दुष्यंत कुमार ने लिखा है - न हो कमीज तो पांव से पेट ढक लेंगें ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिए
कोरोना लॉकडाउन: किन 'जुगाड़ों' से बिहार पहुंच रहे हैं मज़दूर
"भूख से मरना है तो दिल्ली में क्यों मरें? यहां कुटुम्ब (परिवार) के पास मरेंगें."
बीबीसी से फ़ोन पर बात करते हुए राजकुमार राम की कांपती हुई आवाज़ में उनके आंसू घुले हुए थे. राजकुमार राम, सहरसा के नवहट्टा प्रखंड की केचुली पंचायत के हैं.
वो दिल्ली की चांदनी चौक की इलेक्ट्रॉनिक दुकान में बीते कई सालों से मज़दूरी कर रहे हैं.
लेकिन कोरोना संकट में जब लॉकडाउन हुआ तो वो जुगाड़ गाड़ी (ऐसा ठेला जिसमें इंजन लगा रहता है) से वापस चले आए.
उन्हें सहरसा वापस आने में पांच दिन लग गए हैं, लेकिन अभी उन्हें अपने ही गांव के अंदर घुसने के लिए एक और लड़ाई लड़नी है.
2500 का तेल, बिस्कुट-पानी पर जीवन
दिल्ली से सहरसा की दूरी तकरीबन 1200 किलोमीटर है. दिल्ली में शास्त्री पार्क के पास एक किराये के कमरे में रहने वाले राजकुमार राम और उनके 4 साथी मज़दूर रामचन्द्र यादव, सत्यम कुमार राम, राम यादव, धनिक लाल यादव दिल्ली के शास्त्री पार्क के पास एक किराए के कमरे में रहते हैं.
लॉकडाउन होने पर इन लोगों ने राम यादव के जुगाड़ ठेले में 2500 रुपये का पेट्रोल भराया और 22 मार्च को दिल्ली से निकल पड़े. ये सभी लोग 27 मार्च की दोपहर सहरसा पहुंचे हैं.
पीले-काले बैग से लदी जुगाड़ गाड़ी को इन लोगों ने बारी-बारी से चलाया और बिस्कुट-पानी के सहारे ही पूरे पांच दिन गुज़ारे.
सहरसा के सदर अस्पताल में अपनी जांच के लिए मौजूद नवहट्टा प्रखंड की हाटी पंचायत के रामचन्द्र यादव ने फ़ोन पर बताया, "रास्ते में कई जगह प्रशासन ने पूछताछ की. अब सहरसा पहुंचे हैं तो यहां अस्पताल आए हैं. जांच करा लेने से सबके लिए फ़ायदा रहेगा. डॉक्टर साहब सबके साथ 14 दिन तक बैठने उठने को मना किए हैं. बाकी गांव वापस जाएंगे तो पता नहीं घुसने देगा या नहीं."
गोरखपुर से पैदल पहुंचे बेतिया
जहां दिल्ली से आए इन मज़दूरों ने जुगाड़ गाड़ी का जुगाड़ लगाया वहीं गोरखपुर में काम करने वाले बेतिया के दर्जनों मज़दूर पैदल ही अपने गांव पहुंच गए.
गोरखपुर से नरकटियागंज जाने वाली रेल पटरी के किनारे चलते-चलते इन मजदूरों ने चूड़ा गुड़ के सहारे 130 किलोमीटर की यात्रा कर ली.
पैदल क्यों चले, इस सवाल पर पैदल आए मज़दूर बाबू लाल महतो खीझते हैं.
वो कहते है, "क्या करते ? जिस मकान में लेबर थे, उसी मे रहते थे, लेकिन बीमारी आई तो मकान मालिक ने, काम और मकान दोनों से भगा दिया. बोला खर्ची नहीं है, तो तू निकल. नया डेरा (किराए का घर) मिलता नहीं, काम मिलता नहीं, खाना मिलता नहीं तो घर लौट आए. कोई ट्रेन नहीं था तो पैदल आ गए. सरकार ही ऐसा है तो क्या होगा."
इन्हीं दर्जन भर मज़दूरों में तीन भाई बालेश्वर कुमार, राम कुमार और हरिराम प्रजापति हैं.
पटना से भी लोग जा रहे पैदल, लौट रहे गांव
ये नरकटियागंज के पास अवसानपुर गांव के हैं.
बमुश्किल 20 साल के बालेश्वर कुमार कहते हैं, "बिस्कुट खाकर चले आए है. रात सिसवा बाज़ार में रुके थे, दो घंटे सोए और फिर चल दिए. अब वापस गांव तो पहुंच जाएगें लेकिन परिवार कैसे चलेगा? तीनों भाई कमाते थे तो घर चलता था. और अभी भी सुनते हैं सरकार घर नहीं जाने देगी, अपने पास रखेगी."
ऐसा नहीं है कि सिर्फ़ दूसरे राज्यों से ही लोग वापस लौट रहे हैं, बल्कि दुनिया बनाने वाले इन मेहनतकश हाथों को हर किसी ने बेगाना कर दिया है.
पटना के कंकड़बाग में मज़दूरी करने वाले मोहम्मद जसीम अपने पांच साथियों के साथ अपने गांव पैदल ही वापस लौट आए हैं.
ये सभी मज़दूर 25 मार्च की सुबह पटना से सिमरी बख़्तियारपुर थाने के चकमक्का गांव के लिए निकले थे.
दो सौ किलोमीटर का सफ़र
कंधे पर बैग लादे, घिसी चप्पल और पुरानी पड़ी बिस्लरी की बोतल में पानी लिए इन 18 से 22 साल के नौजवानों ने तकरीबन 200 किलोमीटर का सफ़र पैदल तय किया था.
27 मार्च को जब ये सिमरी बख़्तियारपुर के दुर्गास्थान से गुज़रे तो स्थानीय लोगों ने इनसे पूछताछ की.
पूछताछ में मालूम चला कि पूरे रास्ते इन्हें दो जगह पुलिस ने रोका और पुलिस ने ही खाने को दिया.
बीबीसी ने फ़ोन पर मोहम्मद जसीम से स्थानीय टीवी पत्रकार शौकत के ज़रिए बात की.
मोहम्मद जसीम ने बताया, "कोई गाड़ी नहीं मिला तो चल दिए. खुसरूपुर में पुलिस वालों ने कुछ खाने को दिया फिर खगड़िया होते हुए यहां पहुंच गए."
मालिक ने पैसे नहीं दिए, पटना आकर फंसे
51 साल के मोहम्मद फिरोज़ बहुत बेचैन हैं. पटना के कंकड़बाग थाने के प्रभारी मनोरंजन भारती ने 25 मार्च को उसे रात में सड़क पर लड़खड़ा कर चलते हुए देखा.
मालूम करने पर पता चला कि फ़िरोज 21 मार्च को पुणे से दानापुर स्टेशन पहुंचा था.
लेकिन देवघर (झारखंड) जाने के लिए गाड़ी या यात्रा का कोई साधन नहीं होने के चलते वो चार दिन से भूखा प्यासा पटना में ही भटक रहा था.
बीबीसी से फ़ोन पर बात करते हुए तीन बच्चों के पिता फ़िरोज़ ने बताया कि वो पुणे में 8,000 रुपये के मासिक वेतन पर काम करता है.
लेकिन कोरोना का संकट आया तो मालिक ने बिना वेतन दिए भगा दिया.
वो बताते हैं, "हम मस्जिद में पनाह मांगने गए थे लेकिन उन्होंने स्टेशन पर रहने को कह कर भगा दिया. स्टेशन पर भी नहीं रहने दिया. घर में कमाने वाले सिर्फ़ हम हैं. ज्यादा दिन यहां रहे तो बीबी बच्चे भूखे मर जाएगें. यहां तो हमको थानेदार साहब अभी खाने को दे रहे है."
दुष्यंत कुमार ने लिखा है -
न हो कमीज तो पांव से पेट ढक लेंगें
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिए
इक्कसवीं सदी में मनुष्य के आवागमन के लिए सुगम साधन और सरकारी दावों में बुलेट ट्रेन है. लेकिन मज़दूरों के पांव में पड़े हुए छाले और दर्द देने वाली गाठें ये कहने को मजबूर करती हैं - ना हो ट्रेन तो पांव से धरती नाप लेंगें.
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