जिस साल और जिस महीने इस देश में संविधान लागू हुआ था, उसी साल और उसी महीने वे पैदा हुए थे. लेकिन उन्होंने आख़िरी सांस ऐसे समय में ली, जब बहुत सारे लोगों को यह फ़िक्र सता रही है कि यह संविधान ख़तरे में तो नहीं है?
राहत इंदौरी: 'लहू से मेरी पेशानी पे हिंदुस्तान लिख देना'
जिस साल और जिस महीने इस देश में संविधान लागू हुआ था, उसी साल और उसी महीने वे पैदा हुए थे. लेकिन उन्होंने आख़िरी सांस ऐसे समय में ली, जब बहुत सारे लोगों को यह फ़िक्र सता रही है कि यह संविधान ख़तरे में तो नहीं है?
राहत इंदौरी के इस तरह जाने की विडंबनाएं कई हैं. मंगलवार सुबह ही उन्होंने ट्वीट कर जानकारी दी कि उन्हें कोरोना है- यह भी ताकीद की कि कोई उन्हें या उनके परिवारवालों को फ़ोन न करे, वे ख़ुद अपनी तबीयत का हाल सोशल मीडिया पर डालते रहेंगे.
शाम होते-होते ख़बर आ गई कि वे इस दुनिया को छोड़कर चले गए. एक वैश्विक महामारी के आगे इंसानी बेबसी की बहुत आम मालूम पड़ने वाली इस मिसाल के बहुत तकलीफ़देह मायने हैं. राहत इंदौरी के न रहने से कुछ उर्दू शायरी फीकी पड़ गई है, कुछ इंदौर फीका पड़ गया है और कुछ हिंदुस्तान का वह पुरख़ुलूस मिज़ाज फीका पड़ गया है जिसमें हर मुसीबत का सामना करने का बेलौस जज़्बा है.
उर्दू की समकालीन दुनिया में मशहूर शायरों की कमी नहीं. ऐसे भी शायर कम नहीं जो आमफ़हम ज़ुबान और मुहावरे में लिखते हुए बहुत लोकप्रिय भी रहे और अपने अदबी सलीक़े से अपना लोहा भी मनवाते रहे. बशीर बद्र, मुनव्वर राना और वसीम बरेलवी जैसे नाम इस सिलसिले में फ़ौरन याद आते हैं. फिर भी राहत इंदौरी में एक बात थी जो दूसरों से कुछ अलग और ऊपर थी. मौजूदा राजनीतिक-सामाजिक माहौल में वे बहुत बेधड़क और बेलौस अंदाज़ में अपनी बात कहते थे.
यह काम इस समय बहुत आसान नहीं है. एक तरफ़ जब ये चिंता जताई जाती कि बहुसंख्यकवाद की चुनौती अपने चरम पर है और अल्पसंख्यक समुदायों और प्रगतिशील लोगों को हाशिए पर धकेलने की कोशिश जारी है, तब राहत इंदौरी जैसा शायर ही याद दिला सकता था कि यह हिंदुस्तान सबका है और सबके लिए है. उनकी एक बहुत मशहूर हुई ग़ज़ल के दो शेर यहां उद्धृत करना ज़रूरी लग रहा है जो प्रतिरोध की बहुत मज़बूत आवाज़ बनाते हैं.
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'लगेगी आग तो आएंगे घर कई ज़द में , यहां पे सिर्फ़ हमारा मकान थोड़ी है '
' सभी का ख़ून है शामिल यहां की मिट्टी में , किसी के बाप का हिंदुस्तान थोड़ी है . '
यह पूरी ग़ज़ल उन पस्त हिम्मत होते दिलों को बहुत हौसला देती रही जो हाल के वाक़यात से ख़ुद को मायूस और डरा हुआ पा रहे थे. यह दरअसल अपनी ज़मीन पर अपने दावे का बुलंद इक़बाल था जो इस पूरी ग़ज़ल में बहुत ख़ुलूस के साथ खुलता रहा.
लेकिन यहां इन दो अशआर को उद्धृत करने का एक मक़सद और है. पहला तो इस बात की ओर ध्यान खींचना कि राहत बहुत सीधी लगने वाली बात में भी एक गहरा अर्थ निकाल लाते हैं. यानी जब वे कहते हैं कि आग लगेगी तो सिर्फ़ उनका घर नहीं जलेगा, गली में सबके मकान ज़द में आएंगे, तो वे बस एक दंगे को लेकर बात नहीं कर रहे होते हैं.
वे दरअसल याद दिलाते हैं कि हिंदुस्तान नाम का यह मुल्क किसी इकलौती आस्था का इकलौता मकान नहीं है, यह गली कई विश्वासों, कई तहज़ीबों का घर है और एक झुलसेगा तो सब झुलसेंगे. यानी आप एक घर में आग नहीं लगा रहे, पूरे हिंदुस्तान को लपटों के हवाले कर रहे हैं.
दूसरी बात यह कि अमूमन ग़ज़ल को बहुत मुलायम लफ़्ज़ों की विधा माना जाता है. हालांकि इसमें तोड़फोड़ बहुत हुई है और बहुत साहसिक प्रयोग भी हुए हैं, लेकिन 'बाप' जैसे शब्द का इतना हेठी भरा इस्तेमाल कहीं और नहीं दीखता और इसके बावजूद ग़ज़ल की गरिमा कहीं खंडित नहीं होती. दरअसल यह राहत इंदौरी का करिश्मा था कि उन्हें मालूम था, कौन सी बात कैसे कही जाए. वे बड़ी सहजता से बहुत तीखी बातें कह जाते थे जो समकालीन राजनीति और समाज को चीरती हुई मालूम होती थीं. 'सरहद पर तनाव है क्या? / 'ज़रा पता तो करो चुनाव है क्या?' जैसे अशआर में ली गई चुटकी भीतर तक ज़ख़्म करने वाली है.
लेकिन एक बात और है. अमूमन इस राजनीतिक-सामाजिक कथ्य से जुड़ी शायरी को उसके विषय के हिसाब से पढ़ते हुए हम भूल जाते हैं कि राहत इंदौरी के पास शिल्प की बहुलता भी कमाल की थी. ग़ज़ल कई अर्थों में अपने रचयिताओं को एक बंदिश में रखती है- याद दिलाती है कि क़ाफ़िए और बहर का एक अनुशासन है जिसके बाहर वे न जाएं.
बेशक, इस सरहद के बावजूद तमाम बड़े शायरों ने इसमें बड़ी-बड़ी संभावनाएं पैदा की हैं. बड़ी और छोटी बहरों के बीच लफ़्ज़ों का जादू जैसे एक साथ शोले और फूल खिलाता रहा है. राहत इंदौरी भी यह कमाल करते हैं. उनका अपना एक शोख़ अंदाज़ है जो जब खुलता है तो इस तरह कि फ़िज़ाएं खिलखिलाने सी लगती हैं. उनकी यह ग़ज़ल इस लिहाज़ से अनूठी है-
' उसकी कत्थई आंखों में हैं जंतर-मंतर सब , चाक़ू-वाक़ू, छुरियां-वुरियां, ख़ंजर-वंजर सब '
' जिस दिन से तुम रूठीं मुझ से रूठे-रूठे हैं , चादर-वादर, तकिया-वकिया, बिस्तर-विस्तर सब '
' मुझसे बिछड़ कर वह भी कहाँ अब पहले जैसी है , फीके पड़ गए कपड़े-वपड़े, ज़ेवर-वेवर सब '
' आख़िर मैं किस दिन डूबूँगा फ़िक्रें करते हैं , कश्ती-वश्ती, दरिया-वरिया लंगर-वंगर सब '
ऐसे शेर ऐसी ग़ज़लें उनके यहां बहुतायत में हैं जिनको लगातार उद्धृत करने का मन करता है. इनमें बग़ावत का शोख़ रंग तो है ही, मोहब्बत का रवायती चुलबुलापन भी है, शहरों और मुल्क को लेकर एक अजब सी दीवानगी भी है और इंसानी वजूद के फ़ानी होने का जो पुराना फ़लसफ़ा है, उसकी भी कई रंगते हैं.
एक दी हुई विधा की बंदिश का सम्मान करते हुए, उसमें अपना रंग जोड़ते हुए जो शायर अपनी बात कहता है, वह बड़ा होता है.
क्या अफ़सोस की बात है कि ऐसे शायर को भी हाल के दिनों में हमले झेलने पड़े, सफ़ाई देनी पड़ी. उनके नाम पर चला दिया गया एक फ़र्ज़ी शेर सोशल मीडिया पर वायरल हुआ और उनको आकर बताना पड़ा कि यह उनका शेर नहीं है.
बहरहाल, राहत इंदौरी ने फ़िल्मी गीत भी लिखे- और कई जाने-पहचाने गीत लिखे. लेकिन यह भी एक करिश्मा है कि निदा फ़ाज़ली या कैफ़ी आज़मी की तरह उनकी पहली पहचान फ़िल्मी गीतकार की नहीं रही- राहत इंदौरी का नाम लेते ही सबको एक शायर का ही ख़याल आता है.
सच तो ये है कि उन्होंने जो फ़िल्मी गीत लिखे, वे उस पाये के नहीं हैं जैसी उनकी बाक़ी शायरी है. शायद इसलिए कि कारोबारी ढंग से लिखने का सलीक़ा उन्होंने अब तक पूरी तरह नहीं सीखा था.
एक बात और है- किसी शायर या कवि में ऐसा जज़्बा कहां से आता है जो उसे राहत इंदौरी बनाता है? ज़मीन से अपने जुड़ाव से. राहत का मूल नाम राहत क़ुरैशी था, बाद में उन्होंने अपने-आप को इंदौरी कहा.
मज़े की बात यह कि इंदौर की हल्की-फुल्की समस्याओं पर भी शायरी की. लेकिन यह इंदौर उनको अपने मुल्क से जोड़ता था, सारी दुनिया से जोड़ता था. और वे सबकुछ भूल जाएं, अपनी हिंदुस्तानी पहचान नहीं भूलते थे. चाहे जिस मिज़ाज में कहा हो, लेकिन यह शेर उनके निधन के बाद बहुत शिद्दत से याद आया-
'मैं जब मर जाऊं, मेरी अलग पहचान लिख देना, लहू से मेरी पेशानी पे हिंदुस्तान लिख देना.'
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