जीडीपी क्या होती है और आम जनता के लिए ये क्यों अहम है?
सोमवार को सरकार मौजूदा वित्त वर्ष में अप्रैल-जून तिमाही के लिए जीडीपी के आँकड़े जारी करेगी.
बीते कुछ वर्षों से भारत की अर्थव्यवस्था सुस्ती के दौर में बनी हुई है, लेकिन पिछली तिमाही के ये आँकड़े बीते कुछ दशकों के सबसे बुरे आँकड़े हो सकते हैं.
ऐसा इसलिए है, क्योंकि इस साल अप्रैल से जून के दौरान पूरे देश में लॉकडाउन लागू किया गया था ताकि कोरोना वायरस को फैलने से रोका जा सके. खाने-पीने की चीज़ों और आवश्यक वस्तुओं की सप्लाई को छोड़कर बाक़ी सभी आर्थिक गतिविधियाँ इस दौरान ठप रही हैं.
आने वाले जीडीपी के आँकड़े हर किसी के लिए अहम हैं, क्योंकि भारत में कोविड-19 महामारी के फैलने के तुरंत बाद अर्थव्यवस्था में आई सुस्ती की यह पहली आधिकारिक स्वीकारोक्ति होगी.
तो सबसे पहले यह समझते हैं कि जीडीपी के आँकड़े होते क्या हैं.
क्या है जीडीपी?
ग्रॉस डोमेस्टिक प्रोडक्ट यानी सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) किसी एक साल में देश में पैदा होने वाले सभी सामानों और सेवाओं की कुल वैल्यू को कहते हैं.
रिसर्च और रेटिंग्स फ़र्म केयर रेटिंग्स के अर्थशास्त्री सुशांत हेगड़े का कहना है कि जीडीपी ठीक वैसी ही है, जैसे 'किसी छात्र की मार्कशीट' होती है.
जिस तरह मार्कशीट से पता चलता है कि छात्र ने सालभर में कैसा प्रदर्शन किया है और किन विषयों में वह मज़बूत या कमज़ोर रहा है. उसी तरह जीडीपी आर्थिक गतिविधियों के स्तर को दिखाता है और इससे यह पता चलता है कि किन सेक्टरों की वजह से इसमें तेज़ी या गिरावट आई है.
इससे पता चलता है कि सालभर में अर्थव्यवस्था ने कितना अच्छा या ख़राब प्रदर्शन किया है. अगर जीडीपी डेटा सुस्ती को दिखाता है, तो इसका मतलब है कि देश की अर्थव्यवस्था सुस्त हो रही है और देश ने इससे पिछले साल के मुक़ाबले पर्याप्त सामान का उत्पादन नहीं किया और सेवा क्षेत्र में भी गिरावट रही.
भारत में सेंट्रल स्टैटिस्टिक्स ऑफ़िस (सीएसओ) साल में चार दफ़ा जीडीपी का आकलन करता है. यानी हर तिमाही में जीडीपी का आकलन किया जाता है. हर साल यह सालाना जीडीपी ग्रोथ के आँकड़े जारी करता है.
माना जाता है कि भारत जैसे कम और मध्यम आमदनी वाले देश के लिए साल दर साल अधिक जीडीपी ग्रोथ हासिल करना ज़रूरी है ताकि देश की बढ़ती आबादी की ज़रूरतों को पूरा किया जा सके.
जीडीपी से एक तय अवधि में देश के आर्थिक विकास और ग्रोथ का पता चलता है.
इसका आकलन कैसे किया जाता है?
चार अहम घटकों के ज़रिए जीडीपी का आकलन किया जाता है.
पहला घटक 'कंजम्पशन एक्सपेंडिचर' है. यह गुड्स और सर्विसेज को ख़रीदने के लिए लोगों के कुल ख़र्च को कहते हैं.
दूसरा, 'गवर्नमेंट एक्सपेंडिचर', तीसरा 'इनवेस्टमेंट एक्सपेंडिचर' है और आख़िर में नेट एक्सपोर्ट्स आता है.
जीडीपी का आकलन नोमिनल और रियल टर्म में होता है. नॉमिनल टर्म्स में यह सभी वस्तुओं और सेवाओं की मौजूदा क़ीमतों पर वैल्यू है.
जब किसी बेस ईयर के संबंध में इसे महंगाई के सापेक्ष एडजस्ट किया जाता है, तो हमें रियल जीडीपी मिलती है. रियल जीडीपी को ही हम आमतौर पर अर्थव्यवस्था की ग्रोथ के तौर पर मानते हैं.
जीडीपी के डेटा को आठ सेक्टरों से इकट्ठा किया जाता है. इनमें कृषि, मैन्युफैक्चरिंग, इलेक्ट्रिसिटी, गैस सप्लाई, माइनिंग, क्वैरीइंग, वानिकी और मत्स्य, होटल, कंस्ट्रक्शन, ट्रेड और कम्युनिकेशन, फ़ाइनेंसिंग, रियल एस्टेट और इंश्योरेंस, बिजनेस सर्विसेज़ और कम्युनिटी, सोशल और सार्वजनिक सेवाएँ शामिल हैं.
आम जनता के लिए यह क्यों अहम है?
आम जनता के लिए यह इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यह सरकार और लोगों के लिए फ़ैसले करने का एक अहम फ़ैक्टर साबित होता है.
अगर जीडीपी बढ़ रही है, तो इसका मतलब यह है कि देश आर्थिक गतिविधियों के संदर्भ में अच्छा काम कर रहा है और सरकारी नीतियाँ ज़मीनी स्तर पर प्रभावी साबित हो रही हैं और देश सही दिशा में जा रहा है.
अगर जीडीपी सुस्त हो रही है या निगेटिव दायरे में जा रही है, तो इसका मतलब यह है कि सरकार को अपनी नीतियों पर काम करने की ज़रूरत है ताकि अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने में मदद की जा सके.
सरकार के अलावा कारोबारी, स्टॉक मार्केट इनवेस्टर और अलग-अलग नीति निर्धारक जीडीपी डेटा का इस्तेमाल सही फ़ैसले करने में करते हैं.
जब अर्थव्यवस्था अच्छा प्रदर्शन करती है, तो कारोबारी और ज़्यादा पैसा निवेश करते हैं और उत्पादन को बढ़ाते हैं क्योंकि भविष्य को लेकर वे आशावादी होते हैं.
लेकिन जब जीडीपी के आँकड़े कमज़ोर होते हैं, तो हर कोई अपने पैसे बचाने में लग जाता है. लोग कम पैसा ख़र्च करते हैं और कम निवेश करते हैं. इससे आर्थिक ग्रोथ और सुस्त हो जाती है.
ऐसे में सरकार से ज़्यादा पैसे ख़र्च करने की उम्मीद की जाती है. सरकार कारोबार और लोगों को अलग-अलग स्कीमों के ज़रिए ज़्यादा पैसे देती है ताकि वो इसके बदले में पैसे ख़र्च करें और इस तरह से आर्थिक ग्रोथ को बढ़ावा मिल सके.
इसी तरह से नीति निर्धारक जीडीपी डेटा का इस्तेमाल अर्थव्यवस्था की मदद के लिए नीतियाँ बनाने में करते हैं. भविष्य की योजनाएँ बनाने के लिए इसे एक पैमाने के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है.
जीडीपी अभी भी पूरी तस्वीर नहीं है
हालाँकि, जीडीपी में कई सेक्टरों को कवर किया जाता है ताकि अर्थव्यवस्था की ग्रोथ का आकलन किया जा सके. लेकिन यह अभी भी हर चीज़ को कवर नहीं करती है.
विशेषज्ञों का मानना है कि जीडीपी डेटा में असंगठित क्षेत्र की स्थिति का पता नहीं चलता है.
वरिष्ठ अर्थशास्त्री प्रोफे़सर अरुण कुमार कहते हैं, "जीडीपी डेटा में असंगठित सेक्टर को शामिल नहीं किया जाता है जो देश के 94 फ़ीसदी रोज़गार का उत्तरदायित्व उठाता है."
अरुण कुमार कहते हैं, "अगर जीडीपी निगेटिव दायरे में आ जाती है तो इसका मतलब है कि असगंठित क्षेत्र का प्रदर्शन संगठित सेक्टर के मुक़ाबले और ज़्यादा बुरा है."
ऐसे में अगर जीडीपी ग्रोथ 10 से 15 फ़ीसदी के क़रीब रहती है, तो इसका मतलब है कि असंगठित क्षेत्र की ग्रोथ 20 से 30 फ़ीसदी के बीच होगी.
सीधे शब्दों में जीडीपी के आँकड़े दिखाते हैं कि संगठित क्षेत्र का प्रदर्शन कैसा है, लेकिन यह पूरी तरह से असंगठित क्षेत्र की उपेक्षा करता है, जिसमें देश की ग़रीब आबादी आती है.
कई एजेंसियाँ और विशेषज्ञ कह रहे हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था 2021-22 में चार से 15 फ़ीसदी तक कमज़ोर हो सकती है.
भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर शक्तिकांत दास ने यह कहा है कि भारतीय अर्थव्यवस्था नकारात्मक दायरे में जाएगी. हालाँकि आरबीआई ने यह नहीं बताया है कि जीडीपी में कितनी गिरावट आएगी.
यह चीज़ ध्यान में रखने वाली है कि भारतीय अर्थव्यवस्था गुज़रे चार साल से सुस्ती में चल रही है.
साल 2016-17 में जीडीपी 8.3 फ़ीसदी से बढ़ी थी. इसके बाद 2017-18 में ग्रोथ सात फ़ीसदी रही. 2018-19 में यह 6.1 फ़ीसदी और 2019-20 में यह गिरकर 4.2 फ़ीसदी पर आ गई.
मैक्किंसी की एक रिपोर्ट में कहा गया है, "कोविड संकट ने इस चुनौती को और बढ़ा दिया है. ग्रोथ को बढ़ाने के तत्काल क़दमों की ग़ैर मौजूदगी में भारत में आमदनी और जीवन गुणवत्ता एक दशक के ठहराव में पहुँच सकती है."
कोविड महामारी ने हालात को और बुरा कर दिया है और अर्थशास्त्रियों का कहना है कि दूसरे एशियाई देशों के मुक़ाबले रिकवरी करने में भारत को ज़्यादा वक़्त लग सकता है.
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