जब इश्क़ में गिरफ़्तार हो गए थे औरंगज़ेब
- रेहान फ़ज़ल
- बीबीसी संवाददाता
गुरुवार 12 नवंबर को ट्विटर पर मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब को लेकर काफ़ी चर्चा हो रही है. इसकी वजह हैं एक अमरीकी लेखिका ऑडरी ट्रस्चके जिन्होंने कुछ साल पहले औरंगज़ेब पर एक किताब लिखी थी.
उन्होंने एक ट्वीट का जवाब देते हुए लिखा है कि - "औरंगज़ेब ना तानाशाह थे, ना सर्वसत्तावादी, ना फ़ासीवादी या ना ही आज के आधुनिक राजनेताओं जैसे. वो एक प्री मॉडर्न मुग़ल बादशाह थे."
इसके बाद से ट्विटर पर औरंगज़ेब के व्यक्तित्व और छवि को लेकर बहस छिड़ गई है.
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आइए ऐसे मौक़े पर फिर से पढ़ें बीबीसी हिन्दी पर तीन वर्ष पहले औरंगज़ेब की सालगिरह (3 नवंबर) पर प्रकाशित एक लेख -
मुग़ल बादशाहों में सिर्फ़ एक शख़्स भारतीय जनमानस के बीच जगह बनाने में नाकामयाब रहा वो था आलमगीर औरंगज़ेब. आम लोगों के बीच औरंगज़ेब की छवि हिंदुओं से नफ़रत करने वाले धार्मिक उन्माद से भरे कट्टरपंथी बादशाह की है जिसने अपने राजनीतिक उद्देश्यों को पूरा करने के लिए अपने बड़े भाई दारा शिकोह को भी नहीं बख्शा.
और तो और उसने अपने वृद्ध पिता तक को उनके जीवन के आखिरी साढ़े सात सालों तक आगरा के किले में कैदी बना कर रखा. हाल में एक पाकिस्तानी नाटककार शाहिद नदीम ने लिखा कि भारत में विभाजन के बीज उसी समय बो दिए गए थे जब औरंगज़ेब ने अपने भाई दारा को हराया था. जवाहरलाल नेहरू ने भी 1946 में प्रकाशित अपनी किताब डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया में औरंगज़ेब को एक धर्मांध और पुरातनपंथी शख़्स के रूप में पेश किया है.
कुछ महीनों पहले एक अमरीकी इतिहासकार ऑडरी ट्रस्चके की किताब आई है 'औरंगज़ेब-द मैन एंड द मिथ' जिसमें उन्होंने बताया है कि ये तर्क ग़लत है कि औरंगज़ेब ने मंदिरों को इसलिए ध्वस्त करवाया क्योंकि वो हिंदुओं से नफ़रत करता था.
ट्रस्चके जो कि नेवार्क के रूटजर्स विश्वविद्यालय में दक्षिण एशिया इतिहास पढ़ाती हैं, लिखती हैं कि औरंगज़ेब की इस छवि के पीछे अंग्रेज़ो के ज़माने के इतिहासकार ज़िम्मेदार हैं जो अंग्रेज़ों की फूट डालो और राज करो नीति के तहत हिंदू मुस्लिम वैमनस्य को बढ़ावा देते थे. इस किताब में वो ये भी बताती है कि अगर औरंगज़ेब का शासन 20 साल कम हुआ होता तो उनका आधुनिक इतिहासकारों ने अलग ढंग से आकलन किया होता.
49 साल भारत पर राज
औरंगज़ेब ने 15 करोड़ लोगों पर करीब 49 सालों तक राज किया. उनके शासन के दौरान मुग़ल साम्राज्य इतना फैला कि पहली बार उन्होंने करीब करीब पूरे उपमहाद्वीप को अपने साम्राज्य का हिस्सा बना लिया.
ट्रस्चके लिखती हैं कि औरंगज़ेब को एक कच्ची कब्र में ख़ुलदाबाद, महाराष्ट्र में दफ़न किया गया, जबकि इसके ठीक विपरीत हुमांयू के लिए दिल्ली में लाल पत्थर का मक़बरा बनवाया गया और शाहजहाँ को आलीशान ताजमहल में दफ़नाया गया.
उनके अनुसार 'ये ग़लतफ़हमी है कि औरंगज़ेब ने हज़ारों हिंदू मंदिरों को तोड़ा. ज्यादा से ज़्यादा कुछ दर्जन मंदिर ही उनके सीधे आदेश से तोड़े गए.. उनके शासनकाल में ऐसा कुछ नहीं हुआ जिसे हिंदुओं का नरसंहार कहा जा सके. वास्तव में औरंगज़ेब ने अपनी सरकार में कई महत्वपूर्ण पदों पर हिंदुओं को आसीन किया.'
साहित्य से था औरंगजेब को लगाव
औरंगज़ेब का जन्म 3 नवंबर,1618 को दोहाद में अपने दादा जहाँगीर के शासनकाल में हुआ था. वो शाहजहाँ के तीसरे बेटे थे. उनके चार बेटे थे और इन सभी की माँ मुमताज़ महल थीं. औरंगज़ेब ने इस्लामी धार्मिक साहित्य पढ़ने के अलावा तुर्की साहित्य भी पढ़ा और हस्तलिपि विद्या में महारत हासिल की. औरंगज़ेब और मुगल बादशाहों की तरह बचपन से ही धाराप्रवाह हिंदी बोलते थे.
कम उम्र से ही शाहजहाँ के चारों बेटों में मुग़ल सिंहासन पाने की होड़ लगी हुई थी. मुग़ल मध्य एशिया की उस रीति को मानते थे जिसमें सभी भाइयों का राजनीतिक सत्ता पर बराबर का दावा हुआ करता था. शाहजहाँ अपने सबसे बड़े बेटे दारा शिकोह को अपना उत्तराधिकारी बनाना चाहते थे, लेकिन औरंगज़ेब का मानना था कि मुग़ल सल्तनत के सबसे योग्य वारिस वो हैं.
ऑडरी ट्रस्चके एक घटना का ज़िक्र करती हैं कि दारा शिकोह की शादी के बाद शाहजहाँ ने दो हाथियों सुधाकर और सूरत सुंदर के बीच एक मुकाबला करवाया. ये मुगलों के मनोरंजन का पसंदीदा साधन हुआ करता था. अचानक सुधाकर घोड़े पर सवार औरंगज़ेब की तरफ़ अत्यंत क्रोध में दौड़ा. औरंगज़ेब ने सुधाकर के माथे पर भाले से वार किया जिससे वो और क्रोधित हो गया.
दारा शिकोह से थी दुश्मनी
उसने घोड़े को इतनी ज़ोर से धक्का दिया कि औरंगज़ेब ज़मीन पर आ गिरे. प्रत्यक्षदर्शियों जिसमें उनके भाई शुजा और राजा जय सिंह शामिल थे, ने औरंगज़ेब को बचाने की कोशिश की लेकिन अंतत: दूसरे हाथी श्याम सुंदर ने सुधाकर का ध्यान बंटाया और उसे मुकाबले में दोबारा खीच लिया. इस घटना का ज़िक्र शाहजहाँ के दरबार के कवि अबू तालिब ख़ाँ ने अपनी कविताओं में किया है.
एक और इतिहासकार अक़िल ख़ाँ रज़ी अपनी किताब वकीयत-ए-आलमगीरी में लिखते हैं कि इस पूरे मुकाबले के दौरान दारा शिकोह पीछे खड़े रहे और उन्होंने औरंगज़ेब को बचाने की कोई कोशिश नहीं की. शाहजहाँ के दरबारी इतिहासकारों ने भी इस घटना को नोट किया और इसकी तुलना 1610 में हुई घटना से की जब शाहजहाँ ने अपने पिता जहाँगीर के सामने एक ख़ूंखार शेर को काबू में किया था.
एक और इतिहासकार कैथरीन ब्राउन अपने एक लेख 'डिड औरंगज़ेब बैन म्यूज़िक?' में लिखती हैं कि औरंगज़ेब अपनी मौसी से मिले बुरहानपुर गए थे जहाँ हीराबाई ज़ैनाबादी को देख कर उनका उन पर दिल आ गया. हीराबाई एक गायिका और नर्तकी थी.
औरंगज़ेब ने उन्हें एक पेड़ से आम तोड़ते देखा और उनके दीवाने हो गए. इश्क इस हद तक परवान चढ़ा कि वो उनके कहने पर कभी न शराब पीने की अपनी कसम तोड़ने के लिए तैयार हो गए. लेकिन जब औरंगज़ेब शराब का घूंट लेने ही वाले थे तो हीराबाई ने उन्हें रोक दिया. लेकिन एक साल बाद ही हीराबाई की मौत के साथ इस प्रेम कहानी का अंत हो गया. हीराबाई को औरंगाबाद में दफ़नाया गया.
अगर दारा शिकोह राजा बने होते
भारतीय इतिहास का एक बड़ा अगर ये है कि अगर कट्टरपंथी औरंगज़ेब की जगह उदारपंथी दारा शिकोह छठे मुग़ल सम्राट बने होते तो क्या हुआ होता? ऑडरी ट्रस्च्के इसका जवाब देते हुए कहती हैं, "वास्तविकता ये है कि दारा शिकोह मुग़ल साम्राज्य को चलाने या जीतने की क्षमता नहीं रखते थे. भारत के ताज के लिए चारों भाइयों में संघर्ष के दौरान बीमार सम्राट के समर्थन के बावजूद दारा औरंगज़ेब की राजनीतिक समझ और तेज़तर्रारी का मुकाबला नहीं कर पाए."
1658 में औरंगज़ेब और उनके छोटे भाई मुराद ने आगरा के किले का घेरा डाल दिया. तब उनके पिता शाहजहाँ किले के अंदर ही थे. उन्होंने किले की पानी की सप्लाई रोक दी. कुछ ही दिनों में शाहजहाँ ने किले का दरवाज़ा खोल कर अपने ख़ज़ाने, हथियारों और अपने आप को अपने दोनों बेटों के हवाले कर दिया. अपनी बेटी को मध्यस्थ बनाते हुए शाहजहाँ ने अपने साम्राज्य को पाँच भागों में विभाजित करने की आखिरी पेशकश की जिसे चार भाइयों और औरंगज़ेब के सबसे बड़े बेटे मोहम्मद सुल्तान के बीच बांटा जा सके लेकिन औरंगज़ेब ने उसे स्वीकार नहीं किया.
जब 1659 में दारा शिकोह को उसके एक विश्वस्त साथी मलिक जीवन ने पकड़वा कर दिल्ली भिजवाया तो औरंगज़ेब ने उन्हें और 14 साल के बेटे सिफ़िर शुकोह को सितंबर की उमस भरी गर्मी में चीथड़ों में लिपटा कर खुजली की बीमारी से ग्रस्त हाथी पर बैठाकर दिल्ली की सड़कों पर घुमवाया.
उत्तर में नहीं लौटे औरंगज़ेब
उनके पीछे नंगी तलवार लिए एक सिपाही चल रहा था, ताकि अगर वो भागने का प्रयास करें तो उनका सिर धड़ से अलग कर दिया जाए. उस समय भारत के दौरे पर आए इटालियन इतिहासकार निकोलाई मानुची ने अपनी किताब 'स्टोरिया दो मोगोर' में लिखा है, "दारा की मौत के दिन औरंगज़ेब ने उनसे पूछा था कि अगर उनकी भूमिकाएं बदल जाएं तो तुम क्या करोगे ? दारा ने उपहासपूर्वक जवाब दिया था कि वो औरंगज़ेब के शरीर को चार हिस्सों में कटवा कर दिल्ली के चार मुख्य द्वारों पर लटकवा देंगे."
औरंगज़ेब ने अपने भाई के शव को हुमांयु के मकबरे के बगल में दफ़नवाया था. लेकिन बाद में इसी औरंगज़ेब ने अपनी बेटी ज़ब्दातुन्निसा की शादी दारा शुकोह के बेटे सिफ़िर शकोह से की थी.
औरंगज़ेब ने अपने पिता शाहजहाँ को उनके जीवन के आखिरी साढ़े सात सालों में आगरा के किले में कैद रखा जहाँ अक्सर उनका साथ उनकी बड़ी बेटी जहानारा दिया करती थी. इसका सबसे बड़ा नुकसान औरंगज़ेब को तब हुआ जब मक्का के शरीफ़ ने औरंगज़ेब को भारत का विधिवत शासक मानने से इंकार कर दिया और कई सालों तक उनके भेजे उपहारों को अस्वीकार करते रहे.
बाबाजी धुन धुन
औरंगज़ेब 1679 में दिल्ली छोड़ कर दक्षिण भारत चले गए और अपनी मृत्यु तक दोबारा कभी उत्तर भारत नहीं लौटे. उनके साथ हजारों लोगों का काफ़िला भी दक्षिण गया जिसमें शहज़ादा अकबर को छोड़ कर उनके सभी बेटे और उनकी पूरा हरेम भी शामिल था.
उनकी अनुपस्थिति में दिल्ली एक भुतहा शहर जैसा दिखाई देने लगा और लाल किले के कमरों में इतनी धूल चढ़ गई कि विदेशी मेहमानों को उसे दिखाने से बचा जाने लगा.
औरंगज़ेब अपनी किताब 'रुकात-ए-आलमगीरी', जिसका अनुवाद जमशीद बिलिमोरिया ने किया है, में लिखते हैं कि दक्षिण में उन्हें सबसे ज़्यादा कमी महसूस होती थी आमों की. बाबर से लेकर सभी मुगल बादशाह आमों के बहुत शौकीन थे. ट्रस्चके लिखती हैं कि औरंगज़ेब अपने दरबारियों से अक्सर फ़रमाइश करते थे कि उन्हें उत्तर भारत के आम भेजे जांए. उन्होंने कुछ आमों के सुधारस और रसनाबिलास जैसे हिंदी नाम भी रखे.
सन 1700 में अपने बेटे शहज़ादे आज़म को लिखे पत्र में औरंगज़ेब ने उसे उसके बचपन की याद दिलाई जब उसने नगाड़े बजने की नकल करते हुए औरंगज़ेब के लिए एक हिंदी संबोधन का प्रयोग किया था, 'बाबाजी धुन,धुन.'
अपने आख़िरी दिनों में औरंगज़ेब अपने सबसे छोटे बेटे कामबख़्श की माँ उदयपुरी के साथ रहे जो कि एक गानेवाली थीं. अपनी मृत्युशय्या से कामबख़्श को एक पत्र में औरंगज़ेब ने लिखा कि उनकी बीमारी में उदयपुरी उनके साथ रह रही हैं और उनकी मौत में भी उनके साथ होंगीं. औरंगज़ेब की मौत के कुछ महीनों बाद ही 1707 की गर्मियों में उदयपुरी का भी निधन हो गया.
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