कोयला प्राइवेट कंपनियों के हवाले करने से ‘आत्मनिर्भर’ हो जाएगा भारत?

 


  • प्रियंका दुबे
  • बीबीसी संवाददाता
कोयला खदान

खेती-किसानी, तकनीक, रक्षा, श्रम और उद्योग जैसे कई क्षेत्रों के साथ एक महत्वपूर्ण क्षेत्र जिसमें 'आत्मनिर्भर भारत अभियान' के तहत बड़े बदलाव किए जा रहे हैं, वह है खनन.

बॉलीवुड के इर्द-गिर्द जारी शोर के बीच शायद यह ख़बर आपकी नज़रों से छूट गई हो कि खनन मंत्रालय ने 'खान और खनिज (विकास और विनियमन) अधिनियम, 1957 या एमएमडीआर ऐक्ट में, अगस्त महीने में नौ बड़े फेरबदल प्रस्तावित करते हुए भारतीय खनन में बड़े स्तर पर निजीकरण की प्रक्रिया को शुरू कर दिया है.

सरकार का दावा है कि इन प्रस्तावित बदलावों से खनन में बड़ी तदाद में रोज़गार पैदा किया जा सकेगा और देश की अर्थव्यवस्था को गति मिलेगी.

लेकिन जानकार रोज़गार के इन सरकारी दावों के साथ-साथ, इस निजीकरण के पर्यावरण, खदान बहुल राज्यों के जंगलों और वहां के आम जनजीवन पर पड़ने वाले प्रभावों पर भी सवाल उठा रहे हैं.

इन बदलावों के बारे में जानना इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि ये बदलाव खनन में सीधे तौर पर शामिल देश की एक बड़ी जनसंख्या को प्रभावित करेंगे.

छत्तीसगढ़, झारखंड, पश्चिम बंगाल, बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान उड़ीसा और कर्नाटक जैसे राज्य इन बदलावों से प्रभावित होंगे. इन राज्यों में मौजूद खदानों के साथ-साथ यहां रहने वाले आदिवासी समुदाय, जंगल, नदियों और वातावरण पर भी इन बदलावों का सीधा प्रभाव पड़ेगा.

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क़ानून बदलने में जल्दबाज़ी पर सवाल

शुरू में इन बदलावों पर अपनी प्रतिक्रिया और आपत्ति दर्ज करवाने के लिए मंत्रालय ने खनन उद्योग और आम लोगों को मात्र 10 दिन का समय दिया था, वो भी कोरोना के दौर में.

जानकारों का कहना है कि यह 'परामर्श नीति' और 'सूचना के अधिकार' क़ानून का उल्लंघन है.

परामर्श नीति के तहत किसी भी क़ानून में फेर-बदल से पहले प्रस्तावित परिवर्तन को कम-से-कम 30 दिनों के लिए जनता के बीच प्रतिक्रिया और सुझावों के लिए रखने का नियम है.

कोरोना महामारी के दौरान मात्र 10 दिनों की इस मोहलत का न सिर्फ़ पर्यावरणविदों और खनन के क्षेत्र में काम कर रहे कार्यकर्ताओं ने विरोध किया, बल्कि झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने भी इसे 'फ़ेडरल' या संघीय व्यवस्था के ख़िलाफ़ बताया.

आलोचना के बाद इन प्रस्तावित बदलावों पर प्रतिक्रिया देने के वक़्त को 7 दिन और बढ़ा दिया गया, हालांकि यह अवधि भी 'परामर्श नीति' के हिसाब से कम ही थी.

कोयला

क्या हैं कानून में किए जा रहे बदलाव?

भारत में खनन का वर्तमान और इतिहास कई जटिल संशोधित क़ानूनों की कड़ियों और मज़दूर यूनियनों के विरोध से भरा पड़ा है इसलिए आगे बढ़ने से पहले जान लेते हैं कि इस बार सरकार ने एमएमडीआर ऐक्ट में क्या बदलाव प्रस्तावित किए हैं.

खनन मंत्रालय का नोटिस इन बदलावों को 9 टुकड़ों में बांटता है जिसमें खनन से जुड़ी प्राइवेट कंपनियों को खदानों के साथ-साथ संभावित खदान क्षेत्रों की जाँच-पड़ताल करने की अनुमति मिल जाएगी और इस शोध का खर्च 'राष्ट्रीय खनिज अन्वेषण ट्रस्ट' उठाएगा.

साथ ही, खनिज-संभावित इलाक़ों को प्राइवेट कंपनियों के बीच नीलामी के लिए उपलब्ध करवाना और फिर खनन लाइसेंस के साथ इन खदानों को प्राइवेट सेक्टर को सौंपा जाना भी शामिल है.

अवैध खनन की परिभाषा में किया जा रहा बदलाव काफ़ी अहम है. फ़िलहाल किसी भी खदान में खनन के लिए खनन योजना में चिह्नित किए गए 'कोर खनन क्षेत्र' के सिवा अन्य जगहों पर खनन करने की इजाज़त नहीं है.

लेकिन बदलाव के बाद माइनिंग कंपनियाँ खनन के लिए लीज़ पर ली गई पूरी ज़मीन में से जहां भी खनन करना चाहें, वहां अब क़ानूनी रूप से कर सकती हैं.

इसके साथ ही एक बड़ा प्रस्तावित बदलाव 'कैप्टिव' और 'नॉन-कैप्टिव' खदानों के अंतर को ख़त्म करके सभी खनिजों के ब्लॉकों को व्यावसायिक खनन के लिए निजी कंपनियों के बीच नीलाम किए जाने की बात करता है.

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स्टैम्प ड्यूटी को कम करने और डिस्ट्रिक्ट मिनरल फंड (डीएमएफ) की जनकल्याणकारी नीति के मूल उद्देश्य में बदलाव का प्रस्ताव भी इन सुधारों में शामिल है.

निजी कंपनियों के लिए सहूलियतें बढ़ाने वाले, उन्हें खदानें ख़रीदने और मुनाफ़े के लिए खनन करने को प्रोत्साहित करने वाले इन सुधारों की फ़ेहरिस्त आख़िर में 'रोज़गार बढ़ाने' के बिंदु पर आकर ख़त्म होती है.

अब सवाल यह है कि क्या वाक़ई इन सुधारों से रोज़गार बढ़ने की उम्मीद है? और अगर है तो किस क़ीमत पर? पर्यावरण, जंगल स्थानीय आदिवसी समुदायों और खनन से जुड़े कर्मचारियों के जीवन पर इन प्रस्तावित सुधारों का क्या प्रभाव पड़ेगा?

इन सवालों के जवाब ढूँढने से पहले कुछ और अहम बातें.

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निजीकरण का अभियान

इन बदलावों की सुगबगाहट बीते जून से ही महसूस की जाने लगी थी. 18 जून को जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वीडियो कॉन्फ़्रेंस के ज़रिए देश के 41 नए कोयला ब्लॉकों की नीलामी को हरी झंडी दिखाई, तो यह कोयला क्षेत्र को व्यावसायिक खनन के लिए खोले जाने की पहली खुली घोषणा थी.

लेकिन साथ ही, यह रोज़गार बढ़ाने के नाम पर खनन में होने जा रहे आधारभूत बदलावों की शुरुआत भी थी. प्रधानमंत्री ने कहा कि यह कदम 'कोयला खनन को दशकों पुराने लॉकडाउन से मुक्त कराएगा'.

हालांकि ख़रीदारों की क़िल्लत और कोल इंडिया लिमिटेड के कर्मचारियों की हड़ताल की वजह से जून में नए कोयला ब्लॉकों की बिक्री नहीं हो पाई, फिर नीलामी की इस प्रक्रिया को पहले अगस्त और बाद में नवंबर तक के लिए स्थगित कर दिया गया.

इसके ठीक बाद एमएमडीआर ऐक्ट में नए सुधारों का प्रस्ताव सामने आया. इन संशोधनों में न सिर्फ़ कोयले, बल्कि सभी खनिज पदार्थों के खनन का व्यापक स्तर पर निजीकरण किए जाने का एक लगभग खुला प्रस्ताव पहली बार लोगों के सामने रखा.

लेकिन इन बदलावों के फ़ायदे-नुक़सान से भी पहले नोट करने वाली बात ये है कि यह बदलाव 2019 में बनी राष्ट्रीय खनिज नीति के ख़िलाफ़ हैं.

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राष्ट्रीय खनिज नीति के ख़िलाफ़ हैं बदलाव

नामी पर्यावरणविद् क्लॉड एल्वेरेस ने एमएमडीआर ऐक्ट में हुए हालिया संशोधनों के संदर्भ में खनिज मंत्रालय से पत्र लिखकर कहा है कि वर्तमान बदलाव सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के आधार पर 2019 में बनी हालिया राष्ट्रीय खनिज नीति का भी उल्लंघन कर रहे हैं.

उन्होंने यह भी कहा है कि इन सुधारों का प्रस्ताव 2015 और 2016 में खनिज क़ानून में हुए बड़े संशोधनों के बाद आ रहा है. बीते पाँच सालों में एमएमडीआर ऐक्ट में इतने परिवर्तन करने के बाद अब फिर नए बदलाव करने की ज़रूरत महसूस होना चिंताजनक है.

खनन मंत्रालय को लिखे अपने पत्र में एल्वारेस जोड़ते हैं, "कई बदलाव राष्ट्रीय खनिज नीति और संविधान तक के ख़िलाफ़ जाते हैं. राष्ट्रीय खनिज नीति कहती है कि सभी प्राकृतिक संसाधन हमारी साझा राष्ट्रीय विरासत है.''

''देश की जनता के नुमाइंदे के तौर पर इन संसाधनों की देखभाल की ज़िम्मेदारी राज्य पर है. खनिजों के संदर्भ में इसमें यह भी साफ़ कहा गया है कि ज़मीन के अंदर मौजूद सभी मिनिरल्स की पूरी क़ीमत राज्य सरकारों को मिलनी चाहिए. खनिजों को लेकर राष्ट्रीय खनिज नीति की संविधानिक स्थिति भी यही है."

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रोज़गार का सवाल

अब आते हैं 'रोज़गार' के मूल सवाल पर. दो दशकों तक झारखंड के सारंडा जंगलों में मौजूद लोहे की खदानों का अध्ययन करने वाले वरिष्ठ पर्यावरणविद डॉक्टर राकेश कुमार सिंह का मानना है कि पर्यावरण के स्तर पर बड़ी क़ीमतें चुकाने के बाद भी, नए प्रस्तावित बदलाव दरअसल रोज़गार नहीं बढ़ा पाएँगे.

बीबीसी से बातचीत में डॉक्टर राकेश कहते हैं, "सारंडा में लोहे के खदानों की खोज 1920 के आसपास हुई थी. आज सौ साल बाद भी इस ज़िले का 'पावर्टी इंडेक्स' (ग़रीबी सूचकांक) यह बताता है कि यहां देश के ग़ैर-खनिज ज़िलों से भी ज़्यादा ग़रीबी है. यही स्थिति देश के ज़्यादातर दूसरे ज़िलों की भी है".

खनिज इलाक़ों के आर्थिक पिछड़ेपन को रोज़गार से जोड़ते हुए वह कहते हैं, "अगर सारंडा में मौजूद लोहे की खदानों का ही उदाहरण लें तो वहां हाथों से खुदाई सम्भव ही नहीं है.''

''आधुनिक तकनीकी उपकरणों का इस्तेमाल कर खनन करने की प्रक्रिया में बहुत कम रोज़गार के अवसर निर्मित हो पाते हैं इसलिए यह ज़रूरी है कि स्थानीय लोगों के हित में खनन इलाक़ों के पर्यावरण और जंगलों की रक्षा की जाए क्योंकि सिर्फ़ खनन में तो रोज़गार मिलने की संभावना धुंधली ही है.''

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'माइनिंग प्लान' के उल्लंघन की आशंका

डॉक्टर राकेश बताते हैं कि अवैध खनन की परिभाषा बदलने से माइनिंग प्लान के उल्लंघन की आशंका बहुत बढ़ जाएगी.

वो बताते हैं, "नई परिभाषा के हिसाब से लीज़ पर लिए हुए पूरे इलाक़े में कहीं भी खनन किया जा सकता है. फिर लोग हमेशा ही माइनिंग प्लान की अवहेलना करेंगे और यह बहुत ही ख़तरनाक हालत होगी क्योंकि इस प्रक्रिया में खदानों में काम करने वाले कर्मचारियों की सुरक्षा के प्रश्न को दरकिनार किए जाने की पूरी आशंका है.''

''अगर सरकार खनन को प्रोत्साहित करना चाहती है तो इसका मतलब यह तो नहीं कि हम सारी ज़मीन खोद डालें! इससे रोज़गार तो बढ़ेगा नहीं, स्थानीय लोग और हाशिए पर आ जाएँगे".

खनन के मुद्दे पर लंबे वक़्त से काम कर रहे पर्यावरणविद और भूवैज्ञानिक आर श्रीधर कहते हैं कि एक ओर सरकार अपनी ही कम्पनियों से हुए नुक़सान की भरपाई नहीं वसूल कर पा रही है और दूसरी ओर मुनाफ़े के लिए पूरे खनन क्षेत्र के निजीकरण को आक्रामक रूप से बढ़ावा दे रही है.

बीबीसी से बातचीत में वे कहते हैं, "खनन ने कभी भी देश के जीडीपी में पाँच प्रतिशत से ज़्यादा का योगदान नहीं दिया. अभी जुलाई 2019 में ही कोल इंडिया पर अवैध खनन के लिए कुल 53 हज़ार करोड़ का जुर्माना लगाया गया था, जो उन्होंने अभी तक पूरी तरह जमा नहीं किया है.'

''अपनी ही कम्पनियों से जुर्माना वसूल करके भी सरकार अपना कुल मुनाफ़ा बढ़ा सकती है. लेकिन पुरानी उलझनों पर ध्यान देने की बजाय ऐसे बदलाव प्रस्तावित किए जा रहे हैं, जो सिर्फ़ जंगल और वातावरण को नुकसान पहुँचाएंगे और निजी कम्पनियों को फ़ायदा".

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राष्ट्रीयकरण से पहले के दौर में ले जाएँगे बदलाव?

कई विशेषज्ञों ने इन संशोधनों की वजह से खनन क्षेत्र के वापस राष्ट्रीयकरण से पहले के हिंसक दौर में फिसल जाने की आशंका जताई है.

कोयला मज़दूर संगठनों के साथ लम्बे समय से काम कर रहे ज्ञान शंकर मजूमदार को लगता है कि खनन क़ानून में प्रस्तावित नए सुधार इस पूरे क्षेत्र को खनन के राष्ट्रीयकरण के पहले के दौर में ले जाएँगे.

बीबीसी से बातचीत में वह कहते हैं, "सीएमपीडीआइएल जैसी कोल इंडिया से जुड़ी राष्ट्रीय संस्थाएं पहली बार निजी हाथों में जा रही हैं. अवैध खनन और बंद पड़े खदानों के प्रश्न को इन सुधारों में एकदम दरकिनार किया गया है.''

''स्टांप ड्यूटी को कम किया जा रहा है जबकि वह राज्य का मामला है जिसमें केंद्र दख़ल नहीं देता है. एक तरह इन इन प्रस्तावित सुधारों को पढ़ने पर ऐसा लगता है जैसे सरकार खनन को वापस राष्ट्रीयकरण से पहले के दौर में धकेलने की तैयारी में है."

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जितना खनन, उतना विस्थापन

आदिवासियों और ज़मीन के मुद्दों पर बीस सालों से झारखंड में काम कर रहे संजय बोस मलिक बताते हैं कि राज्य में खनन के निजीकरण की आहटें उसके अस्तित्व में आने के तुरंत बाद से महसूस की जाने लगीं थीं.

"झारखंड के पहले मुख्यमंत्री से लेकर अब तक- लगभग सभी ने अपने अपने स्तर पर खनन के इस निजीकरण की ज़मीन तैयार की. भाजपा के पिछले मुख्यमंत्री रघुवर दास तो खनन के निजीकरण को लेकर काफ़ी आक्रामक भी थे. लेकिन सत्तर से पहले निजी खदानों में काम करने की यातना, अराजकता और हिंसा की याद अभी राज्य के लोगों की स्मृति में ताज़ा है".

मलिक जोड़ते हैं कि इस तरह का आक्रामक निजीकरण राज्य में सिर्फ़ ज़मीन के विवादों और विस्थापन को बढ़ाएगा ही.

"निजी कम्पनियों का लक्ष्य मुनाफ़ा होता है. ऐसे में जंगल, ज़मीन और ज़मीन से जुड़े लोगों की गर्दन पर विस्थापन की तलवार तो लटकती ही रहेगी. वैसे झारखंड के किसानों के ऊपर तो यह तलवार सालों से लटक ही रही है. और फिर यही बीज आगे जाकर सामाजिक असंतोष को जन्म देता है."

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डिस्ट्रिक्ट माइनिंग फंड का सवाल

खनन में प्रस्तावित इन बदलावों की कहानी डिस्ट्रिक्ट माइनिंग फंड या डीएमएफ के ज़िक्र के बिना अधूरी है. प्राकृतिक संसाधन और पर्यावरण के मुद्दों पर लम्बे समय से काम कर रही श्रेष्ठा बनर्जी डीएमएफ के कार्यक्षेत्र को बदले जाने को आम लोगों का सबसे बड़ा नुक़सान मानती हैं.

खनन क़ानून में 2015 के संशोधन के बाद शामिल किया गया डीएमएफ दरअसल खनन ज़िलों में बनने वाला एक ऐसा फंड है जिसका इस्तेमाल खनन से प्रभावित होने वाले स्थानीय लोगों के जीवन को बेहतर बनाए जाने के लिए किया जाना तय था.

डीएमएफ के मूल मैंडेट में स्थानीय लोगों के लिए उचित शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएँ उपलब्ध करवाने के साथ साथ उनके आजीविका के साधन उपलब्ध करवाना भी है.

लेकिन नए प्रस्तावित क़ानून में इसे बदल दिया गया है. अब डीएमएफ फंड को सड़कें और इमारतें जैसे 'दिखाई देने वाले निर्माण कार्य' में पैसा निवेश करने को कहा गया है. श्रेष्ठा का मानना है कि खनन क्षेत्र में भयंकर ग़रीबी और विस्थापन का दंश झेल रहे कितने ही लोगों के लिए डीएमएफ उम्मीद की एक आख़िरी किरण है.

बीबीसी से बातचीत में कहती हैं, "अगर यह सब रोज़गार के लिए है तो सवाल यह उठता है कि डीएमएफ के पैसे को खनन से प्रभावित आदिवसी समुदायों को ज़रूरी प्रशिक्षण देने और उनके गृह ज़िलों में ही उन्हें रोज़गार के अवसर उपलब्ध करवाने से हटाया क्यों जा रहा है? उल्टे डीएमएफ के मैंडेट की दिशा ही मोड़ी जा रही है. डीएमएफ और इसके फंड की स्थापना स्थानीय लोगों के विकास के लिए की गई थी".

इस रिपोर्ट में खनन क़ानून पर उठाए गए सभी सवालों पर सरकार का पक्ष जानने के लिए बीबीसी ने खनन मंत्रालय को लिखित प्रश्न भेजे लेकिन लंबे इंतज़ार के बाद भी मंत्रालय से कोई जवाब नहीं आया है.

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