#Corona Virus और महिलाएं

कोरोना वायरसः क्या पुरुषों के मुक़ाबले महिलाएं ज़्यादा जोख़िम में हैं?

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कोरोना वायरस के फैलने के दौरान क्या महिलाओं की ज़िंदगियों को गंभीरता से लिया जा रहा है? महिलाओं को अस्पतालों में अक्सर ख़राब फिटिंग वाले इक्विपमेंट्स के साथ काम करना पड़ता है जो कि मूलरूप में पुरुषों के लिए बने होते हैं.
घर पर महिलाओं को बड़े-बुज़ुर्गों और बीमार रिश्तेदारों की देखभाल करनी होती है, साथ ही बच्चों की पढ़ाई का भी ध्यान रखना होता है. ऐसे वक्त में जबकि पूरी दुनिया कोविड-19 से जंग लड़ रही है, क्या महिलाएं पुरुषों की तरह ही सुरक्षित हैं या उनके स्वास्थ्य को जोख़िम में डाला जा रहा है?
एक प्रमुख ब्रिटिश राजनेता अंबर रड ने बीबीसी से कहा, "मैं इस बात को लेकर चिंतित हूं कि इस पूरे संकट में महिलाओं की ज़िंदगियों को गंभीरता से नहीं लिया जा रहा है."
जैसे-जैसे कोविड-19 पूरी दुनिया में पैर पसार रहा है, यह सवाल पैदा हो रहा है कि क्या महिलाएं पुरुषों के मुक़ाबले ज़्यादा जोख़िम भरे हालात में जी रही हैं?

क्या महिलाएं फ़ैसले लेने की प्रक्रिया में पूरी तरह से शामिल हैं?

इस बहस में अब एक्टिविस्ट्स और दूसरे सामाजिक संगठन भी जुड़ गए हैं. इनका कहना है कि वे इस बात से परेशान हैं कि बीमार रिश्तेदारों और बूढ़े मां-बाप की देखभाल की ज़्यादातर ज़िम्मेदारी महिलाओं के ऊपर आ गई है.
घरों में क़ैद बच्चों के मनोरंजन और उनकी पढ़ाई की फ़िक्र करना भी महिलाओं के ही ज़िम्मे है. ऐसा उन मामलों में भी है जहां महिलाएं फ़ुल-टाइम नौकरी घर से कर रही हैं.
हॉस्पिटलों और दूसरे स्वास्थ्य केंद्रों में मौजूद महिला स्वास्थ्यकर्मियों का कहना है कि उन्हें अक्सर उनके शरीर पर फ़िट न बैठने वाले इक्विपमेंट्स के साथ काम करना होता है.
ऐसा इस वजह से है क्योंकि इन सामानों को पुरुषों के शरीरों के आकार को दिमाग में रखकर बनाया गया होता है.

महिलाओं की फ़िक्र कौन कर रहा है?

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रड ने कहा, "मैं चाहती हूं कि फ़ैसले लेने की प्रक्रिया में ज़्यादा महिलाओं को शामिल किया जाए."
रड यह देखकर हैरान हैं कि कितनी कम महिलाओं को सरकार की सबसे उच्चस्तरीय बैठकों में हिस्सा लेने का मौका मिल रहा है. उन्होंने ट्वीट किया, "बराबरी का मतलब है बेहतर फ़ैसले करना. संकट के वक्त महिलाओं को दूर मत करिए."
उनके इस ट्वीट के तुरंत बाद सोशल मीडिया पर एक तीखी बहस छिड़ गई. रड ने बीबीसी को बताया, "विविधता का भी मतलब है बेहतर फ़ैसले करना. मेरे अनुभव के हिसाब से केवल महिलाएं ही महिलाओं की ज़िंदगियों से जुड़े हुए मसलों को उठाती हैं."
वह चाहती हैं कि सरकारें महिलाओं को अपने अहम फ़ैसलों में शामिल करें. वह चाहती हैं कि फ़ैसले लेने की प्रक्रिया में महिलाएं होनी चाहिए ताकि घरेलू ज़िंदगी, घरेलू प्रताड़ना, शिक्षा जैसे अहम मसलों को उठाया जा सके.
जोख़िम में महिलाएं
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Image captionकैरोलीन कियार्डो पेरेज़
महिलावादी लेखिका और एक्टिविस्ट कैरोलीन क्रियार्डो-पेरेज़ इस बात से सहमति जताती हैं.
उन्होंने बीबीसी से कहा, "जो कुछ हम यहां देख रहे हैं वह एक ऐसी स्थिति है जिसमें महिलाओं के इस महामारी के जोख़िम में जाने का एक बड़ा ख़तरा पैदा हो गया है. यह ख़तरा शारीरिक और आर्थिक दोनों तरह का है."
पेरेज़ कहती हैं, "किसी भी बीमारी के फैलने पर महिलाओं के इसके सबसे आगे मोर्चे पर होने की संभावना होती है क्योंकि इन महिलाओं में से ज्यादातर नर्सें, क्लीनर्स और बिना वेतन वाली देखभाल करने वाली गृहिणी होती हैं."
उन्होंने 2014 में अफ्रीका में फैले इबोला की मिसाल दी. उन्होंने कहा, "उस वक़्त अफ्रीका में मरने वाले लोगों में 75 फीसदी महिलाएं थीं. ऐसा नहीं था कि यह वायरस कुछ इस तरह का था जो कि महिलाओं को अपना शिकार बनाता था, बल्कि ऐसा इस वजह से था क्योंकि महिलाएं ही बीमार लोगों की देखभाल में सबसे आगे थीं."
पेरेज़ ने कहा, "यह एक बड़ी चिंता है और मैं चिंतित हूं कि जो क़दम उठाए जा रहे हैं उनमें इन चीज़ों का ख्याल नहीं रखा जा रहा है."

वित्तीय रूप से सबसे तगड़ी चोट महिलाओं पर

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क्रियाडो-पेरेज़ के मुताबिक, "और इसके वित्तीय दुष्परिणाम भी हैं."
वह कहती हैं, "सर्विस सेक्टर में महिलाओं के सबसे ज़्यादा नौकरी करने के आसार होते हैं. इसी सेक्टर पर महामारी की सबसे बुरी मार पड़ी है."
वह पूछती हैं, "महिलाओं के असुरक्षित या ज़ीरो-ऑवर कॉन्ट्रैक्ट्स में होने की आशंका ज़्यादा होती है और इनके पास वैधानिक सिक पे होने की कम उम्मीद होती है. हमारे पास ऐसी पॉलिसीज कहां हैं जिनमें इन चीज़ों को हल किया गया हो?"
उनके मुताबिक़, "इतिहास गवाह है कि अगर आप महिलाओं को फ़ैसले लेने की प्रक्रियाओं में शामिल करते हैं तो इन चीज़ों के समाधान निकाले जाने की ज़्यादा उम्मीद होती है."
ब्रिटेन की पार्लियामेंट पर कराई गई एक रिसर्च के मुताबिक, पुरुषों और महिलाओं के फोकस वाले मसलों में अंतर होता है. इस रिसर्च के मुताबिक, पुरुषों का ज़्यादा ज़ोर युद्ध और तुलनाओं पर होता है जबकि महिलाओं का फोकस देखभाल और शिक्षा पर ज़्यादा रहता है.
क्रियाडो-पेरेज़ कहती हैं, "साथ ही, आंकड़े ये भी बताते हैं कि पूरे ऑर्गनाइजेशन फ़ॉर इकनॉमिक कोऑपरेशन एंड डिवेलपमेंट (ओईसीडी) की पार्लियामेंट में जितनी ज़्यादा महिलाएं शामिल होती हैं उतना ही ज़्यादा ख़र्च शिक्षा और सामाजिक देखभाल पर जाता है."

लिंग और मृत्यु दर

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अभी तक के पूरी दुनिया के आंकड़े बता रहे हैं कि कोविड-19 से महिलाओं के मुक़ाबले पुरुषों के मरने की ज़्यादा आशंका है. लेकिन, क्रियाडो-पेरेज़ का कहना है कि लॉन्ग-टर्म में ज़्यादा महिलाएं इससे बुरी तरह से प्रभावित होंगी.
वह कहती हैं, "इबोला के मामले में, महिलाएं शुरुआत में ज़्यादा मरने वालों में नहीं थी. लेकिन, बाद में यह स्थिति बदल गई क्योंकि महिलाओं का इस बीमारी के जोख़िम से ज़्यादा सामना हो रहा था और ऐसी नौकरियों में महिलाओं के होने की ज़्यादा संभावना थी जहां उन्हें इस जोख़िम को बड़े स्तर पर झेलना पड़ रहा था."
क्रियाडो-पेरेज़ के मुताबिक, "अभी भी महिलाएं ज़्यादा जोख़िम भरी नौकरियों में हैं. महिलाएं हॉस्पिटलों में क्लीनर्स और लॉन्ड्री वर्कर्स का काम कर रही हैं जिसमें उन्हें दूसरे लोगों जितनी सुरक्षा नहीं मिल रही है."
साथ ही, नर्सें जो कि मरीज़ों के साथ बेहद नज़दीकी से काम करती हैं, उनके पास उनके चेहरों पर फिट आने वाले पर्सनल प्रोटेक्शन इक्विपमेंट हमेशा नहीं होते हैं.
क्रियाडो-पेरेज़ ने कहा, "एक डॉक्टर ने मुझे बताया कि उनके पास मौजूद सबसे छोटे फ़ेस मास्क पुरुषों के लिए 'साइज स्मॉल' वाले होते हैं, ऐसे में महिलाओं के लिए कोई ऐसा पर्सनल प्रोटेक्शन इक्विपमेंट नहीं होता जो कि वास्तव में उन्हें सुरक्षित रखे."
वह कहती हैं, "मुझे नहीं लगता कि इन चीज़ों के बारे में सरकारों में उच्च स्तर पर कोई चर्चा हो रही है. यह बेहद परेशान करने वाली चीज़ है."

गोरे पुरुष का असर और विविधता की बात

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कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में साइकोलॉजिस्ट और विचारों और फ़ीलिंग्स के व्यवहार पर एक एक्सपर्ट डॉ. सिमोन श्नाल कहती हैं, "महिलाओं में जोख़िम से बचने का ज़्यादा रुझान होता है साथ ही वे पुरुषों के मुक़ाबले गंभीर ख़तरों ज़्यादा देख पाती हैं."
उन्होंने कहा, "रिसर्च से पता चलता है कि फ़ैसले लेने में महिलाओँ और पुरुषों में अंतर होता है. यह चीज़ ख़ासतौर पर अनिश्चितता के वक़्त या जोख़िम वाले माहौल में दिखाई देती है. जब बात निजी नुकसान या ख़तरे की होती है तो महिलाएं इन जोख़िमों को जल्द ही समझ लेती हैं, जबकि पुरुषों के साथ ऐसा नहीं है."
डॉ. श्नाल की रिसर्च में सोशल साइकोलॉजी और कोग्निटिव साइंस की पड़ताल की गई है. वह कहती हैं कि यह चीज़ केवल जेंडर तक सीमित नहीं है, बल्कि इसमें आबादी का भी महत्व होता है.
वह कहती हैं, "मिसाल के तौर पर, कथित 'व्हाइट मेल इफेक्ट' के भी साक्ष्य हैं. महिलाओं और एथनिक माइनॉरिटीज के मुक़ाबले श्वेत पुरुषों में जोख़िम को कमतर आंकने की आदत होती है. ऐसे में वे दूसरों के मुक़ाबले ख़तरों और चुनौतियों को नहीं देख पाते हैं."
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