चीन तक आम पाकिस्तान ने पहुँचाए, अब भारत को टक्कर देने की तैयारी


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गर्मियों के मौसम में आम के बारे में बहसें भी बहुत आम हैं. कोई लंगड़ा के लिए मरने-मारने को तैयार हो जाता है तो चौसा के कसीदे पढ़ता है, तो कोई दशहरी के आगे किसी और आम को कुछ ख़ास नहीं समझता, इसी तरह अलफांसो यानी हापुस के दीवाने भी दम भरते हैं.
आम को लेकर यह सोच पिछले कुछ साल में काफी बढ़ी है कि कुछ आम खास होते हैं और बाकी सब तो बस आम होते हैं. महाराष्ट्र और गोवा वगैरह में माना जाता है कि एक आम होता है और एक अलफांसो होता है.
माना जाता है कि पुर्तगाली जनरल अलफांसो डि अलबुक़र्की ने हापुस की खेती को बहुत बढ़ावा दिया और उनके नाम पर आम की नस्ल अलफ़ांसो कहलाई. गोवा से लेकर महाराष्ट्र के तटवर्ती रत्नागिरी इलाके तक में इसकी भरपूर उपज होती है.
अलफांसो संभवतः सबसे महँगा आम है और इसका बहुत बड़ा हिस्सा भारत से निर्यात हो जाता है जिसकी यूरोपीय बाज़ार में काफ़ी माँग रहती है.
बहरहाल, बिहार और पश्चिम बंगाल जाएं तो तकरीबन अलफ़ांसो जैसी ही तारीफ़ मालदा की भी सुनाई देती है, जबकि वाराणसी वाले मानते हैं कि स्वाद की रेस में सबसे आखिर में जीतेगा तो लंगड़ा ही. उधर लखनऊ वालों के लिए दशहरी ही सब कुछ है, उसकी शान में कहा जाता है, "वाह वाह यह लखनऊ की नायाब दशहरी, खुश लज्जतो, खुश सूरतो, खुश आब दशहरी'.
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चंद नस्लों पर सारी तवज्जो

वैसे इसमें कोई नई बात भी नहीं है. आम की पसंद और नपसंद हमेशा क्षेत्रीय आधार पर होती रही है. अक्सर यह इस पर भी निर्भर करता है कि बचपन में कौन-सा स्वाद आपकी जबान पर चढ़ गया. इसमें कोई दिक्कत भी नहीं है. दिक्कत दरअसल दूसरी जगह है.
भारत को तरह-तरह की जातियों वाला समाज माना जाता है, लेकिन दूसरी तरफ यह भी कहा जाता है कि इस देश में जितनी जातियां हैं आम की किस्में उससे कहीं ज्यादा हैं. आम की 1500 से ज्यादा किस्में किताबों में दर्ज हैं और यह भी माना जाता है कि बहुत सी किस्में इनके अलावा भी हैं जो इन किताबों में जगह नहीं बना पाई हैं.
इसके बावजूद अगर आप आम के शौकीन किसी ख़रीदार से पूछें तो वह आम की चार-पाँच किस्मों से ज़्यादा के नाम भी नहीं जानता, खुशबू, स्वाद, रंगत, आकार से पहचानने की तो बात ही छोड़ दीजिए.
कुछ लोग हैं जिनके ऊपर आमों के बारे बातें करने का, उनके बारे में जानने का जुनून होता है. ऐसे लोग लखनऊ के पास मलिहाबाद के हाजी कलीमुल्लाह खान साहब के बारे में ज़रूर जानते होंगे जो हर साल आम की दो-चार नई किस्में पेश कर देते हैं. वैसे खुद उनके ही बागान में 300 से ज्यादा किस्मों के आम होते हैं.
कमाल तो उन्होंने ये किया है कि वे एक ही पेड़ की अलग-अलग शाखों पर बीसियों तरह के आम के उगाते हैं और उनके तरह-तरह के नाम रखते हैं और सबकी ख़ासियत औऱ पहचान भी बताते हैं.

इज़्ज़तदार आम और मामूली आम

बहरहाल, भारत में आमों की कुछ किस्मों को बेहतरीन मान लिया गया है और बाजारों और बागानों में उन्हीं को प्राथमिकता मिल रही है, बाकी किस्में नजरंदाज हो रही हैं. हापुस, चौसा, मालदा, लंगड़ा और दशहरी जैसी आम अगर अपने स्टार स्टेटस की वजह से हिट हैं तो सफेदा और तोतापरी जैसे आम इसीलिए खूब बिकते हैं कि एक तो आम को सीजन आने पर ये बाजार में सबसे पहले दस्तक देते हैं और दूसरे शैल्फ लाइफ लंबी होने की वजह से इन्हें दूर-दूर तक भेजना आसान होता है.
इस समय बागों के मालिक तीन तरह के आमों पर ही सारा जोर दे रहे हैं, एक वे जिनकी मांग काफी ज्यादा है, दूसरे वे जिनकी उत्पादकता काफी ज्यादा है, और तीसरे वे जो टिकाऊ होने की वजह से ज्यादा बड़े भूगोल तक अपनी पहुँच बना लेते हैं.
बाकी कईं किस्मों के आमों की उपस्थिति भी कम हो रही है और वे अपनी पहचान भी खोते जा रहे हैं. दूसरी बहुत सारी फसलों की तरह ही बाजार के दबाव में आमों की बायोडायवर्सिटी भी कम होती जा रही है.
वैसे भी बहुत कम आम हैं जो पूरे देश में मिलते हैं, हर आम एक ख़ास दायरे में मिलता है, मिसाल के तौर पर कर्नाटक का बादामी या तमिलनाडु का मलगोबा दिल्ली में मिलना मुश्किल है लेकिन लंबी शेल्फ़ लाइफ़ की वजह से आंध्र प्रदेश के सफ़ेदा, बेगमपल्ली और तोतापरी पूरे देश में बिकते दिख जाते हैं.
जर्दालु, गुलाबखास, रसप्रिया, मल्लिका और वनराज जैसी किस्में जो दसेक साल पहले तक दिख जाती थीं अब आसानी से नज़र नहीं आतीं. ये कोई बुरे आम नहीं थे लेकिन किसी वजह से ये लंगड़ा, दशहरी या मालदा की तरह सुपरहिट नहीं हो सके.
आम
आम की ख़ास पहचान
हर आम की पहचान अपने खास रंग-रूप-आकार, गंध-स्वाद और मिठास से बनती है. गंध और स्वाद को मिलाकर आम का जो जायका बनता है अगर उसके हिसाब से देखें तो आम को मौसम हमारे सामने अलग तरह से खुलता है.
लेकिन उससे पहले आम के जायके को समझ लें. आम के जायके में एक साथ दो चीजें होती हैं, एक तो आम में एक आमपन होता है, यानी एक खास स्वाद जो उसे दूसरे फलों से अलग करता है और दूसरा होता है आम की किस्म का वह विशेष स्वाद जो उसे बाकी किस्मों से अलग करता है, इनके साथ ही आम की एक मिठास होती है जो हर किस्म के साथ बदलती है.
आम के पूरे मौसम में आप इस जायके और मिठास में एक निश्चित लय देख सकते हैं.
यह मौसम शुरू होता है तोतापरी और सफेदा के साथ जो दक्षिण भारत, मुख्य तौर पर आंध्र और तेलंगाना से आते हैं. थोड़ा सा खट्टापन लिए सिंदूरी को भी आप इसी श्रेणी में रख सकते हैं. आम की शुरुआती किस्मों की खासियत यह होती है कि उनमें जायका और मिठास दोनों थोड़े हल्के होते हैं.
लेकिन सिर्फ इसी से इन आमों को महत्व कम नहीं हो जाता, सबसे बड़ी बात यह है कि ये आम का मौसम शुरू होने की पूर्वसूचना की तरह बाजार में आते हैं. इसके बाद हापुस, दशहरी, लंगड़ा, मालदा तकरीबन इसी क्रम में जून के महीने में बाजार में आते हैं. ये स्वाद गंध और मिठास तीनों में भरपूर होते हैं.
आम के पूरे बाजार पर सबसे ज्यादा बोलबाला भी इन्हीं आमों का होता है. कुछ लोग 15 जून से जुलाई के अंत को आम का मुख्य मौसम मानते हैं, वैसे सावन के खात्मे के साथ-साथ आमों का भी खात्मा हो जाता है. सबसे आखिर में जब मानसून लगभग पूरे देश को भिगोना शुरू कर चुका होता है तब बाजार में वे आम आते हैं जो जायके और मिठास में सबसे बढ़कर होते हैं.
अगर अचार, चटनी, आमपापड़, खटाई, अमचूर, गलका, गुलम्मा वगैरह में इस्तेमाल होने वाली ढेर सारी किस्मों को छोड़ दिया जाए तो सीधे खाए जाने वाले आम इस पूरे स्पैक्ट्रम के बीच ही अपनी जगह बनाने के लिए एक-दूसरे से मुकाबला करते हैं.
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भूला बिसरा देसी आम

देसी या तुकमी आम, ये हर क्षेत्र में ये अलग तरह से दिखाई देते हैं. बाजार में ज्यादा सफल होने वाले आमों की खासियत यह होती है कि उनके स्वाद में एकरसता, और देखने में एकरूपता होती है. किसी एक पेड़ या बाग के सारे आमों का रंग-रूप जायका एक सा होता है, जैसे वे किसी फैक्ट्री में बने हों. लेकिन तुकमी आम के साथ ऐसा नहीं होता. एक पेड़ के तो छोड़िये, अगर एक डाल के चार आम होंगे तो चारों का स्वाद अलग होगा. कोई कम मीठा तो कोई बहुत ज्यादा मीठा, कोई खट्टा तो कोई बेहद खट्टा.
थोड़ा पीछे जाएं तो गांवों-कस्बों के माहौल में इन आमों की खासी मांग होती थी. ये सैकड़ा के हिसाब से बिकते थे, लोग इन्हें बाल्टी में भर-भर के खाते थे और इन्हें खाने की बाकायदा स्पर्धाएं होती थीं लेकिन अब इनकी पूछ नहीं रही, न बाजार में और न ही घरों में. इनके बागानों का रकबा जिस तरह से कम हो रहा है जल्द ही ये भूले बिसरे आमों की सूची में शामिल हो जाएंगे.
ऐसी कईं और किस्में हैं. मसलन, एक आम है लखनऊ सफेदा. आंध्र प्रदेश से आने वाले सफेदा आम के मुकाबले यह भले ही आकार में बहुत छोटा होता है, लेकिन इसके मुकाबले यह रेशेदार आम कहीं ज्यादा गहरे और मीठे जायके वाला होता है. दशहरी के मौसम के अंत में आने वाले इस आम का मुकाबला अगर किसी से होता है तो वह है मलिहाबादी सफेदा, जो आकार में उससे थोड़ा बड़ा होता है.
मलिहाबाद लखनऊ जिले का ही एक कस्बा है जो बताता है कि छोटे से भूगोल में ही आम कितनी सारी किस्में बनती और निखरती रही हैं. ऐसे बहुत सारे आम हैं जो अपनी कम शेल्फ लाइफ के कारण अपनी बहुत बड़ी पहचान नहीं बना सके और अब स्थानीय स्तर पर भी भुलाए जा रहे हैं.
आखिर में जिस आम का जिक्र सबसे ज्यादा जरूरी है वह है फज़ली. आपको शायद ही आमों को कोई शौकीन ऐसा मिलेगा जो कहेगा कि उसे फज़ली पसंद है. मौसम के सबसे आखिर में आने वाला यह भारी-भरकम आम अपने मैले-कुचैले रूप-रंग के कारण किसी को आकर्षित नहीं करता.
फज़ली से मिलना पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसी ठेठ किसान से मिलने की तरह है. मौसम की सारी आम लीला के बाद यह कुछ उसी तरह आता है जैसे भगवती चरण वर्मा की कहानी दो बांके में अंत में एक लंबा, तगड़ा, हाथ में लट्ठ लिए देहाती आकर कहता है, 'मुला स्वांग खूब भरयो'. अगर आप अपने सारे आग्रह छोड़कर एक बार इस कड़क जायके और कड़क मीठेपन वाले आम को खाएं तो यह आपको निराश तो नहीं ही करेगा, एक नए तरह का अनुभव भी देगा. जल्द ही यह बाजार में हाजिर होगा, कुछ ही हफ्तों की बात है.
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आम का घर है हिंदुस्तान

भारत में आम की बायो-डायवर्सिटी को बचाना इसलिए जरूरी है कि भारत आमों की जन्मस्थली है. पहले-पहल आम कब अस्तित्व में आया यह तो पता नहीं लेकिन वैज्ञानिकों ने आम के होने का प्रमाण 2000 ईसा पूर्व तक खोजा है. यानी आम के भारत में विकसित होने और फूलने-फलने का इतिहास कम-से-कम चार हजार साल से ज्यादा पुराना तो है ही.
इस लंबे इतिहास में आम ने देश के हर भूगोल के साथ खुद को ढाला और निखारा है. इसी से हमें आमों की सैकड़ों किस्में मिली हैं, जिनसे फिर आगे कईं संकर किस्में निकली हैं. यानी आज जो हमारे सामने आम हैं वे सिर्फ फल नहीं बल्कि भारतीय जैव संपदा की कहानी भी कहते हैं और उसका इतिहास भी बताते हैं, इसलिए आम की किसी किस्म का लुप्त हो जाना सिर्फ एक महत्वपूर्ण जैव संपदा का लुप्त हो जाना ही नहीं, इतिहास के एक पन्ने का गुम हो जाना भी है.
आम की जड़े भारत की जमीन में ही नहीं उसकी उसकी संस्कृति में भी काफी गहराई तक हैं. भारतीय गांवों में आम की अमराई का अपना ही महत्व है तो बहुत सारे यज्ञ और पूजा में आम के पत्ते सबसे महत्वपूर्ण सामग्री होते हैं. कुछ देवों का निवास ही आम के नीचे माना जाता है. भारतीय जब दुनिया भर में फेले तो वे अपने साथ आम भले ही न ले जा सके हों, आम की संस्कृति अपने साथ जरूर ले गए.
भारतवंशी अंग्रेजी साहित्यकार वीएस नायपॉल की कई कहानियों में ट्रिनीडाड और टबैगो के उनके उस बचपन का जिक्र है, जहां पूजा सिर्फ़ इसलिए रुकी है कि भारत से जब आम की पत्तियां आएंगी तभी पूजा हो सकेगी. उनका बालमन लगातार यह समझने की कोशिश करता है कि जो पेड़ यहां होता ही नहीं तो उसकी पत्तियां क्यों महत्वपूर्ण हैं.
आम भारत से ही निकल कर पूरी दुनिया के बहुत से देशों में फैला है, ख़ासकर एशिया के कईं देशों तक. वैसे पहुँचा तो यह ब्राज़ील तक है लेकिन वे एशियाई देश ही हैं जो आम के विश्व बाज़ार में भारत को कड़ी टक्कर देते हैं. आम को ऐसा ज़्यादातर विस्तार 14वीं और 15वीं सदी के बाद ही मिलना शुरू हुआ, और चीन में तो यह 20वीं सदी के उत्तरार्ध में पहुँचा.
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चीन कैसे पहुँचा आम

चीन में आम के पहुँचने की कहानी बहुत दिलचस्प है. पाकिस्तान को लगा कि चीन से रिश्ते गांठने चाहिए क्योंकि तब तक भारत-चीन के बीच 1962 का युद्ध हो चुका था. वह 1968 की गर्मियां थीं जब माओ से मिलने पाकिस्तान के विदेश मंत्री सैय्यद शरीफुद्दीन पीरजादा एक विशेष विमान से बीजिंग पहुँचे. उपहार के तौर पर वे अपने साथ उम्दा किस्म के 40 पेटी आम ले गए. उस समय तक यह एक ऐसा फल था जिससे चीन के ज़्यादातर लोग अनजान थे.
अब इतने सारे आमों का माओ क्या करते, उन्होने वे सारे आम उन मजदूर नेताओं को भेज दिए जो उस समय सिन्हुआ विश्वविद्यालय में कब्ज़ा किए बैठे थे. आम मिलने पर उन नेताओं ने तय किया कि क्योंकि यह कॉमरेड माओ से मिला अनमोल उपहार है इसलिए इनमें से एक-एक आम बीजिंग की सभी फैक्ट्रियों में भेज दिया जाए. आम का स्वाद तो हर किसी को नहीं मिल सका लेकिन यह कहानी ज़रूर पूरे चीन में फैल गई और आम मजदूरों के प्रति माओ के प्रेम का प्रतीक बन गए.
एक बार आम जब लोगों के किस्सों और उनकी लोकोकत्तियों में पहुँचा तो जल्द ही उनके खेतों में भी पहुँच गया. अब चीन के कईं इलाकों में आम की उपज होती है. भारत भले ही आम का सबसे बड़ा उत्पादक देश हो लेकिन दूसरे नंबर पर अब चीन ही है.
यह ठीक है कि भारत अभी भी आम का सबसे बड़ा उत्पादक है, गुणवत्ता और साख के मामले में भी भारतीय आम बहुत आगे हैं. लेकिन निर्यात के जो इन्फ्रास्ट्रक्चर और लॉजिस्टिक्स चीन के पास हैं भारत के पास वे नहीं हैं. हालांकि फिलीपींस जैसे देश भी इस बाजार में भारत को मात देने की कोशिश में जुटे रहते हैं.
कुछ समय पहले ही फिलीपींस ने घोषणा की थी कि वह आम के स्वाद और उसकी शेल्फ लाइफ को बढ़ाने के लिए जेनेटिक इंजीनियरिंग से उसकी नईं किस्में विकसित कर रहा है, इस कोशिश के नतीजे अभी तक सामने नहीं आए हैं.
खाद्य एवं कृषि संगठन के आंकड़ें बताते हैं कि दुनिया में आम की उपज पांच करोड़ टन से ज्यादा होती है, जिसमें भारत की हिस्सेदारी दो करोड़ टन से ज्यादा है और चीन की 50 लाख टन के आस-पास. थाईलैंड, इंडोनेशिया और मैक्सिको इसके बाद आते हैं. यानी दुनिया में हर दस आम में से चार भारत के होते हैं.
आमतौर पर जल्द ही ख़राब हो जाने की वजह से आम ज़्यादातर उपभोग स्थानीय स्तर पर ही होता है. भारत से आम का निर्यात 18 से 20 लाख टन के बीच ही होता है, यह पांच फ़ीसदी की दर से बढ़ ज़रूर रहा है. अमेरिका आम का सबसे बड़ा आयातक है. भौगोलिक निकटता की वजह से वहां सबसे ज़्यादा आम ब्राज़ील से पहुँचता है. उसके बाद भारत का नंबर आता है.
डेढ़ दशक पहले तक अमेरिका ने भारत से आम के आयात पर पाबंदी लगा दी थी, वजह थी कीटनाशकों का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल. लेकिन यह मामला अब सुलझ गया है. भारतीय आमों का सबसे बड़ा बाज़ार पश्चिम एशिया है.
हालांकि इतने बड़े बाज़ार, इतनी संभावनाओं और गहरी सांस्कृतिक जड़ों के बावजूद आम पर भारत में बहुत ज़्यादा शोध नहीं होता.
लखनऊ के पास रहमानखेड़ा में इसके लिए एक मैंगो रिसर्च सेंटर ज़रूर है जो केंद्रीय बागवानी संस्थान की एक शाखा के रूप में काम करता है. उसके पास भी गिनाने लायक बहुत ज़्यादा उपलब्धियां नहीं हैं.
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