प्रवासी मज़दूर संकट: क्या खाने-पीने की कमी से हालात बिगड़ सकते हैं?





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बिहार के कटिहार रेलवे स्टेशन पर प्रवासी कामगारों के बीच खाने के पैकेट्स के लिए छीना झपटी, पंजाब के लुधियाना में प्रवासी कामगारों का विरोध प्रदर्शन और मध्य प्रदेश महाराष्ट्र सीमा पर खाने की कमी को लेकर अशांति का माहौल.
ये कुछ चुनिंदा मामले नहीं हैं जिनमें प्रवासी कामगारों का ग़ुस्सा फूटते हुए दिख रहा है.
क़रीब से देखें तो क्वारंटीन सेंटरों में रह रहे प्रवासी कामगारों के बीच ग़ुस्सा धीरे-धीरे बढ़ता दिख रहा है.
कहीं, इस ग़ुस्से की वजह खाना न मिलना है तो कहीं इस ग़ुस्से का कारण ख़राब खाना मिलना है.
बिहार के कई ज़िलों में क्वारंटीन सेंटरों पर प्रवासी कामगारों और स्थानीय प्रशासन के बीच हाथापाई तक की नौबत आ चुकी है.
ऐसे में सवाल उठता है कि ये छिटपुट घटनाएं किस ओर इशारा कर रही हैं?




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विशेषज्ञों ने दी चेतावनी

स्टैंडिंग कमिटी ऑफ़ इकोनॉमिक स्टैटिस्टिक्स के चीफ़ प्रणब सेन ने कुछ हफ़्ते पहले ही चेतावनी जारी की थी.
उन्होंने कहा था, "अगर प्रवासी कामगारों की खाने-पीने से जुड़ी ज़रूरतें पूरी न हुईं तो वो हो सकता है जो इस देश में पहले हुआ है. हमारे यहां सूखे या अकाल के दौरान खाने पीने के सामान को लेकर दंगे हुए हैं. अगर खाने-पीने का सामान उपलब्ध नहीं कराया गया तो ये दोबारा हो सकते हैं. इसे लेकर स्पष्टता होनी चाहिए."
"अगर खाने-पीने का सामान उपलब्ध कराए जाने के तंत्र में ख़ामियां होती हैं, अगर बिना आमदनी वाले लोगों की ज़रूरतें पूरी न हुईं तो खाने-पीने के सामान को लेकर दंगे होना संभव है."
प्रणब सेन ने ये चेतावनी लगभग 45 दिन पहले दी थी. तब इस पलायन की शुरुआत हुई थी.
इसके बाद से अब तक लाखों कामगार शहरों में अपने ठिकानों को छोड़कर गाँवों की ओर चल पड़े हैं.
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नोटबंदी की मार जारी

इन प्रवासी कामगारों की आर्थिक क्षमता का आकलन इस बात से किया जा सकता है कि इनमें से ज़्यादातार लोगों ने अपनी आख़िरी तनख़्वाह या कमाई मार्च के शुरुआती हफ़्तों में की थी.
इनमें से ज़्यादातर की मासिक आमदनी 7 से 20 हज़ार रुपये के बीच होती है जिससे झुग्गी के किराए और खाने-पीने का ख़र्च निकलता रहता है.
ये लोग साल भर में दो बार होली और दीवाली पर अपने घर जाते हैं. तब बीते छह महीने में जमा किया हुआ पैसा घरवालों को देकर आते हैं.
ऐसे में इन कामगारों के पास शहरों में नाम मात्र की बचत होती है. और जो बचत दशकों से चली आ रही थी वो साल 2016 के दौरान नोटबंदी में ख़त्म हो गई.
सीएसडीएस के सर्वे के मुताबिक़, भारत में 50 फ़ीसदी लोगों को आमदनी के मुक़ाबले अपनी पारिवारिक और घरेलू ख़र्चों को पूरा करने में कई तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ता है.
ऐसे में नोटबंदी के बाद से ये वर्ग किसी तरह दोबारा नोटबंदी से पहले की आर्थिक स्थिति में पहुंचने की कोशिशों में लगा हुआ था.
लेकिन लॉकडाउन होने के बाद से इस वर्ग की कमाई पूरी तरह ख़त्म हो गई और देश की एक बड़ी आबादी अचानक से ग़रीबी रेखा के नीचे पहुंच गई.
पलायन की इस मानवीय त्रासदी के शुरुआती दौर यानी मार्च में जो लोग अपने गाँवों की ओर रवाना हुए, उनके पास फिर भी कुछ हज़ार रुपये थे.
लेकिन लॉकडाउन के महीने भर बाद जो लोग अपने गाँवों के लिए निकल रहे हैं, उनके पास इतना पैसा नहीं है कि वे आने वाले दिनों में खाना खा सकें.
बीबीसी से बात करते हुए कई कामगारों ने बताया है कि वो किस तरह मजबूरी में अपने गाँवों की ओर निकल रहे हैं.
यहां ये समझना ज़रूरी है कि शहर में रहने वाले इनमें से ज़्यादातर लोगों की गृहस्थी उनके गाँवों में नहीं है.
कई लोगों के पास उनका अपना घर और ज़मीन नहीं है. कई लोगों के पास गाँव में राशन कार्ड, चूल्हे-चौके और किसी तरह की कमाई की व्यवस्था नहीं है.
एक तरह से ये लोग बिन-बुलाए मेहमान के रूप में अपने सगे-संबंधियों के पास जा रहे हैं.
ऐसे में ये समझना ज़रूरी है कि आने वाले दिन इन लोगों के लिए क्या लेकर आने वाले हैं.



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पलायन का सामाजिक पहलू

80 के दशक में पहाड़ों से उतरकर दिल्ली आए एक ऑटो चालक राम जी ने बीबीसी को अपनी मानसिक व्यथा बताई है.
वो कहते हैं, "शुरुआत में उनके पास कुछ पैसा था. लेकिन बीते दो महीने से खाली बैठने की वजह से उनके पास अब मात्र तीन हज़ार रुपये बचे हैं. और मकान मालिक भी किराया मांगने आ रहा है. ऐसे में अब उनके पास दो विकल्प हैं. पहला उधार लेकर किराया देना और दूसरा गाँव जाना."
राम जी की उम्र 55 पार कर गई है लेकिन लॉकडाउन से पहले तक वो रोज़ाना 10 घंटे से ज़्यादा समय तक ऑटो चलाते थे.
ताकि अपने बच्चों को बढ़िया खान-पान और शिक्षा दे सकें.
राम जी कुछ हद तक अपने को सफल भी मानते हैं. अब उनकी बस एक ख़्वाहिश है कि उनकी एक बेटी और एक बेटा ठीक से पढ़ाई कर लें तो वे एक सफल व्यक्ति के रूप में अपने गाँव लौटें.
ये सब कहने के बाद राम जी बीबीसी संवाददाता से दरख़्वास्त करते हैं कि उनका नाम बदल दिया जाए ओर यहां पर उनका नाम बदला गया है.
संभवत: ये दरख़्वास्त इसलिए थी ताकि सालों की मेहनत से शहर पहुंचकर सफल होने वाले एक व्यक्ति की बनी छवि को धक्का न लगे.
राम जी जिस वर्ग से आते हैं, वह शहर के अर्थशास्त्र में अपर लोअर क्लास और ग्रामीण अर्थशास्त्र में अपर मिडिल क्लास माना जाता है.
शहरों के ढांचे में ये वर्ग ईंटों के बीच छिपे हुए सीमेंट की तरह काम करता है.
इनमें दर्ज़ी, धोबी, डिलीवरी मैन, बिजली सही करने वाले, पिज़्ज़ा और तंदूरी चिकन बनाने वाले, सिक्योरिटी गार्ड, फल-सब्ज़ी बेचने वाले, फ्रूट चाट-पानी के बताशे (या गोल-गप्पे) बेचने वाले और बाज़ार चलाने वाले लोग शामिल हैं.
किन हालातों को रह रहे हैं ये लोग?
बीबीसी संवाददाता सलमान रावी ने हाल ही में कुछ ऐसे ही लोगों से बात की है.
वो बताते हैं, "इन लोगों की हालत ऐसी है कि वे जहां से जो मिल रहा है, बस लेते हुए आगे बढ़ते जा रहे हैं. कहीं दया मिल रही है तो उसे भी सर-आंखों पर और कहीं क्रूरता मिल रही है, तो वो भी सिर-माथे."
सलमान रावी से बात करते हुए ऐसे ही एक प्रवासी कामगार अपनी आपबीती बताते हुए फ़फ़क-फ़फ़क कर रोने लगते हैं.
वो कहते हैं, "हम निकल जाएंगे, मर जाएंगे. जैसे भी होगा. हम निकल जाएंगे, बच्चों को लेकर. क्या क्या बताएं. यहां से भगा दिया, फिर वहां से भगा दिया. हम अंबाला से आ रहे हैं. छह दिन हो गए चलते-चलते. किसी की टूटी हुई साइकिल ली थी."
इन प्रवासी कामगार को रोता देखकर आसपास खड़े दूसरे कामगारों की आंखें भी नम हो जाती हैं.
इन जैसे लाखों प्रवासी कामगारों के सामने इस समय सबसे बड़ा संकट कोरोना वायरस नहीं भूख है.

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क्यों पैदा हो सकता है खाने-पीने का संकट?

सालों तक दिल्ली में पत्रकारिता करने के बाद बिहार के पूर्णियां ज़िले में खेती किसानी कर रहे गिरींद्र नाथ झा मानते हैं कि इन शहरों से आए इन लोगों के सामने कमाने-खाने का संकट जारी है.
वो कहते हैं, "मैं कई ऐसे लोगों से मिल चुका हूँ जो कि बड़े शहरों में काम करते थे और संकट के दिनों में अपने गाँव वापस आए हैं. लेकिन ये लोग सिर्फ ईंट-मिट्टी गारा ढोने वाले मज़दूर नहीं हैं. ये स्किल्ड लेबर की कैटेगरी में आते हैं. ये वो लोग हैं जो एक तरह से शहर को चलाते हैं. अब सवाल ये है कि इन लोगों के लिए गाँवों में किस तरह का रोज़गार पैदा हो सकता है?"
गिरींद्र झा की तरह प्रवासी कामगारों के साथ बीते तीन महीनों से चल रहे एनडीटीवी के पत्रकार रवीश रंजन शुक्ल ने भी अपने अनुभव बीबीसी के साथ साझा किए हैं.
रवीश बताते हैं कि इटावा ज़िले में उनकी मुलाक़ात ऐसे कई लोगों से हुई जो कि बड़ी संख्या में अपने गाँव पहुंचे हैं.
रवीश कहते हैं, "कई ऐसे लोग हैं जो बीते पच्चीस-तीस सालों से शहरों में पानी-पूरी (पानी के बताशे) बेच रहे थे. इन लोगों के बच्चों का जन्म भी शहर में हुआ था और दूसरी पीढ़ी भी नौकरी की तलाश में है. ऐसे में ये लोग गाँव में रहने वाले अपने सगे-संबधियों के भरोसे शहर छोड़कर आए हैं. अब सवाल उठता है कि सगे-संबंधी आख़िर कितने दिनों तक इनके भरण-पोषण की ज़िम्मेदारी उठा पाते हैं?"
"ऐसे में अगर सरकार ने जल्द ही कोई मज़बूत क़दम नहीं उठाया तो ये स्थिति भयावह हो सकती है."

क्या कर रही है सरकार?

सरकार की ओर से कई क़दम उठाए गए हैं. लेकिन इनमें वे क़दम शामिल नहीं हैं जो सड़क पर चल रहे इन प्रवासी कामगारों को तत्काल मदद पहुंचा सकें.
20 लाख करोड़ के आर्थिक पैकेज की घोषणा के बाद अर्थशास्त्री अरुण कुमार इसे लेकर चिंता व्यक्त कर चुके हैं.
वो कहते हैं, "इस समय सरकार की प्राथमिकता ये होनी चाहिए थी कि किसी तरह इन प्रवासी कामगारों की जान बचाई जा सके. सरकार को इस वर्ग, जिसकी इस समय आमदनी नहीं है, का संरक्षण करना चाहिए. इनके गुज़र-बसर की चीज़ें उपलब्ध करानी चाहिए. क्योंकि ऐसा नहीं होने पर इन चीज़ों की कमी समाज में एक अशांति को जन्म दे सकती है."
प्रवासी कामगारों के लिए इंतज़ामों में लगे एक शख़्स नाम न बताने की शर्त पर बताते हैं कि सरकार जितना भी कहे लेकिन इन लोगों तक कम मदद ही पहुंच पा रही है.
ये शख़्स कहते हैं, "शहरों से आए कुछ लोगों ने मनरेगा के तहत काम भी कर लिया. लेकिन उन्हें अब तक तनख़्वाह नहीं मिली है. और जाने कब मिलेगी. क्योंकि उनके जॉब कार्ड बनने में कई तरह की दिक़्क़तें आ रही हैं."
रवीश रंजन शुक्ल भी इसी समस्या की ओर इशारा करते हैं.
वो कहते हैं, "मेरी बात एक गाँव के प्रधान से हुई जो कि इस बात से परेशान थे कि शहरों से आए इतने सारे लोगों का जॉब कार्ड इस तरह अचानक से कैसे बनवाया जाए. क्योंकि ज़्यादातर के काग़ज़ात आदि सब कुछ शहर का है."
सरकार की ओर से डायरेक्ट बैंक ट्रांसफ़र के तहत लोगों के खातों में डाले गए पैसों की बात की गई.
लेकिन हाइवे पर चल रहे लाखों प्रवासी कामगारों के लिए ये पैसा किस तरह मदद कर सकता है.
इसके साथ ही प्रधानमंत्री आवास योजना, राशन देने की व्यवस्था और रेहड़ी वालों के लिए क़र्ज़ आदि से जुड़ी योजनाओं को अमल में आने में कई हफ़्तों से महीनों लग सकते हैं.
ऐसे में सवाल उठता है कि सरकार इन प्रवासी कामगारों की मदद के लिए तत्काल क़दम क्यों नहीं उठा रही है.
कुछ विशेषज्ञ यहां तक कह रहे हैं कि किसी प्राकृतिक आपदा के समय सरकार जिस द्रुत गति से एनडीआरएफ़ की टीमें भेजती है, उस तरह के क़दम इस समय क्यों नहीं उठाए जा सकते हैं.
इस समय इन प्रवासी कामगारों की ज़िंदगी बचाने के लिए एनडीआरएफ़ की देखरेख में हाइवे किनारे उच्च स्तर के शिविर क्यों नहीं लगाए जा सकते हैं?
आख़िर क्यों गाड़ियां लगाकर उन्हें उनके घरों तक नहीं पहुंचाया जा सकता है?
लेकिन सरकार की ओर से एक नया फरमान आया है कि प्रवासी कामगारों को सड़कों और रेल पटरियों पर चलने से रोका जाए.
बीते काफ़ी समय से इस तरह के आदेशों की वजह से कामगार पुलिस की लाठी खाने और रेल पटरियों से होकर गुज़रने को मजबूर हो रहे हैं.


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क्या दंगे भड़क सकते हैं?

भारत एक ऐसा देश है जो बीते कई दशकों से अनाज के मामले में सरप्लस में चल रहा है.
इसके मायने ये हैं कि सरकारी गोदामों में इतना अनाज भरा हुआ है कि एक लंबे समय तक खाद्दान्न आपूर्ति की जा सकती है.
अर्थशास्त्री ज़्यां द्रेज़ ने अंग्रेज़ी अख़बार इंडियन एक्सप्रेस में खाने-पीने के सामान में कमी नहीं होने की बात कही थी.
ज़्यां द्रेज़ के मुताबिक़, "भारत के गोदामों में इस समय साढ़े सात करोड़ टन अनाज है. इतना अनाज पहले कभी नहीं रहा. यह बफ़र स्टॉक के नियमों से तीन गुना अधिक है. जब अगले कुछ हफ़्तों में रबी की फसल कट जाएगी तो यह स्टॉक और बढ़ जाएगा. सरकार कृषि मंडियों में पैदा हुए व्यवधान को समझते हुए और अधिक मात्रा में अनाज खरीदेगी. राष्ट्रीय आपदा के समय इस भंडार के एक हिस्से का इस्तेमाल करना ही समझदारी होगी."
ऐसे में एक सवाल ये उठता है कि प्रवासी कामगारों तक खाना और ज़रूरी सामान पहुंचाना कितना मुश्किल है?
प्रणब सेन ने भी अपनी चेतावनी में यही साफ़ किया था कि खाने के सामान की वितरण व्यवस्था ढीली होने से संकट पैदा हो सकता है.
भारत सरकार जिन राशन की दुकानों के ज़रिए ग़रीबों तक राशन पहुंचाने की कोशिश कर रही है, वो तंत्र ही भ्रष्टाचार और ख़ामियों से भरा पड़ा है.
देशभर में कई जगहों पर दस किलो की बोरी में तीन किलो राशन निकलने से जुड़ीं ख़बरें सामने आ चुकी हैं.
एक सर्वे में सामने आया है कि देश की राजधानी दिल्ली में सिर्फ़ 30 फ़ीसदी राशन की दुकानें राशन दे रही हैं.
बिहार सरकार भी कई दुकानों के ख़िलाफ़ कदम उठा चुकी है.
यहां ये बात ध्यान देने की है कि सरकार के गोदाम अनाज से भरे हुए हैं.
कई बार राशन की दुकानवाले सिर्फ़ इसलिए राशन नहीं दे रहे हैं क्योंकि परिवार का मुखिया राशन लेने के लिए मौजूद नहीं है.
आने वाले दिनों पर बात करते हुए रवीश कहते हैं कि सवाल इस बात का है कि जिसने जीवन भर पानी-पूरी और चाट बनाना सीखा है, वो अचानक से गड्ढा खोदना कैसे शुरू कर सकता है.
और शहर से आए इन कामगारों को इनके रिश्तेदार कितने दिन तक ख़ुशी-ख़ुशी खाना खिला पाएंगे?

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