कश्मीरः उत्पीड़न और सवालों का सामना कर रहे पत्रकार

 


  • आमिर पीरज़ादा
  • बीबीसी संवाददाता, श्रीनगर से
आक़िब जावीद
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आक़िब जावीद

भारत सरकार ने बीते साल जम्मू-कश्मीर का विशेष संवैधानिक दर्जा समाप्त कर दिया था. तब से ही भारत प्रशासित कश्मीर में पत्रकारिता को लेकर जोख़िम बढ़ गया है.

इस सप्ताह भारत की राष्ट्रीय जाँच एजेंसी(एनआईए) ने ग्रेटर कश्मीर के दफ़्तर और एएफ़पी के पत्रकार परवेज़ बुख़ारी के घर पर छापेमारी की.

कुल मिलाकर एनआईए ने श्रीनगर और दिल्ली में नौ ठिकानों पर छापेमारी की जिनमें एनजीओ के दफ़्तर, शीर्ष कार्यकर्ताओं के घर शामिल हैं.

एनआईए का कहना है कि ये छापे विश्वस्नीय सूचनाओं के आधार पर मारे गए थे. एनआईए का आरोप है कि ये एनजीओ और लोग विदेशों से पैसा ले रहे हैं और उसका इस्तेमाल अलगाववाद को बढ़ावा देने वाली गतिविधियों में कर रहे हैं.

लेकिन आलोचकों का कहना है कि ये छापे ऐसे समय में मारे गए हैं जब कश्मीर में पत्रकारिता और विरोध की आवाज़ें पहले से ही निशाने पर थीं.

बीते एक साल में कम से कम 18 पत्रकारों से पुलिस ने पूछताछ की है और कथित तौर पर पत्रकारों पर हमले भी हुए हैं.

पाँच पत्रकारों ने अपनी कहानी बीबीसी से साझा की है-

आक़िब जावेद, 28

आक़िब जावेद को सितंबर में श्रीनगर साइबर पुलिस के दफ़्तर बुलाया गया था.

आक़िब का कहना है कि पुलिस चाहती थी कि आर्टिकल 14 नाम की वेबसाइट पर प्रकाशित उनकी ख़बर का शीर्षक और उसके साथ लगाई गई तस्वीर बदल दी जाए. ये ख़बर उन दर्जनों ट्विटर खातों के बारे में थी जो कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाए जाने के बारे में किए गए पोस्ट के बाद से ख़ामोश हो गए थे.

जावेद का कहना है कि पुलिस ने उन पर स्टेशन की ग़लत तस्वीर इस्तेमाल करने के आरोप लगाए. आक़िब का कहना है कि उन्हें लगा कि उनका अपहरण कर लिया गया है. उनका आरोप है कि मास्क लगाए पुलिसकर्मियों ने उन्हें थप्पड़ भी मारे.

पुलिस ने एक बयान में कहा है कि ये आरोप तथ्यात्मक रूप से ग़लत हैं और भ्रामक हैं. पुलिस ने ये भी कहा है कि उस ख़बर का शीर्षक और उसमें इस्तेमाल की गई तस्वीर भी भ्रामक थी.

जावेद कहते हैं कि आख़िरकार उन्होंने अपने एडिटर को फ़ोन किया और बदलाव करवाए. ख़बर का मूल शीर्षक था- 'असली साइबर बुलीः कश्मीर में पुलिस ने ट्विटर यूज़र से पूछताछ की.'

इसे बदल दिया गया. नई हेडलाइन थी- 'कश्मीर में पुलिस ने सरकार विरोधी पोस्ट के लिए ट्विटर यूज़र से पूछताछ की'.

आर्टिकल 14 वेबसाइट ने स्टेशन की ग़लत तस्वीर प्रकाशित करने के लिए माफ़ी भी माँगी.

जावेद कहते हैं कि अगर ये मामला सिर्फ़ तस्वीर के इस्तेमाल तक होता तो पुलिस संदेश भेज देती और इसे बदल दिया जाता.

वो कहते हैं, "जब भी किसी पत्रकार का उत्पीड़न होता है या उसे मारा-पीटा जाता है, तो किसी को ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जाता. इसी वजह से आजकल ये बहुत ज़्यादा हो रहा है."

पीरज़ादा आशिक़, 39

पीरज़ादा आशिक
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पीरज़ादा आशिक

अप्रैल में द हिंदू के पत्रकार पीरज़ादा आशिक़ के ख़िलाफ़ श्रीनगर पुलिस ने मामला दर्ज किया. इसकी जड़ में दो कथित लड़ाकों के शवों को क़ब्र से निकालने की मंज़ूरी की ख़बर थी जिस पर पीरज़ादा ने रिपोर्ट की थी.

ये लड़ाके सुरक्षा बलों के साथ एनकाउंटर में मारे गए थे लेकिन इन्हें बेनाम क़ब्रों में दफ़नाया गया था. अधिकारियों का कहना था कि वे शव परिवार को नहीं देंगे. अधिकारियों का तर्क था कि ऐसा करने से जनाज़े में बड़ी तादाद में लोग शामिल हो सकते हैं और इससे महामारी के हालात और मुश्किल हो सकते हैं.

लेकिन एक लड़ाके के रिश्तेदार ने आशिक़ को बताया था कि उन्हें सरकार की ओर से शव को क़ब्र से निकालकर अंतिम संस्कार करने की मंज़ूरी मिल गई है. आशिक़ का कहना है कि उनके पास परिवार की ओर से दायर प्रार्थना पत्र की कॉपी थी लेकिन अधिकारियों ने इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी थी.

लेकिन ख़बर के प्रकाशन के बाद पुलिस ने इसे फ़ेक न्यूज़ बताते हुए कहा था कि इससे आम जनता में डर और चिंता पैदा हो सकती है. पुलिस ने आशिक़ पर बिना ज़िला प्रशासन का पक्ष लिए ख़बर प्रकाशित करने के आरोप भी लगाए. हालांकि रिपोर्ट में कहा गया था कि अधिकारियों ने अपनी प्रतिक्रिया नहीं दी है.

'द हिंदू' अख़बार ने बाद में स्पष्टीकरण देते हुए कहा था कि परिवारों ने क़ब्र पर जाकर प्रार्थना करने की अनुमति को क़ब्र से शव निकालकर दोबारा दफ़नाने की अनुमति समझ लिया था.

हालांकि तब तक पीरज़ादा आशिक़ को दो बार पुलिस स्टेशन बुलाया जा चुका था. एक बार श्रीनगर में और एक बार क़रीब 60 किलोमीटर दूर अनंतनाग में.

आशिक़ कहते हैं कि उनसे डराने-धमकाने वाले सवाल किए गए. दूसरी बार उन्हें कई घंटों तक पुलिस स्टेशन में रखा गया.

वो कहते हैं, "उन्होंने बार-बार मुझसे एक जैसे ही सवाल पूछे और बाद में रात को साढ़े दस बजे मुझे जाने दिया गया."

वो कहते हैं कि अधिकारी अगर चाहते तो फ़ोन या ईमेल करके रिपोर्ट ठीक करवा सकते थे लेकिन उन्हें इस प्रक्रिया को उनके लिए एक सज़ा बना दिया.

आशिक़ के ख़िलाफ़ दर्ज केस अभी भी चल रहा है.

उन्होंने बताया, 'वो कहते हैं कि रिपोर्ट में मेरा नाम नहीं है लेकिन वो केस को बंद भी नहीं कर रहे हैं ताकि कभी भी मुझे पूछताछ के लिए बुलाया जा सके.'

अनुराधा भसीन, 52

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अनुराधा भसीन

19 अक्तूबर को प्रशासन ने कश्मीर टाइम्स का श्रीनगर दफ़्तर सील कर दिया. अनुराधा भसीन इस स्थानीय अख़बार की संपादक हैं.

भसीन कहती हैं कि उन्हें दफ़्तर सील करने से पहले ना कोई नोटिस दिया गया और ना ही कोई कारण बताया गया. ये डराने का ही एक तरीक़ा है.

जम्मू क्षेत्र में अख़बार के दफ़्तर अभी भी खुले हैं. लेकिन श्रीनगर के कर्मचारी अपने घरों से ही काम कर रहे हैं क्योंकि दफ़्तर बंद कर दिया गया है.

अधिकारियों ने इस प्रकरण पर बीबीसी को अपना पक्ष नहीं दिया है.

लेकिन एक बयान में एडिटर गिल्ड ऑफ़ इंडिया ने कहा है कि इस क़दम का कश्मीर घाटी में मीडिया पर गहरा असर होगा. भसीन मानती हैं कि दफ़्तर सील करना बदले की कार्रवाई है.

भसीन कश्मीर के मुद्दों पर खुलकर बोलती और लिखती रही हैं.

2019 में उन्होंने कश्मीर में संचार माध्यमों पर लगे प्रतिबंध के ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी. कश्मीर में इंटरनेट, लैंडलाइन और मोबाइल नेटवर्क बंद कर दिए गए थे और सोशल मीडिया वेबसाइटों को भी रोक दिया गया था.

वो कहती हैं, "जिस दिन मैं अदालत गई, अख़बार को मिलने वाले सरकारी विज्ञापन रोक दिए गए. वो नज़रिए पर ही नियंत्रण करना चाहते हैं."

फ़हद शाह, 30

फ़हद शाह
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फ़हद शाह

फ़हद ने मई में चरमपंथियों और सुरक्षाबलों के बीच हुई एक मुठभेड़ पर रिपोर्ट की थी. इस मुठभेड़ में कई घर भी बर्बाद हो गए थे.

फ़हद शाह 'द कश्मीरवाला' नाम की एक साप्ताहिक पत्रिका और वेबसाइट के संस्थापक और संपादक हैं.

उनकी रिपोर्ट के मुताबिक़ मुठभेड़ में कम से कम पंद्रह घर तबाह हुए थे. वेबसाइट पर प्रकाशित एक वीडियो में स्थानीय लोगों ने सुरक्षा बलों पर घरों में घुसने और गहने लूट लेने के आरोप भी लगाए थे.

शाह का कहना है कि कुछ ही दिन बाद पुलिस ने उन पर मानहानि करने का आरोप लगा दिया.

वो कहते हैं, "जब मुठभेड़ हुई तो संचार के सभी माध्यम बंद कर दिए गए. हम पुलिस से संपर्क कैसे करते? अगर पुलिस ने आरोपों पर सफ़ाई दी होती तो हम उसका प्रकाशन भी करते."

कुछ सप्ताह बाद उन्हें एक दूसरे पुलिस स्टेशन बुलाया गया और पूछताछ की गई. इस बार उन पर फ़ेक न्यूज़ फैलाने और हिंसा के लिए प्रेरित करने के आरोप लगाए गए.

शाह का कहना है कि इसी महीने उन्हें चार घंटों के लिए हिरासत में रखा गया था. वो कहते हैं कि इसकी वजह भी उन्हें नहीं बताई गई.

बीबीसी ने शाह के आरोपों पर पुलिस का पक्ष जानने के लिए पुलिस से संपर्क किया लेकिन कोई जवाब नहीं मिल सका.

शाह कहते हैं, 'बुलाया जाना, उत्पीड़न किया जाना और पूछताछ किया जाना अब हैरानी की बात नहीं रही है. धीरे-धीरे ये सामान्य बात बनता जा रहा है.'

मसरत ज़हरा, 26

मसरत ज़ेहरा
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मसरत ज़ेहरा

फ़ोटो पत्रकार मसरत ज़हरा कहती हैं, 'अब कोई बोलने की हिम्मत नहीं करता. मैं कई ऐसे लोगों को जानती हूं जो अब पत्रकारिता छोड़ चुके हैं क्योंकि पुलिस ने ऐसा डर का माहौल बना दिया है.'

अप्रैल में पुलिस ने मसरत ज़हरा के ख़िलाफ़ यूएपीए (ग़ैर-क़ानूनी गतिविधियां रोकथाम अधिनियम) के तहत मुक़दमा दर्ज किया था. उन पर आपराधिक मंशा से राष्ट्रविरोधी कंटेंट अपलोड करने के आरोप लगाए गए थे.

ये मुक़दमा 2018 में इंस्टाग्राम पर की गई एक पोस्ट के आधार पर किया गया था. ये एक धार्मिक कार्यक्रम की तस्वीर थी जिसमें लोगों ने मारे गए चरमपंथी नेता बुरहान वानी के पोस्टर हाथों में ले रखे थे.

22 साल के वानी की मौत के बाद कश्मीर घाटी में व्यापक प्रदर्शन हुए थे. उन्हें बहुत से स्थानीय लोगों का समर्थन प्राप्त था जो कश्मीर में भारतीय शासन का विरोध करते हैं. मुठभेड़ में उनकी मौत के बाद बहुत से लोगों ने उन्हें कश्मीर का हीरो मान लिया था.

ये स्पष्ट नहीं है कि मसरत ज़हरा के पोस्ट पर कई साल बाद केस क्यों दर्ज किया गया. उन्हें अभी गिरफ़्तार नहीं किया गया है लेकिन मामला चल रहा है. वो कहती हैं, 'मेरे दिमाग़ में ये डर रहता है कि पुलिस मुझे कभी भी गिरफ़्तार कर सकती है.'

'मुझे लगता है कि मेरे ज़रिए वो पत्रकारों को ये संदेश देना चाहते हैं कि हमने एक लड़की को भी नहीं छोड़ा है, अगली बार कोई भी हो सकता है.'

https://www.bbc.com

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