बिहार चुनावः क्या तेजस्वी ने कांग्रेस को 70 सीटें देकर ग़लती की?
बिहार विधानसभा चुनाव में राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) के साथ महागठबंधन के तहत 70 सीटों पर लड़ने वाली कांग्रेस बमुश्किल बीस सीटों के पार जाती दिख रही है यानी उसका स्ट्राइक रेट उसकी अपनी उम्मीदों से काफ़ी नीचे है.
अगर बिहार की राजनीति में हाल के दशकों में कांग्रेस के प्रदर्शन को देखा जाए तो ये बहुत हैरान करने वाली बात नहीं है.
2015 के चुनावों में कांग्रेस ने आरजेडी और जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) के साथ महागठबंधन के तहत 41 सीटों पर चुनाव लड़ा और 27 सीटें जीतीं. लग नहीं रहा कि कांग्रेस इस बार पिछले चुनाव वाला प्रदर्शन दोहरा पाएगी.
2010 में कांग्रेस ने सभी 243 सीटों पर चुनाव लड़ा था लेकिन उसे सिर्फ़ चार सीटें ही मिल सकीं थीं. वहीं साल 2005 में बिहार में दो बार चुनाव हुए. एक बार फ़रवरी में और फिर विधानसभा भंग होने के कारण दोबारा अक्तूबर में चुनाव हुए.
फ़रवरी में कांग्रेस ने 84 सीटों पर चुनाव लड़ा और सिर्फ दस पर जीत हासिल की वहीं अक्तूबर में 51 सीटों पर लड़कर सिर्फ़ 9 सीटें जीतीं.
साल 2000 के चुनाव के समय बिहार अविभाजित था और मौजूदा झारखंड भी उसका हिस्सा था, तब कांग्रेस ने 324 सीटों पर लड़कर 23 सीटें जीती थीं, वहीं इससे पहले 1995 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने 320 सीटों पर उम्मीदवार उतारे और 29 सीटें हासिल कीं. 1990 में कांग्रेस ने 323 में से 71 सीटें जीतीं थीं.
1985 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने 323 में से 196 सीटें जीतकर स्पष्ट बहुमत हासिल किया था, यह अंतिम मौका था जब कांग्रेस ने बिहार में बहुमत हासिल किया, इस बात को अब 35 साल हो चुके हैं और उसका गया दौर वापस लौटता नहीं दिख रहा है.
तब से लेकर अब तक कांग्रेस बिहार में अपना अस्तित्व ही तलाशती रही है.
क्या तेजस्वी ने मजबूरी में दीं 70 सीटें?
वरिष्ठ पत्रकार मणिकांत ठाकुर के मुताबिक कांग्रेस के ख़राब प्रदर्शन की स्पष्ट वजह है चुनाव से पहले की लचर तैयारी.
मणिकांत ठाकुर कहते हैं, "सभी को दिख रहा था कि कांग्रेस की तैयारी पूरे राज्य में कहीं नहीं थी. संगठन के स्तर पर पार्टी बिल्कुल तैयार नहीं थी. पार्टी के पास ऐसे उम्मीदवार ही नहीं थे जो मज़बूती से लड़ सकें. महागठबंधन में 70 सीटें लेने वाली कांग्रेस, 40 उम्मीदवार मैदान में उतारते-उतारते हांफने लगी थी."
वे कहते हैं, "कांग्रेस को जो बीस-इक्कीस सीटें मिलती दिख रही हैं वो भी इसलिए क्योंकि वामदलों और राजद का वोट ट्रांसफर हुआ है. ये तो स्पष्ट है कि कांग्रेस को महागठबंधन में आने का फ़ायदा मिला है लेकिन क्या महागठबंधन को कांग्रेस को साथ लेने का फ़ायदा हुआ है, ऐसा पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता."
कांग्रेस के ख़राब प्रदर्शन के बाद यह सवाल उठ रहा है कि क्या तेजस्वी ने कांग्रेस को गठबंधन की 70 सीटें देकर ग़लती की है.
वरिष्ठ पत्रकार सुरेंद्र किशोर कहते हैं, "कांग्रेस के प्रति तेजस्वी ने उदारता दिखाई है जिसका नतीजा अच्छा नहीं दिख रहा है. तेजस्वी को अब लग रहा होगा कि कांग्रेस को 70 सीटें देकर उनसे भूल हुई है."
वहीं मणिकांत ठाकुर का मानना है कि तेजस्वी ने मजबूरी में कांग्रेस को 70 सीटें दीं.
वे कहते हैं, "कांग्रेस के नेतृत्व ने तेजस्वी यादव पर गठबंधन में 70 सीटें देने का दबाव बनाया था और ऐसा न करने की स्थिति में गठबंधन से अलग होने की चेतावनी भी दी थी. अगर कांग्रेस गठबंधन से अलग होती तो वो तेजस्वी के लिए और भी ख़राब स्थिति हो सकती थी. तेजस्वी के पास बहुत ज़्यादा विकल्प थे नहीं."
बिहार के नतीजे में केंद्रीय नेतृत्व का किरदार
सुरेंद्र किशोर मानते हैं कि बिहार में कांग्रेस के कमज़ोर प्रदर्शन की एक वजह केंद्रीय नेतृत्व का कमज़ोर होना भी है. कांग्रेस साल 2014 के बाद से केंद्रीय सत्ता के बाहर है और पार्टी पर केंद्रीय नेतृत्व की पकड़ भी कमज़ोर हुई है.
किशोर कहते हैं, "मंडल आयोग, भागलपुर दंगे और मंदिर आंदोलन का विपरीत असर कांग्रेस पर पड़ा है. कांग्रेस ने मंडल आयोग का समर्थन नहीं किया था जिसकी वजह से कांग्रेस बिहार में कमज़ोर हुई और लालू मज़बूत हुए. वहीं मंदिर आंदोलन के दौरान कांग्रेस ने कोई स्पष्ट पक्ष नहीं लिया इसका भी खामियाजा कांग्रेस को उठाना पड़ा."
बिहार के भागलपुर ज़िले में साल 1989 में हुए सांप्रदायिक दंगों और 1990 के दशक में चले राम मंदिर आंदोलन ने बिहार की राजनीति में भी हिंदुत्व के एजेंडे को असरदार कर दिया और इसका असर भी चुनावों पर दिखता रहा.
कांग्रेस अपने-आप को एक धर्मनिरपेक्ष पार्टी की तरह पेश करती रही है और जहां-जहां मतदाताओं के पास धर्मनिरपेक्ष पार्टियों के विकल्प हैं उन-उन राज्यों में कांग्रेस कमज़ोर होती रही है.
सुरेंद्र किशोर कहते हैं, "बिहार में लालू यादव ने मुसलमान मतदाताओं को एक विकल्प दिया और कांग्रेस दुबली होती चली गई."
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