कोरोना महामारी के बहाने नागरिकों की सरकारी निगरानी किस हद तक जाएगी
कोरोना महामारी ने भले ही मज़बूत मौजूदा विश्व व्यवस्था को बुरी तरह से हिलाकर रखा दिया हो लेकिन आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस के इकोसिस्टम को आगे बढ़ाने में इसने अहम भूमिका निभाई है.
न केवल कोरोना वायरस की वैक्सीन बनाने और वायरस को फैलने से रोकने के काम में इस तकनीक की मदद ली जा रही है, बल्कि नागरिकों की निजता का उल्लंघन करने और नागरिकों पर निगरानी का दायरा बढ़ाने के लिए भी अभूतपूर्व तरीक़े से इसका इस्तेमाल किया जा रहा है.
आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस को लेकर जानकारों की चेतावनी के बावजूद कोरोना महामारी से जंग में ये बेहद अहम साबित हो रहा है.
आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस पर दो कड़ी की इस सिरीज़ की पहली कड़ी पढ़िए यहां - कोरोना महामारी से जंग में कितना काम आएगा आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस
हाल में बीबीसी हार्डटॉक कार्यक्रम में जाने-माने दार्शनिक और लेखक युवाल नोआ हरारी ने कहा था, "लोग पीछे मुड़कर बीते सौ सालों की तरफ़ देखेंगे तो पाएंगे कि कोरोनो महामारी मानव इतिहास का वो दौर था जब सर्विलांस की नई ताक़तों ने अपना सिक्का जमाया, ख़ासकर इस दौर में इंसान के शरीर की मशीन के ज़रिए निगरानी करने की क्षमता बढ़ी है. मुझे लगता है कि इक्कीसवीं सदी में सबसे महत्वपूर्ण विकास यही है कि इंसान को हैक करने में कामयाबी मिल गई है."
हरारी कहते हैं, "बायोम्ट्रिक डेटा एक ऐसा सिस्टम बनाने में सक्षम है जो इंसान को इंसान से बेहतर समझता है."
इस जाने-माने इसराइली लेखक का इशारा उन समार्टफ़ोन मोबाइल ऐप्स और ख़ास ब्रेसलेट की तरफ़ था जो ये पढ़ सकेंगे कि इंसान के दिमाग़ में क्या चल रहा है और वो कैसी भावनाओं से गुज़र रहा है.
एक हो रहे हैं 'मैन और मशीन'
सुनने में ये किसी साइंस फ़िक्शन की कहानी जैसा लगता है, लेकिन जल्द ही ये सच्चाई बन सकता है.
वैन्कूवर में मौजूद तकनीकी मामलों के जानकार कुमार बी. गंधम ने बीबीसी को बताया कि "इस तरह का एक प्रयोग अब एडवांस्ड स्टेज पर है जिसमें आप जो कुछ सोचते हैं उसके बारे में मशीन को पता चल जाएगा."
ड्राइवर-लेस कार बनाने के काम में लगी इलोन मस्क की कंपनी न्यूरालिंक इस प्रयोग को लिए ज़रूरी आर्थिक मदद की व्यवस्था कर रही है.
15.8 करोड़ डॉलर की फ़ंडिंग के साथ शुरू हुए अमरीका के कैलिफ़ोर्निया की इस स्टार्ट-अप कंपनी ने दुनिया का सबसे छोटा चिप बनाया है जिसे इंसान के दिमाग़ के भीतर फिट किया जा सकेगा.
इंसान के बाल से बारीक इस चिप को रक्तवाही धमनियों के चारों ओर बांधा जा सकता है. ये चिप एक हज़ार अलग-अलग जगहों की पहचान कर सकेंगे. इसे एक वीयरेबल डिवाइस (शरीर पर पहनी जाने वाली घड़ी जैसी छोटी मशीन) से जोड़ने पर इंसान के दिमाग़ में क्या चल रहा है ये जाना जा सकेगा.
इस तरह की जानकारी इकट्ठा होने के बाद मशीन लर्निंग इससे एक पैटर्न बना सकेगी, इसे वैज्ञानिक भाषा में डीप लर्निंग कहते हैं. इस प्रयोग में निवेश करने वालों को उम्मीद है कि इसके ज़रिए जल्द ही वो समय आएगा जब मशीनें वही सोच सकेंगी जो इंसानी दिमाग़ सोच सकता है.
लेकिन इसके परिणाम भयंकर हो सकते हैं. अगर ये तकनीक सफल हो जाती है और कमर्शियल इस्तेमाल के लिए उपलब्ध हो जाती है तो निरंकुश नेता इसका इस्तेमाल भविष्य में ये जानने के लिए कर सकते हैं कि वो जो भाषण दे रहे हैं कौन उसे पसंद कर रहा है और कौन नहीं.
हरारी कहते हैं कि अगर आप किसी से नाराज़ होते हैं, किसी पर ग़ुस्सा होते हैं या फिर नेता के भाषण से असहमत होते हुए भी उसके लिए बेमन से ताली बजाते हैं तो ये तकनीक नेता को इस बारे में जानकारी दे देगी.
इसके ज़रिए व्यक्तियों और समूहों दोनों को टारगेट किया जा सकता है और उनके विचारों को पढ़ा और बदला जा सकता है. इससे विरोध का दमन किया जा सकेगा और एक तरह से कहा जाए तो डेमोक्रेसी का ख़ात्मा हो सकता है.
आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस क्या है?
जानकार कहते हैं कि आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेन्स एक तरह की तकनीक है जो कंप्यूटर को इंसान की तरह सोचना सिखाती है. इस तकनीक में मशीनें अपने आसपास के परिवेश को देखकर जानकारी इकट्ठा करती हैं और उसी के अनुरूप प्रतिक्रिया देती हैं.
इसके लिए सटीक डेटा की ज़रूरत होती है, हालांकि मशीन लर्निंग और एल्गोरिद्म के ज़रिए ग़लतियां दुरुस्त की जा सकती हैं. इससे समझा जा सकता है कि आज के दौर में डेटा क्यों बेहद महत्वपूर्ण बन गया है.
कितना सुरक्षित है आरोग्य सेतु मोबाइल ऐप?
इसी साल दो अप्रैल को भारत सरकार ने कोरोना वायरस के मामलों को ट्रेस करने के लिए एक मोबाइल ऐप लॉन्च किया, जिसका नाम है आरोग्य सेतु. लॉन्च होने के बाद से ही ये मोबाइल ऐप विवादों में घिर गया.
सबसे पहले इस ऐप पर सवाल तब उठाए गए जब सरकार ने सभी सरकारी और ग़ैर-सरकारी कर्मचारियों के लिए ये ऐप डाउनलोड करना बाध्यकारी कर दिया.
ये सवाल उठाया गया कि ऐप यूज़र के फ़ोन के ब्लूटूथ और जीपीएस का इस्तेमाल करता है जिस कारण इससे यूज़र की सभी गतिविधियों के बारे में जाना जा सकता है.
इस ऐप की प्राइवेसी पॉलिसी में भी स्पष्ट लिखा था कि ऐप इस्तेमाल करने पर "रजिस्ट्रेशन के वक़्त यूज़र के लोकेशन के बारे में जानकारी इकट्ठा कर सर्वर में अपलोड की जाएगी. "
मोदी सरकार का कहना है कि "ब्लूटूथ के ज़रिए कॉन्टैक्ट ट्रेसिंग, कॉन्टैक्ट मैपिंग और संभावित हॉटस्पॉट की पहचान कर, ये ऐप कोरोना महामारी को फैलने से रोकने में मदद करेगा."
हाल में जारी एक बयान में सरकार ने कहा है कि 26 मई तक देश में 11.4 करोड़ लोग इस ऐप का इस्तेमाल कर रहे हैं. सरकार का दावा है कि, "दुनिया के किसी भी कॉन्टैक्ट ट्रेसिंग ऐप की तुलना में ये कहीं अधिक है."
12 भाषाओं में उपलब्ध इस ऐप के 98 फ़ीसदी य़ूज़र ऐन्ड्रॉएड ऑपरेटिंग सिस्टम के ज़रिए इस्तेमाल कर रहे हैं. सरकार के बयान के अनुसार इस ऐप के ज़रिए अब तक नौ लाख यूज़र्स से संपर्क किया जा चुका है और उन्हें क्वारंटीन में रहने, सावधानी बरतने या फिर टेस्टिंग करवाने के लिए कहा जा चुका है.
और इसके ज़रिए जो डेटा इकट्ठा किया जा रहा है उसका क्या? इस बारे में सरकार का कहना है कि ऐप के ज़रिए जो डेटा इकट्ठा किया जा रहा है वो महामारी के बाद ख़ुद-ब-ख़ुद ही नष्ट हो जाएगा.
पहले इस मामले में विवादों से बचने की कोशिश कर रही सरकार ने अब इस मोबाइल ऐप का प्रोडक्ट डिज़ाइन और सोर्स कोड भी सार्वजनिक कर दिया है.
अब तक दुनिया भर की 30 से अधिक सरकारें कोविड-19 के ख़िलाफ़ लड़ने के लिए इस तरह के मोबाइल ऐप लॉन्च कर चुकी हैं.
कोविड-19 क़ॉन्टैक्ट ट्रेसिंग के लिए चीनी सरकार का आधिकारिक मोबाइल ऐप यूज़र के मूवमेन्ट को कंट्रोल करता है, उनका डेटा इकट्टा करता है जो निजता का उल्लंघन है लेकिन महामारी के बाद इस मोबाइल ऐप को हटाया जाएगा या नहीं इस पर न तो भारत सरकार कुछ कह रही है और न ही चीनी सरकार.
सैद्धान्तिक रूप से ऐसा कुछ नहीं जो महामारी के ख़त्म होने के बाद भी सरकारों को इसे बाध्यकारी करने से रोक सके.
दुनिया भर की सरकारें किस तरह आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस का इस्तेमाल कर रही हैं, इस बारे में पिछले साल के आख़िर में अमरीकी थिंक टैंक कार्नेगी ने एक रिपोर्ट जारी की थी.
इस रिपोर्ट के अनुसार वो सरकारें जो ख़ुद को उदार लोकतंत्र कहती हैं वो आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस आधारित सर्विलांस का अधिक इस्तेमाल कर रही हैं. चीनी और अमरीकी कंपनियों ने अब तक क़रीब सौ देशों की सरकारों को आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस तकनीक बेची है.
रिपोर्ट के अनुसार उदार लोकतंत्रिक सरकारों की अपेक्षा निरंकुश सरकारें इस तकनीक का अधिक ग़लत इस्तेमाल कर सकती हैं.
रिपोर्ट में कहा गया है, "चीन, रूस और सऊदी अरब जैसे देश अपने नागरिकों की निगरानी करने के लिए आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस तकनीक का इस्तेमाल कर रहे हैं. लेकिन अपने राजनीतिक हित साधने के लिए कोई भी इस तकनीक का ग़लत इसतेमाल कर सकता है."
कुमार बी. गंधम कहते हैं कि लोगों का बायोमेट्रिक डेटा इकट्ठा करने वाली भारतीय व्यवस्था, आधार पहले ही विवादों में घिरी है.
वो कहते हैं कि, "इसे लेकर न केवल हैकिंग से जुड़ी चिंताएं हैं बल्कि ये भी बड़ी चिंता है कि तकनीक का इस्तेमाल कर सरकार किसी व्यक्ति की जासूसी कर सकती है."
वो कहते हैं, "आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस एल्गोरिद्म और मशीन लर्निंग बड़ी मात्रा में डेटा पर निर्भर करते हैं. भारत सरकार के पास 1.3 अरब लोगों का डेटा है. इसका इस्तेमाल लोगों के बैंक खाते में सीधे पैसा पहुंचाने के लिए किया जा सकता है, तो लोगों के सर्विलांस के लिए भी."
सरकारी आश्वासन के बावजूद आरोग्य सेतु ऐप को लेकर वो नर्वस महसूस करते हैं. वो कहते हैं, "मेरी चिंता ये है कि यूज़र होने के नाते मैं आरोग्य सेतु ऐप को कंट्रोल नहीं कर सकता बल्कि इसका कंट्रोल सरकार के हाथों में है. अगर सरकार इसके ज़रिए मेरे मूवमेन्ट की जानकारी रख सकती है तो एक यूज़र के तौर पर ऐप को लेकर सरकार की आलोचना कर सकता हूं."
न्यूयॉर्क में मौजूद आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस एक्सपर्ट योगेश शर्मा कहते हैं कि "किसी भी थर्ड पार्टी ऐप के इस्तेमाल को लेकर डेटा प्रावेसी और मॉनिटरिंग की चिंता होती है."
उनका कहना है कि भारत जैसे देशों को नियमन की ऐसी व्यवस्था लाने की ज़रूरत है जिसमें यूज़र को न केवल अपना ऑनलाइन डेटा नष्ट करने की ताक़त मिले बल्कि वो कंपनियों को ये गुज़ारिश कर भी कर सकें कि उनका डेटा किसी के साथ साझा न किया जाए या फिर कंपनी के सर्वर से उनका डेटा हमेशा के लिए मिटाया जाए.
हालांकि आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस पर काम करने वाली सिंगापुर की कंपनी QUILT.AI का मानना है कि डेटा को लेकर अकारण अधिक चिंता जताई जा रही है.
कंपनी के सह-संस्थापक अंगद चौधरी और अनुराग बैनर्जी कहते हैं कि आरोग्य सेतु ऐप में व्यक्ति की पहचान को उसके ट्रेवल हिस्ट्री से जोड़कर देखने की कोशिश की गई है.
"हम इस ऐप के बारे में बोलने के लिए योग्य तो नहीं हैं लेकिन हम मशीन लर्निंग मॉडल्स के बारे में जानते हैं और जितना सटीक डेटा होगा मॉडल भी उतना ही कारगर होगा. अगर ये ऐप डेटा के तौर पर जगह, व्यक्ति की पहचान और ट्रेवल हिस्ट्री का इस्तेमाल करता है तो चेतावनी इसी पर आधारित होगी, हमें नहीं लगता कि इससे सर्विंलांस का ख़तरा हो सकता है."
डेटा ही सोना, डेटा ही संपत्ति
अंगद चौधरी और अनुराग बैनर्जी कहते हैं कि अगर आप देखें तो समझेंगे कि हमने हमेशा से बहुत डेटा जेनरेट किया है.
वो कहते हैं, "सभी देशों के लिए डेटा इकट्ठा करना एक नियम के जैसा है. आप जनगणना को ही ले लें. नागरिकों पर निगरानी रखने की संभावना तो हमेशा रहती आई है. हमने इतिहास में इसके उदाहरण देखे हैं. अलग-अलग प्लेटफॉर्म पर लोगों का डेटा पहले ही मौजूद है. बैंकों, ई-कॉमर्स प्लेफॉर्म, एयरलाइन्स, ओला, ऊबर जैसी कंपनियों के पास आपका काफ़ी डेटा मौजूद है. कोई भी कंपनी जो किसी इंसान से संपर्क करती है वो उसके बारे में कुछ न कुछ डेटा रखती है."
इसके अलावा अब लोग फ्री दिखने वाले सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर भी अपनी जानकारी साझा करते हैं. सही मायनों में ये प्लेटफॉर्म फ्री नहीं होता. आप इन्हें अपना डेटा देते हैं जो आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस इकोसिस्टम के लिए सोने की खदान के समान है. ये व्यवस्था लेन-देन पर आधारित होती है जिसमें आप कुछ पाते हैं तो कुछ देते भी हैं. और इसकी बारीकियां उस प्राइवेसी पॉलिसी में लिखी होती हैं जिन्हें आप रजिस्ट्रेशन के वक़्त बिना पढ़े स्वीकार कर लेते हैं यानी "आई अग्री" बटन दबा देते हैं.
फ़ेसबुक, ट्विटर, अमेज़न और अलीबाबा जैसे ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म इस तरह काम करते हैं. आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस इकोसिस्टम का इस्तेमाल करते हुए ये आपकी और लाखों लोगों की ज़िंदगी का अहम हिस्सा बन जाते हैं.
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सोच कर देखें- गूगल पर आप जितना सर्च करते हैं उतना गूगल आपके बारे में जानने लगता है. हम गूगल मैप का इस्तेमाल करते हैं तो गूगल को पता चलता है कि हम कहां से कहां जाना चहते हैं. सोशल मीडिया पर हम जितना अधिक समय बिताते हैं उनके लिए वो उतना ही फ़ायदेमंद होता है. हम अपनी पसंद नापसंद के बारे में लिखते पढ़ते हैं और मशीनें हमारी सोच, राजनीतिक रूझान और वैचारिक सोच के बारे में जानकारी इकट्ठा कर लेती हैं.
इससे कंपनियों को सामान बेचने में आसानी होती है. हालांकि निरंकुश सरकारें इसके ज़रिए नागरिकों पर नज़र रख सकती हैं. इस जानकारी के ज़रिए राजनीतिक नेताओं के कैंपेन मैनेजर ख़ास समुदायों तक ख़ास जानकारी पहुंचा सकते हैं.
न्यूयॉर्क में मौजूद आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस एक्सपर्ट योगेश शर्मा कहते हैं कि हम कम्यूटर पर काम करना शुरू करते ही हम अपने डिजिटल निशान छोड़ते जाते हैं, इसी का इस्तेमाल कंपनियां और सरकारें कर सकती हैं.
एम्बर्स नाम की कंपनी रोज़ाना सोशल मीडिया पर पोस्ट की जा रही हर तरह की जानकारी पढ़ कर विज्ञापन कंपनियों के लिए ट्रेंड्स का पता लगाती है.
QUILT.AI नाम की कंपनी कहती है कि वो इंटरनेट पर इंसान के व्यवहार को बेहतर सनमझने की कोशिश करती है. इस कंपनी के सह-संस्थापक अंगद चौधरी और अनुराग बैनर्जी कहते हैं कि वो सामाजिक मुद्दो पर काम करते हैं.
डेटा लेन-देन की व्यवस्था से वो इनकार नहीं करते और मानते हैं कि इसके लिए किसी टूल या सॉफ्टवेयर को ज़िम्मेदार ठहराना पेड़ से गिरने पर पेड़ को ज़िम्मेदार ठहराने जैसा है.
वो कहते हैं कि ये संपर्क दोनों के हित में होता है, कंपनी को कुछ मिलता है तो इसके बदले यूज़र को भी कुछ फ़ायदा होता है.
लेकिन इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता कि मौजूदा दौर में आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस, डीप लर्निंग और एल्गोरिद्म का मिला-जुला खेल इससे कहीं आगे बढ़ चुका है.
ये हमारी ज़िंदगी को कंट्रोल करने की ताक़त रखता है. निरंकुश सरकारें और बड़ी तकनीकी कंपनियां हमारे निजी ज़िंदगियों में दख़ल दे रही हैं हमारे बारे में कहीं अधिक जानकारी इकट्ठा कर रही हैं.
आज के दौर में कितनी प्रीवेसी बाक़ी है?
मोटे तौर पर ये सवाल एक दूसरे सवाल पर निर्भर करता है कि, सुरक्षित रहने के लिए हम अपनी प्राइवेसी के साथ कितना समझौता कर सकते हैं?
दिल्ली में मौजूद डेटा विश्लेषक ललित कुमार कहते हैं कि ये सीधे तौर पर इस बात से जुड़ा है कि हम उन लोगों पर कितना भरोसा करते हैं जो हमारा डेटा मैनेज कर रहे हैं.
योगेश शर्मा कहते हैं कि किसी यूज़र के लिए उसकी प्राइवेसी बेहद महत्वपूर्ण है और उस पर उसका पूरा कंट्रोल होना चाहिए.
तो क्या हमें इसके बारे में चिंतित होना चाहिए?
प्रोफ़ेसर हरारी कहते हैं कि कम से कम इस बारे में जानकरी तो होनी ही चाहिए. वो कहते हैं कि आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस ऐसी तकनीक है जिसका इस्तेमाल धरती को स्वर्ग बनाने के लिए किया जा सकता है तो नर्क बनाने के लिए भी किया जा सकता है.
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