस खाने को पैक किया, मास्क पहना और चार किलोमीटर दूर अस्पताल जा पहुंचीं.
उन्होंने यह खाना एक शख़्स को दिया जिसने कॉल कर कहा था कि उनके पास खाना नहीं है.
ऐश्वर्या ने बाद में वॉलंटियर ग्रुप पर लिखा कि इस छोटे से अच्छे काम के ज़रिए उन्हें अब काफ़ी कम अकेलापन महसूस हो रहा है.
32 साल की ऐश्वर्या की मां चेन्नई में रहती हैं और वो 60 साल की हैं. उन्हें लगता है कि जिस तरह उन्हें अपनी मां की फ़िक्र हो रही है उसी तरह दूसरों को भी अपने माता-पिता की फ़िक्र सता रही होगी.
वह कहती हैं, "मैं सोचती हूं कि अगर मुझे वायरस लग गया तो मैं रिकवर कर जाउंगी, लेकिन जो लोग बुजुर्ग हैं उनके लिए ज़्यादा मुश्किल होगी. इसी वजह से मैं यह कर रही हूँ."
वह एक वॉलंटियर ग्रुप 'केयरमॉन्गर्स' का हिस्सा हैं. बेंगलुरु की मार्केटिंग प्रोफ़ेशनल महिता नागराज ने भारत में 19 मार्च को इसकी शुरुआत की है. अब इसमें 300 वॉलंटियर हैं. उन्होंने कर्नाटक सरकार से मांग की है कि उन्हें घर में क़ैद लोगों को ज़रूरी सामान मुहैया कराने की इजाज़त दी जाए.
वह कहती हैं, "जब बेंगलुरु में सोशल डिस्टेंसिंग का प्रचार शुरू हुआ तो मेरे दो-तीन दोस्तों ने मुझसे कहा कि वे चाहते हैं कि मैं उनके पेरेंट्स का हालचाल ले आऊं और ज़रूरी चीज़ें उन तक पहुंचा आऊं."
उन्होंने इस बारे में सोशल मीडिया पर पोस्ट डाली और इस पर कई लोगों ने रेस्पॉन्स दिया. तभी उन्होंने केयरमॉन्गरिंग के बारे में सुना. फिर उन्होंने यह मुहिम शुरू की.
सोशल आइसोलेशन और सोशल डिस्टेंसिंग के दौर में वॉलंटियर्स भरोसा खड़ा कर रहे हैं, लोगों में सहयोग की भावना पैदा कर रहे हैं और नए रिश्ते बना रहे हैं.
स्केयरमॉन्गरिंग के विपरीत शब्द के तौर पर गढ़ा गया यह शब्द अभी किसी डिक्शनरी में मौजूद नहीं है, लेकिन यह डर और बेचैनी के इस माहौल में एक मुहिम बन गया है.
हेल्पलाइन सेट करने के 20 घंटों के भीतर ही नागराज के पास कॉल्स की बाढ़ आ गई. सार्वजनिक तौर पर मदद की गुहार लगाना मुश्किल भरा होगा, ऐसे में उन्होंने हेल्पलाइन नंबर शुरू किया. पहले 24 घंटे में उनके पास 363 कॉल्स आईं.
अब उन्होंने बेहतर तरीक़े से कोऑर्डिनेट करने के लिए वॉट्सऐप ग्रुप बना लिया है. वे देर रात तक काम करती हैं और देखती हैं कि कहीं किसी को मदद की ज़रूरत तो नहीं है.
उनके पास हर तरह की कॉल्स आती हैं. नागराज कहती हैं कि हैदराबाद के बाहरी इलाक़े में एक बेहद वृद्ध महिला ने इस ग्रुप से संपर्क किया क्योंकि उन्हें दवाओं की ज़रूरत थी. अब वह दिन में पांच दफ़ा फ़ोन करके हैलो बोलती हैं और दोस्ताना आवाज़ सुनती हैं.
नागराज एक ट्रेंड साइकोलॉजिस्ट हैं और जानती हैं कि इस महामारी में मेंटल हेल्थ को होने वाला नुक़सान बेहद बड़ा होगा. अब वॉलंटियर्स अकेले रह रहे लोगों से बात करते हैं और उन्हें काउंसलिंग देते हैं.
लेकिन, उनके पास अजीबोगरीब कॉल्स भी आती हैं. कोई स्विगी से ऑर्डर भिजवाने की मांग करता है तो कोई घर पर पित्ज़ा भिजवाने के लिए कहता है.
कई बार वॉलंटियर्स को चेकपॉइंट्स पर मुश्किलें झेलनी पड़ती हैं. लेकिन, वे धैर्य से काम लेते हैं. रोमियो अल्फा जयपुर में 100 बच्चों वाले एक अनाथालय में राशन पहुंचाने में सफल रहे.
वह नौ अनुरोधों में से छह को पूरा कर चुके हैं. यहां तक कि एक परिवार में वह पेट फूड (पालतू जानवर का खाना) भी डिलीवर करके आए हैं.
सुब्रमण्यम जैसे बहुत से लोग हैं जो कोरोना वायरस से पैदा हुए संकट की घड़ी में बाहर निकल रहे हैं और ग़रीब, बीमार, बुजुर्ग और दूसरे ज़रूरतमंदों की मदद करने की कोशिश में लगे हुए हैं.
बुधवार को दिल्ली के रहने वाले किसी शख्स ने चावल, आटा, नमक और दूसरी चीजों के साथ तस्वीर डाल कर पोस्ट की है और एक छोटी लड़की यह कहती दिख रही है कि महीने भर का 'राशन' पाने वाला पहला परिवार.
पिछले शनिवार को विवेक वत्स ने सोशल मीडिया पर अपील की है कि जो लोग इस लॉकडाउन की वजह से अपनी रोज़ी-रोटी नहीं कमा पा रहे हैं, उनकी मदद करें.
उन्होंने दोस्तों और दूसरे लोगों से अपील की कि वे अपने पड़ोस में रहने वाले दिहाड़ी मज़दूरों की महीने भर का राशन देकर लोगों की मदद करें.
उन्होंने एक छोटा सा फंड बनाया है जिसमें लोग अपना योगदान दे सकते हैं. वो बताते हैं कि यह कोई पूरे शहर के स्तर पर किया जाने वाला प्रयास नहीं है बल्कि अपने पड़ोस में किया जाने वाला छोटा सा प्रयास है.
उन्होंने बताया कि वो मयूर विहार के नज़दीक चिल्ला गांव में इसे कर रहे हैं. उनका मानना है कि इससे भले ही कोई बड़े पैमाने पर समस्याओं से निपटने में मदद न मिले लेकिन कुछ ज़रूरतमंदों की मदद ज़रूर हो सकती है.
मयूर विहार में रहने वाले विवेक वत्स कहते हैं कि लोग सोशल मीडिया पर इसके बारे में बता सकते हैं. इससे लोगों में कुछ उम्मीद बंधेगी. क्योंकि लॉकडाउन के दौरान थोड़ी सी भी मदद मायने रखती है.
विवेक वत्स बताते हैं कि उनकी कार किसी स्टोर रूम की तरह हो चुकी है इन दिनों. वो कहते हैं कि प्रधानमंत्री की ओर से जनता कर्फ्यू की घोषणा के बाद उन्हें लग गया था कि अब लॉकडाउन की घोषणा होने वाली है और इससे सबसे ज्यादा दिहाड़ी मज़दूर प्रभावित होंगे.
उनके पास पिछले कुछ महीने से संकट की घड़ी में संसाधन उपलब्ध कराने का अनुभव है.
जब उत्तर-पूर्वी दिल्ली में हिंसा भड़की थी तब कई लोगों की जान गई थीं और कई बेघर हो गए थे. उस वक्त भी उन्होंने इस तरह से ही सोशल मीडिया पर पोस्ट डाल कर लोगों तक मदद पहुंचाई थी. उस वक्त लोगों ने जिस उत्साह के साथ उनके इस क़दम को सराहा था, उसी ने उन्हें दोबारा इस तरह की पहल का हौसला दिया है.
पहले दिन उन्हें सिर्फ़ 6,000 रुपए इकट्ठा करने में कामयाबी मिली लेकिन अचानक से रातोंरात उन्हें अप्रत्याशित रूप से मदद मिलनी शुरू हो गई.
हांगकांग से एक आदमी ने इस्टांग्राम पेज बनाने की बात कही तो दूसरे कई लोगों ने उन्हें पैसे देने की पेशकश की. उन्हें तुरंत 30000 रुपए की मदद मिल गई जिससे राशन ख़रीद कर बांटने की अनुमति भी स्थानीय पुलिस से मिल गई.
वो फ़ोन पर हंसते हुए बताते हैं, "बहुत बेहतर चीज़ें हो रही हैं. पिछली बार जब मैंने कोशिश की तो हिंसा से पीड़ित लोगों के लिए सवा लाख रुपए जमा करने में कामयाबी मिली. मैं ड्राइवर बनकर चीजें ख़रीदता और उसे ज़रूरतमंद लोगों तक पहुंचाता. यह एक शानदार अनुभव था. मैं इस बार इससे भी कहीं ज़्यादा की उम्मीद कर रहा हूँ."
उनके घर काम करने वाली ने चिल्ला गांव के अपने पड़ोस में पांच ऐसे घरों की तलाश की जिन्हें मदद की ज़रूरत थी.
विवेक वत्स बताते हैं, "इनमें से कई दिहाड़ी मज़दूरों के पास कोई दस्तावेज़ नहीं है और ना ही उन्हें यह पता है कि उन्हें कहां जाना है, किससे मदद मांगनी है."
वत्स इस बात को लेकर अचरज में हैं कि कैसे फेसबुक पोस्ट शेयर करने के बाद लोग उन तक पहुँच रहे हैं. उनके दोस्त उनकी पोस्ट फेसबुक पर शेयर कर रहे हैं.
वो कहते हैं कि वो अपना फेसबुक अकाउंट सिर्फ़ लोगों को जन्मदिन की शुभकामनाएँ देने के लिए इस्तेमाल करते थे.
गुरुग्राम की सेक्टर 5 की रहने वाली मोना के लिए सबसे बड़ी चुनौती है कि लॉकडाउन की वजह से ठप पड़ गए काम के बाद अब अपने नौ लोगों के परिवार का पेट वो कैसे भरेंगी.
वो और उनके पति दोनों मिलकर कपड़े पर आयरन करने का काम करते हैं और महीने का 12000 रुपए कमा पाती है, जिससे उनका घर चलता है.
पिछले महीने उनके देवर की बीमारी से मौत हो गई. अपने देवर के इलाज पर हुए ख़र्च की वजह से उनके ऊपर क़र्ज़ हो गया है, जो वो अब भी चुका रही है.
जब विवेक वत्स ने उन्हें 10 किलोग्राम आटा, पांच किलोग्राम चावल, नहाने और कपड़े धोने के लिए साबुन और खाना पकाने के लिए तेल-मसाले दिए तब उन्होंने राहत की सांस ली.
"मैंने अपने परिवार के लिए चावल-दाल बनाया है. हमारे देवर का परिवार भी हमारे यहाँ ही रह रहा है. कोरोना वायरस के डर से काम धंधा चौपट होने के बाद इस मदद से बहुत राहत मिली है."
कोरोना वायरस ऐसे वक्त में आया है जबकि इतिहास में पहली बार इतने ज्यादा लोगों को अकेले रहना पड़ रहा है. इस महामारी ने लोगों को सामाजिक दूरी बनाने के लिए मजबूर कर दिया है.
मुंबई में मेंटल हेल्थ की प्रोजेक्ट कोऑर्डिनेटर मालविका फ़र्नांडिस ऐसे वक्त में लोगों के रुटीन की अहमियत पर ज़ोर देती हैं.
प्रोजेक्ट मुंबई के कोरोना के दौर में लोगों की मदद करने के प्रोग्राम में होम-क्वारंटीन में या अकेले रह रहे उम्रदराज़ नागरिकों दवाइयों की होम डिलीवरी करना भी शामिल है.
अक्सर वॉलंटियर्स सीनियर सिटीजंस को घर का बना खाना भी मुहैया कराते हैं. इनकी टैगलाइन है - मुंबई के लिए कुछ भी करेगा.
फ़र्नांडिस के पास 50 ट्रेंड काउंसलर्स हैं जो स्वैच्छिक रूप से इस प्रोग्राम से जुड़े हैं. ये काउंसलर्स महामारी की वजह से एंग्जाइटी और डिप्रेशन से जूझ रहे लोगों की कॉल्स लेते हैं.
दो तरह की कॉल्स हमारे पास आती हैं. एक तो 25-40 साल के युवाओं की कॉल्स आती हैं जो अपनी नौकरियों और मंदी को लेकर चिंतित हैं.
फ़र्नांडिस कहती हैं, "हम उनके डर को समझते हैं और उनको एक बार में एक दिन के बारे में ही सोचने के लिए कहते हैं."
वह बताती हैं, "हम उन्हें एक रुटीन पर चलने के लिए कहते हैं. सवाल अस्तित्व के संकट से जुड़े हुए होते हैं. वे पूछते हैं कि क्या दुनिया का अंत होने वाला है. या क्या वे कभी अपने घर से बाहर निकल पाएंगे या नहीं."
फ़र्नांडिस बताती हैं, "कॉग्निटिव बिहेवियर थेरेपी से मदद मिलती है. हम उनसे उन तथ्यों की मांग करते हैं जिनकी वजह से उन्हें लगता है कि दुनिया ख़त्म होने वाली है."
वह कहती हैं, "दूसरा समूह उम्रदराज़ लोगों का है जो पूछते हैं कि जीवन और अकेलेपन का क्या मकसद है. हम उन्हें ख़ुद को व्यस्त रखने के लिए कहते हैं. हम उन्हें बताते हैं कि अकेलापन शायद कोई नेगेटिव चीज़ नहीं है."
इस मुहिम के तहत क्वारंटीन में रह रहे या उम्रदराज़ लोगों को 500 रुपए और 1,000 रुपए की ग्रोसरी घर पर ही मुहैया कराना भी शामिल है.
पूरे शहर में 150 से ज़्यादा वॉलंटियर्स के साथ प्रोजेक्ट मुंबई की कोशिश ग़रीबों तक पहुंचने की भी है. साथ ही एनजीओ फंड जुटाना चाहता है ताकि इस तबके की मदद की जा सके.
बिहार के नालंदा में रहने वाले सौरभ राज सोशल सेक्टर में काम करते हैं. उनके कामकाज का दायरा लोकतांत्रिक और राजनीतिक रिफ़ॉर्म्स के इर्दगिर्द है.
सौरभ बिहार में डॉक्टरों को पीपीई किट्स मुहैया कराने के लिए फंड्स जुटाने की कोशिश कर रहे हैं.
पीएमसीएच के कुछ मेडिकल स्टूडेंट्स की मदद से सुदिशी शुभी और अंकित राज ने डॉक्टरों और हेल्थ प्रोफ़ेशनल्स के लिए फंड जुटाने का फ़ैसला किया.
वह बताते हैं, "बिहार में हेल्थ प्रोफ़ेशनल्स के पास पीपीई, बेसिक सेफ्टी इक्विमेंट्स और दूसरी चीज़ें नहीं हैं. हमने फ़ैसला किया है कि हम इन ज़िंदगियां बचाने वालों की मदद करेंगे. हमने पीएमसीएच के लिए एक ऑनलाइन क्राउड फंडिंग कैंपेन शुरू किया है."
इसमें 5 लोगों की एक टीम है. इस टीम में सुदिशी और अंकित राज (पीएमसीएच छात्र), शादान आरफ़ी, चंद्र भूषण और सौरभ राज (गांधी फेलो) शामिल हैं. राज पिछले 13 दिन होम आइसोलेशन में रहे और उन्होंने बिहार में डॉक्टरों के लिए मूलभूत सुविधाओं की कमी के बारे में पढ़ा.
इन्होंने अपनी क्राउडफंडिंग मुहिम को 23 मार्च को शुरू किया. भरोसे की कमी जैसे मसलों का सामना इन्हें करना पड़ा. पहले आठ घंटों में इन्हें केवल 8,000 रुपए मिल पाए.
इन्होंने इस पैसे से सैनिटाइजर्स ख़रीदे और इस चीज़ को अपडेट किया. अचानक से अगले 12 घंटे में ये एक लाख से ज्यादा रुपए जुटाने में सफल रहे.
अब तक ये लोग 2.60 लाख रुपए जुटा चुके हैं. 1,000 से अधिक लोगों ने इन्हें पैसे दिए हैं और ये 50,000 रुपए का सामान भेज चुके हैं.
वह बताते हैं कि लॉकडाउन के चलते उन्हें सप्लाई चेन की दिक्कतों का सामना करना पड़ता है.
सोशल मीडिया पर आप लोगों के ज़रूरतमंदों की मदद करने वाली कई कहानियां सुनते होंगे. आपने सुना होगा कि कोरोना के चलते किस तरह बड़े शहरों में रह रहे प्रवासी मज़दूर सैकड़ों किलोमीटर दूर अपने घरों के लिए पैदल ही चल पड़े.
कई लोग इन मज़दूरों को खाना-पानी मुहैया करा रहे हैं. मदद करने वाले धैर्य के साथ चेक पॉइंट्स पर खड़े रहते हैं.
लोग ग्रोसरी स्टोर्स पर लंबे इंतज़ार के बाद सामान ख़रीदते हैं ताकि इससे ज़रूरतमंदों को दिया जा सके.
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