कोरोना अपडेट: क्या हम भूल जाएंगे छूने का अहसास? एक दूसरे को छूकर ही नहीं बताया जा सकता है कि वो कितने क़रीब हैं. रिश्तों को दिल से महसूस करना फ़िज़िकल टच से ज़्यादा अहम है. कोरोना की वजह से हम एक दूसरे से सिर्फ़ शारीरिक तौर पर दूर हैं. दिल से हम आज भी उतने ही क़रीब हैं, जितने पहले थे और रहेंगे. फ़िलहाल जान की सलामती के लिए अपनों के बीच ये दूरी ज़रूरी है
कोरोना अपडेट: क्या हम भूल जाएंगे छूने का अहसास?
नए कोरोना वायरस की महामारी ने हम सभी को ऐसे दौर से गुज़रने पर मजबूर कर दिया है, जिसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी. लोगों से हंस कर मिलना, हाथ मिलाना, ख़ुशी से एक दूसरे को गले लगाना ज़्यादातर देशों की संस्कृति का हिस्सा है. लेकिन अब सब-कुछ बदल गया है.
सोशल डिस्टेंसिंग ने हमें छूने के एहसास को भुला देने को मजबूर कर दिया है. एक ही घर में परिवार के लोग भी एक दूसरे से दूरी बना कर बैठते हैं. ग़लती से कोई किसी के नज़दीक आ भी जाए तो ख़ुद को ही अजीब लगने लगता है. हम उसे दूरी बनाने की ताकीद करने लगते हैं. ये सिलसिला सिर्फ़ लॉकडाउन तक ही नहीं रहने वाला है. बल्कि हमें अब इन आदतों के साथ जीना सीखना होगा.
जिन देशों में कोरोना की रफ़्तार कम हुई है वहां अब लॉकडाउन हटाया जा रहा है. ज़िंदगी फिर से पटरी पर लाने की कोशिश की जा रही है. लेकिन जानकारों का कहना है कि अब पहले जैसा सामान्य जीवन जीना इतना आसान नहीं रह जाएगा. अभी तक लोग घरों में थे. कम से कम लोगों से बात-चीत हो पाती थी, लेकिन जैसे ही हमारी पेशेवर ज़िंदगी दोबारा पटरी पर लौटेगी, लोगों के साथ मिलना जुलना होगा तो संवाद करना सबसे मुश्किल होगा. हो सकता है आपके इशारों का ग़लत मतलब निकाला जाए और रिश्तों में बेवजह दूरी पैदा हो जाए.
हालांकि सोशल मीडिया और मुख्यधारा के मीडिया के ज़रिए हमें सिखाया जा रहा है कि सोशल डिस्टेंस के साथ हमें कैसे रहना चाहिए. लॉकडाउन के दौरान जिस तरह के प्रोग्राम टीवी पर दिखाए गए उनसे हमें ज़हनी तौर पर सोशल डिस्टेंसिंग स्वीकार करने के लिए तैयार करने की कोशिश की गई है.
एक रिसर्च बताती है कि ब्रिटेन में सिर्फ़ 7 फ़ीसद लोग ही चाहते हैं कि मौजूदा समय में लॉकडाउन हटाकर फिर से कारोबार शुरु किया जाए. जबकि 70 प्रतिशत लोग इसके ख़िलाफ़ हैं. इसी तरह ऑस्ट्रेलिया और अमरीका में 60 प्रतिशत, कनाडा में 70 फ़ीसद, फ़्रांस और ब्राज़ील में 50 तो चीन के 40 प्रतिशत लोग यही चाहते हैं कि जब तक कोरोना वायरस का प्रकोप पूरी तरह ख़त्म नहीं हो जाता तब तक कारोबार शुरु ना किया जाए. लॉकडाउन में जिस तरह की ज़िंदगी हम सभी जी रहे हैं वो शायद हम में से कोई भी नहीं जीना चाहता. हम सभी को अपने साथ अपने रिश्तों की गर्मी चाहिए.
कुछ जानकारों के मुताबिक़ हमारी अभी की ज़िंदगी में जिस तरह के बदलाव हुए हैं वो अपने आप में काफ़ी अनोखे हैं. मिसाल के लिए एक दूसरे का चुंबन लेना फ़्रांस की संस्कृति का हिस्सा है. मार्च महीने में कोविड-19 के चलते वहां के स्वास्थ्य मंत्री ने इस पर पाबंदी लगा दी. लेकिन ऐसा पहली बार नहीं हुआ है. पंद्रहवीं शताब्दी में ब्यूबोनिक प्लेग की वजह से राजा हेनरी चतुर्थ ने भी चुंबन पर रोक लगा दी थी.
संक्रमित लोगों से दूरी बनाने के नकारात्मक पहलू भी हैं. जिन दिनों एड्स या एचआईवी फैला था तो लोगों ने पीड़ितों से दूरी बनानी शुरु कर दी थी. उन्हें बुरी नज़र से देखने लगे थे. कुछ लोग एड्स संक्रमित लोगों से हाथ मिलाने से भी डरते थे. उन्हें लगता था कि हाथ मिलाने से कहीं वो भी एड्स का शिकार ना हो जाएं. जबकि रिसर्च साबित कर चुकीं थी कि ये एक सेक्सुअली ट्रांसमिटेड इन्फ़ेक्शन है. लेकिन, इसे लेकर एक बेवजह का डर और भ्रांति लोगों के ज़हन में थी. इसी तरह टीबी और कोढ़ के मरीज़ों से दूरी बनाई जाती थी. टीबी के मरीज़ से परिवार के लोग ही दूरी बनाने लगते थे. उसके कपड़े, बर्तन, उसके इस्तेमाल की सभी चीज़ें अलग कर दी जाती थीं. कोढ़ के मरीज़ को तो बस्ती से ही दूर डाल दिया जाता था.
संक्रमित लोगों के प्रति लोगों का ये बर्ताव केवल भ्रांतियों के चलते था. बाद में ऐसी भ्रांतियों के ख़िलाफ़ मुहिम चलाकर लोगों को समझाया गया. उन्हें ऐसे मरीज़ों के प्रति अपना बर्ताव बदलने को बाध्य किया गया. नतीजा हम सब के सामने में है. अब लोग किसी एचआईवी पॉज़िटिव को गले लगाने या उससे हाथ मिलाने से पहले दो बार सोचते नहीं हैं.
जब कोविड-19 के लिए दवा खोज ली जाएगी तो ये भी पता चल जाएगा कि इससे बचने के लिए एक दूसरे से दूर रहना कितना और कब तक ज़रुरी है. इसके बाद लोगों का बर्ताव भी बदलने लगेगा. लेकिन जब तक ऐसा नहीं होता हमें दूरी तो रखनी ही होगी. वहीं जानकारों का ये भी कहना है कि एक दूसरे से हाथ मिलाना हम सभी की जन्मजात आदत है. हाथ मिलाने के लिए उसे क़ाबू में रखना इतना आसान नहीं होगा. हालांकि लोगों ने इसके विकल्प तलाशे हैं, जैसे पैर छूना, कोहनी टच करके अभिवादन करना. लेकिन ये कारगर विकल्प साबित नहीं हुए.
कुछ लोगों को अंदेशा है कि कहीं सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करते-करते वो अपने क़रीबी लोगों से दूर ना हो जाएं. लेकिन इससे ज़्यादा ज़रुरी ये समझना है कि हमारे लिए एक दूसरे की मौजूदगी कितनी ज़रुरी है. एक दूसरे के लिए लगाव और फ़िक्र और भी कई तरीक़ों से ज़ाहिर की जा सकती है. हां वो सभी तरीक़े एक दूसरे को गले लगाने, एक दूसरे के गाल से गाल मिलाकर अपने जज़्बात ज़ाहिर करने जितने ताक़तवर नहीं होंगे. न ही ये परिवर्तन इतने आसान होंगे. लेकिन नामुमकिन भी नहीं हैं.
एक दूसरे को छूकर ही नहीं बताया जा सकता है कि वो कितने क़रीब हैं. रिश्तों को दिल से महसूस करना फ़िज़िकल टच से ज़्यादा अहम है. कोरोना की वजह से हम एक दूसरे से सिर्फ़ शारीरिक तौर पर दूर हैं. दिल से हम आज भी उतने ही क़रीब हैं, जितने पहले थे और रहेंगे. फ़िलहाल जान की सलामती के लिए अपनों के बीच ये दूरी ज़रूरी है
https://www.bbc.com से साभार
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