साफ़ दिख रही है लॉकडाउन से बढ़ी ग़रीबी हालांकि लॉकडाउन की वजह से कितनी ग़रीबी बढ़ी है इसका अभी कोई आंकड़ा नहीं आया है लेकिन बढ़ती आर्थिक दुर्दशा साफ़ दिख रही है. गांव हो या शहर, बढ़ती ग़रीबी से बेहाल दिखने लगे हैं. सीएसडीएस की ओर से कराए गए पिछले डेढ़ दशकों के ( 2005-2019) अध्ययनों के मुताबिक, मुश्किल से दस फ़ीसदी लोगों ने माना कि मौजूदा कमाई से उनकी ज़रूरतें पूरी हो पा रही हैं और वे कुछ बचत भी कर रहे हैं. 18 से 25 फ़ीसदी लोगों ने माना कि उनकी कमाई से उनकी रोज़मर्रा की ज़रूरतें पूरी हो रही हैं. दिक्कतें नहीं झेलनी पड़ रही है लेकिन बचत के नाम पर एक पैसा भी जमा नहीं हो पा रहा है. बड़ी तादाद में यानी लगभग 65 फीसदी लोगों ने माना कि उनकी कमाई से उनकी रोज़मर्रा की ज़रूरतें पूरी नहीं हो रही हैं. उन्हें हर तरह की आर्थिक दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है. कुछ को कम तो कुछ को ज्यादा.
जितनी दिखती है, उससे कहीं गहरी है लॉकडाउन की मार: नज़रिया
भारत के गांवों और शहरों में कामगारों की बहुत बड़ी आबादी है. ये मजदूर ज्यादातर दिहाड़ी पर काम करते हैं. कुछ जगहों पर हर सप्ताह मज़दूरी मिलती है. जो दिहाड़ी मिलती है वह अमूमन काफी कम होती है.
इससे मज़दूरों का गुज़ारा बड़ी मुश्किल से हो पाता है. खाना, रहना और कपड़े का ख़र्च ही पूरा नहीं हो पाता, बचत की बात तो दूर की कौड़ी है.भारत में ज्यादातर मासिक वेतन वाले लोगों के भी लिए बचत करना आसान नहीं है.
लॉकडाउन को लगभग छह सप्ताह हो गए हैं और इस बीच दिहाड़ी मज़दूरों के हालात पर काफी चिंता जताई जा रही है. यह स्वाभाविक ही है क्योंकि लॉकडाउन की वजह से उन्हें काम नहीं मिल रहा है. उनकी कमाई ख़त्म हो गई है.
इसमें शायद ही कोई शक हो कि इन दिहाड़ी मज़दूरों की बड़ी तादाद दयनीय हालत में पहुंच गई है.
आप सोच सकते हैं कि लॉकडाउन के इन दिनों में जब हर महीने वेतन पाने वाले लोगों (चाहे वे निजी क्षेत्र में काम कर रहे हों या सार्वजनिक क्षेत्र में) को भी रोज़मर्रा की ज़रूरतों को पूरी करने के लिए अपनी बचत में हाथ डालना पड़ रहा हो तो इन मज़दूरों पर क्या बीत रही होगी?
लाखों वेतनशुदा लोगों की हालत भी खस्ता
इसमें कोई दो मत नहीं है कि लॉकडाउन के दौरान सबसे ज्यादा आर्थिक और भावनात्मक दिक्कतों का सामना रोज़ कमा कर खाने वाले ये मज़दूर ही कर रहे हैं. लेकिन दिल्ली, मुंबई और सूरत जैसे बड़े शहरों में मौजूद ऐसे मजदूरों की त्रासदी पर बहुत ज़्यादा ज़ोर देने से दूसरे आर्थिक वर्गों के लोगों की दिक्क़तें हमारी आंखों से ओझल हो रही हैं.
यह बात सौ फ़ीसदी सच है कि लॉकडाउन ने सबसे करारी चोट दिहाड़ी मजदूरों पर की है लेकिन देश में वेतनशुदा लाखों कर्मचारियों की स्थिति भी चिंताजनक है. चाहे ये कर्मचारी प्राइवेट सेक्टर में काम कर रहे हों या पब्लिक सेक्टर में.
लोगों की आमदनी और ख़र्चे का अनुपात देखें तो औसतन चार सदस्य वाला एक परिवार चलाने वाले शख़्स की कमाई में बचत करना बेहद मुश्किल है. बेहद कम लोग थोड़ी-बहुत बचत कर पाते हैं. चूंकि निम्न आय वर्ग के ये वेतनशुदा लोग शासन, प्रशासन या कंपनियों के प्रबंधन के सामने संगठित होकर अपनी आवाज़ नहीं उठा पाते हैं इसलिए ये दिखते नहीं है. इनकी दिक्कतें दिखती नहीं हैं.
पीएफ़ की सेविंग्स से पैसा निकालने को मजबूर लोग
लॉकडाउन की वजह से लोगों की माली हालत इस कदर ख़राब हो गई है कि कई लाख लोग अपनी पीएफ़ की सेविंग्स से पैसा निकाल चुके हैं. जबकि यह बचत उनकी रिटायरमेंट बाद की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए होती है. यह इस बात का सबसे बड़ा सबूत है कि लॉकडाउन के दौरान उन्हें किन आर्थिक दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है.
ये हालात तो हर महीने वेतन पाने वाले लोगों के हैं. अब आप ऐसे लोगों की स्थिति की कल्पना कर लीजिये, जिनके पास बचत के नाम पर कुछ नहीं है. ऐसे में दिहाड़ी मजदूरों की दशा क्या है, यह बताने की जरूरत नहीं है.
हाल की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, अप्रैल के अंत तक ईपीएफ़ओ (EPFO) के 8.2 लाख सदस्य यानी पीएफ़ में योगदान करने वाले इतने कर्मचारी 3243.17 करोड़ रुपये इस फ़ंड से निकाल चुके हैं. लॉकडाउन ने इनकी कमाई पर करारी चोट की है और ये ख़र्चा चलाने के लिए पीएफ़ की अपनी बचत को हाथ लगाने को मज़बूर हो गए थे. इनमें ईपीएफ़ओ और प्राइवेट पीएफ़ ट्रस्ट दोनों के सदस्य शामिल हैं.
सरकार ने इस साल मार्च के आख़िर में एक सर्कुलर निकाला था.इसमें कहा गया था कि पीएफ़ में योगदान करने वाले औपचारिक सेक्टर के कामगार अपने फंड से तीन महीने की बेसिक सैलरी और डीए या जमा रकम में से जो कम हो, उसे निकाल सकते हैं. इस रकम को इसमें दोबारा जमा करने की जरूरत नहीं होगी.
साफ़ दिख रही है लॉकडाउन से बढ़ी ग़रीबी
हालांकि लॉकडाउन की वजह से कितनी ग़रीबी बढ़ी है इसका अभी कोई आंकड़ा नहीं आया है लेकिन बढ़ती आर्थिक दुर्दशा साफ़ दिख रही है. गांव हो या शहर, बढ़ती ग़रीबी से बेहाल दिखने लगे हैं.
सीएसडीएस की ओर से कराए गए पिछले डेढ़ दशकों के ( 2005-2019) अध्ययनों के मुताबिक, मुश्किल से दस फ़ीसदी लोगों ने माना कि मौजूदा कमाई से उनकी ज़रूरतें पूरी हो पा रही हैं और वे कुछ बचत भी कर रहे हैं.
18 से 25 फ़ीसदी लोगों ने माना कि उनकी कमाई से उनकी रोज़मर्रा की ज़रूरतें पूरी हो रही हैं. दिक्कतें नहीं झेलनी पड़ रही है लेकिन बचत के नाम पर एक पैसा भी जमा नहीं हो पा रहा है. बड़ी तादाद में यानी लगभग 65 फीसदी लोगों ने माना कि उनकी कमाई से उनकी रोज़मर्रा की ज़रूरतें पूरी नहीं हो रही हैं. उन्हें हर तरह की आर्थिक दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है. कुछ को कम तो कुछ को ज्यादा.
लॉकडाउन में अब छूट देने की ज़रूरत
इन आंकड़ों से यह साफ़ है कि सिर्फ़ दस से बारह फ़ीसदी भारतीय ही लगातार बचत कर रहे हैं. कुछ दूसरे लोगों की भी बचत हो जाती है लेकिन यह उनकी इनकम या सैलरी स्ट्रक्चर की वजह से संभव हो पाता है.
इसलिए मेरे लिए यह कोई अचरज की बात नहीं कि बड़ी तादाद में न सिर्फ़ ग़रीब और कम आय वर्ग वाले लोग बचत नहीं कर पाते हैं बल्कि मध्य वर्ग के लोगों की भी एक बहुत बड़ी आबादी है जिसके पास इसके नाम पर कुछ नहीं है. अपने मासिक वेतन से वे लगातार और व्यवस्थित बचत नहीं कर पाते. अगर उनकी कुछ बचत होती भी है तो वह सरकारी नियमों के मुताबिक ऐसा करने की बाध्यता की वजह से ही.
यही वजह है कि लॉकडाउन के छह हफ़्तों के दौरान बड़ी तादाद में मासिक वेतन पाने वाले लोगों को अपने पीएफ़ की बचत में हाथ लगाना पड़ा है. यह अच्छा हुआ कि सरकार ने लोगों की आर्थिक दुश्वारियों का अंदाज़ा लगा लिया और पीएफ़ से पैसे निकालने की छूट दे दी.
जिन लोगों के पास ऐसी बचत है वो तो इस मुश्किल घड़ी में इसका सहारा ले सकते हैं. लेकिन जिनके पास पीएफ़ जैसी बचत का भी सहारा नहीं है उनके पास व्यवस्था के खिलाफ़ आवाज़ उठाने के अलावा कोई और चारा नहीं है. लिहाज़ा मेरा यह मानना है कि सरकार को अब लॉकडाउन को शिथिल कर देना चाहिए ताकि आर्थिक गतिविधियां शुरू हो सकें.
(संजय कुमार सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (CSDS) में प्रोफेसर हैं. वह राजनीतिक विश्लेषक और टिप्पणीकार भी हैं. इस लेख में उन्होंने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं.)
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