जेएनयू हिंसा: एक साल बाद भी इंसाफ़ पाने का इंतज़ार
- कार्तिकेय
- बीबीसी के लिए
सूर्य प्रकाश जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में एक संस्कृत रिसर्च स्कॉलर हैं. 26 साल के सूर्य प्रकाश दृष्टिबाधित हैं. वो राष्ट्रीय स्तर के एथलीट और जूडो खिलाड़ी हैं और यूपीएससी की तैयारी भी कर रहे हैं.
पाँच जनवरी, 2020 की शाम को सूर्य प्रकाश अपने लैपटॉप पर ईयरफ़ोन से सुनकर पढ़ाई कर रहे थे.
तभी हॉस्टल में उनके कमरे के दरवाज़े के ऊपर बनी खिड़की का कांच टूटकर उनके सिर पर गिर गया. तुरंत बाद उन्होंने अपना दरवाज़ा (जिस पर भीमराव आंबेडकर की तस्वीर लगी थी) खुलने की आवाज़ सुनी और लड़की चिल्लाई, "अंधा है तो क्या हुआ? मारो!"
सूर्य प्रकाश जेएनयू के उन कई स्टूडेंट्स, फ़ैकल्टी सदस्यों और स्टाफ़ में शामिल थे जो पत्थरों और लोहे की रॉड के साथ आई भीड़ के हमले में घायल हुए थे. इस भीड़ में कई लड़के और लड़कियों ने मास्क से अपना चेहरा ढका हुआ था.
ये लगा कि ये हमला विश्वविद्यालय में फ़ीस वृद्धि और नागरिकता संशोधन अधिनियम के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने से रोकने के लिए किया गया है. भीड़ में आए लोग विश्वविद्यालय कैंपस में दो घंटे तक मारपीट और तोड़फोड़ करते रहे. जेएनयू छात्रसंघ अध्यक्ष आइशी घोष सहित कम से कम 28 लोग इस हमले में घायल हो गए.
कोई गिरफ़्तारी या सज़ा हुई?
स्टूडेंट्स और शिक्षकों की ओर से कई शिकायतें करने और एक साल से ज़्यादा होने के बावजूद इस मामले में आज तक कोई गिरफ़्तारी नहीं हुई है जबकि हिंसा के वीडियो और तस्वीरें वायरल हो गई थीं.
एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने न्यूज़ एजेंसी पीटीआई को बताया, "जेएनयू हिंसा के संबंध में तीन एफ़आईआर दर्ज की गई हैं. इन सभी मामलों में जाँच चल रही है. एफ़आईआर में कुछ संदिग्धों के नाम लिखे गए हैं लेकिन कोरोना वायरस महामारी के कारण हमारी जाँच प्रभावित हुई है. इन सभी मामलों की जाँच चल रही है."
जेएनयू प्रशासन ने एक बयान में कहा था कि "मास्क पहने हुए कुछ शरारती तत्व डंडों के साथ घूम रहे थे, तोड़फोड़ कर रहे थे और लोगों पर हमला कर रहे थे."
वामपंथी छात्र संगठन और बीजेपी का छात्र संगठन एबीवीपी दोनों हिंसा के लिए एक-दूसरे को ज़िम्मेदार ठहरा रहे हैं.
दिल्ली पुलिस ने दावा किया था कि नौ छात्र विश्वविद्यालय कैंपस में हिंसा के लिए संदिग्ध पाए गए हैं. इनमें से सात स्टूडेंट वामपंथी संगठनों से जुड़े हैं और इसमें आइशी घोष का नाम भी शामिल है. लेकिन, पुलिस ने किसी भी छात्र संगठन का नाम नहीं बताया है.
पुलिस के विशेष जाँच दल (एसआईटी) ने शुरुआती जाँच के आधार पर सात संदिग्धों की तस्वीर जारी की थी. पुलिस का ये भी कहना था कि पाँच जनवरी को हुई हिंसा ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन प्रक्रिया का नतीजा थी और विश्वविद्यालय में तनाव की शुरुआत एक जनवरी से ही हो गई थी.
एसआईटी का नेतृत्व कर रहे डीसीपी (क्राइम ब्रांच) जॉय टिर्की ने एक प्रेस वार्ता में बताया था कि स्टूडेंट फ़ेडरेशन ऑफ़ इंडिया (एसएफ़आई), ऑल इंडिया स्टूडेंट्स एसोसिएशन (आइसा), डेमोक्रेटिक स्टूडेंट्स फ़ेडरेशन (डीएसएफ़) और ऑल इंडिया स्टूडेंट फ़ेडरेशन (एआईएसएफ़) ने कथित तौर पर "विश्वविद्यालय के शीतकालीन सेमेस्टर में ऑनलाइन प्रवेश के ख़िलाफ़ रुकावट पैदा कर रहे थे और स्टूडेंट्स को धमकी दे रहे थे."
लेकिन, इस हमले के पीड़ित अब भी न्याय पाने का इंतज़ार कर रहे हैं. उनमें से कई हॉस्टल कैंपस छोड़कर चले गए और आसपास के पीजी या किराये के कमरे में रहने लगे. कुछ लोग उस रात के अनुभव को याद करके अब भी डर जाते हैं जबकि कई लोग अब भी थोड़े बहुत शोर और क़दमों की आवाज़ से ही परेशान हो उठते हैं.
'नया सुरक्षा स्टाफ़ पाकिस्तानी कहता है'
उस हमले से जुड़ी भावनाओं को लेकर उदिता हलदर कहती हैं, "हम सदमे में थे लेकिन कैंपस में वापस आना चाहते थे. कई लोग हमले के बाद चले गए और कोरोना वायरस के बाद हॉस्टल ख़ाली हो गया."
29 साल की उदिता हलदर अर्थशास्त्र में रिसर्च स्कॉलर हैं और 'कलेक्टिव' नाम की एक दिल्ली बेस्ड वामपंथी संगठन की सक्रिय सदस्य हैं. इस संगठन की जेएनयू, दिल्ली विश्वविद्यालय और आंबेडकर विश्वविद्यालय में इकाइयां हैं.
वह दावा करती हैं, "हमले से एक दिन पहले चार जनवरी को कुछ फ़ैकल्टी सदस्य एबीवीपी के समर्थन में आ गए और उस समूह का नेतृत्व किया जिसने उस दिन स्टूडेंट्स पर हमला किया था. मैं भी इस हमले में घायल हुई थी."
एबीवीपी के पदाधिकारी से साक्षात्कार के लिए बार-बार अनुरोध किया गया था लेकिन कहानी लिखे जाने तक उनकी तरफ़ से कोई जवाब नहीं आया.
हमले के एक साल बाद विश्वविद्यालय के माहौल को लेकर हलदर कहती हैं कि जेएनयू में हिंसा अब सामान्य बात हो गई है. नया सुरक्षा स्टाफ़ स्टूडेंट एक्टिविस्ट को डराता है और उन्हें 'पाकिस्तानी' कहता है.
लेकिन, परिसर के सुरक्षा स्टाफ़ ने हलदर के उन आरोपों को ख़ारिज किया है. विश्वविद्यालय प्रशासन या कुलपति कार्यालय से इन सभी आरोपों पर कोई बयान नहीं दिया है.
31 साल के कमलेश मंद्रिया के साथ पाँच जनवरी की सुबह क्या हुआ इसकी याद उन्हें अब भी दिमाग़ में ताज़ा है.
सुबह 10-11 बजे के क़रीब, जेएनयूटीए के साथ मंद्रिया (एक रिसर्च स्कॉलर) सहित 300 स्टूडेंट्स ने हॉस्टलों में शांतिपूर्ण मार्च की योजना बनाई.
वह कहते हैं, "पेरियार होस्टल में दिल्ली पुलिस पीसीआर और जूएनयू के 56-60 सिक्योरिटी स्टाफ़ थे. उनके ठीक पीछे एबीवीपी के स्टूडेंट्स रौड और पत्थर लेकर खड़े थे. जैसे ही हम उनके नज़दीक पहुँचे तो उन्होंने पत्थर फेंकने शुरू कर दिए."
कमलेश बताते हैं, "कुछ देर में मुझे 10 लोगों ने घेर लिया और मेरे सिर पर रॉड से हमला कर दिया. मैं छात्र राजनीति में कभी शामिल नहीं रहा और ना ही किसी संगठन से जुड़ा हुआ हूं. मैं एक सामान्य छात्र के तौर पर खड़ा हुआ था."
उन्होंने बताया, "वो मेरी ज़िंदगी का सबसे बुरा पल था. जब भी मैं पढ़ने के लिए बैठता हूं तो वो घटना मेरे दिमाग़ में आ जाती है. आज तक मैं मेट्रो या दूसरे सार्वजनिक वाहनों में सफ़र करने से डरता हूं."
28 साल के सतीश चंद्र यादव कहते हैं, "हम अब तक डरे हुए हैं कि कभी भी कुछ भी हो सकता है. जो लोग इसमें शामिल थे वो अपना सिर ऊंचा करके यह सोचते हुए खुलेआम घूम रहे हैं कि उन्हें कुछ नहीं हो सकता. जो कुछ हुआ उसने कैंपस के माहौल को बर्बाद कर दिया जो पिछले 50 सालों में तैयार हुआ था."
जेएनयू छात्र संघ के महासचिव और रिसर्च स्कॉलर सतीश चंद्र यादव बताते हैं कि पाँच जनवरी को जो कुछ हुआ, वो कल्पना से परे था. उन्होंने और कई दूसरे छात्रों ने कई बार पुलिस को फ़ोन किया लेकिन वे मेन गेट के बाहर खड़े होते हुए भी उन्हें बचाने नहीं आए.
दिल्ली पुलिस ने हिंसा भड़कने के बाद कैम्पस में फ्लैग मार्च किया. पुलिस के एक प्रवक्ता ने पिछले साल इस आरोप को ख़ारिज किया था कि कैम्पस से शिकायत आने के बाद पुलिस ने देर से कार्रवाई की थी.
सतीश चंद्र यादव कहते हैं, "उस वक़्त जिस तरह भय का माहौल बना था, वैसा ही आज तक बना हुआ है. आज भी जब हम किसी चीज़ के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाते हैं तो डर महसूस करते हैं."
फ़ैकल्टी मेंबर्स ने अपने अनुभव याद किए
जेएनयू शिक्षक संघ की ओर से आयोजित शांति मार्च साबरमती ढाबे के पास पाँच जनवरी को ख़त्म हुआ था.
सेंटर फ़ॉर रिजनल डेवेलपमेंट की प्रोफ़ेसर सुचित्रा सेन अपने छात्रों को ग़लत दिशा में जाने से रोक रही थीं और किसी भी तरह की हिंसक झड़प में शामिल होने से मना कर रही थीं. क्योंकि उन्होंने किसी से सुना था कि कैम्पस के अंदर हथियार बंद भीड़ घुस गई है.
सभी शिक्षकों को लगा था कि ये भीड़ उन पर हमला नहीं करेगी इसलिए वे छात्रों से कह रहे थे कि वे उनके पीछे खड़े रहें. कुछ ही मिनटों में उन पर पत्थरबाज़ी शुरू हो गई. इनमें से दो पत्थर प्रोफ़ेसर सेन को आकर लगे. एक उनके कंधे पर और दूसरा सिर के किनारे. उन्हें तेज़ी से ख़ून निकलने लगा. उन्हें जब नॉर्थ गेट से बाहर ले जाया जा रहा था तब उन्होंने गेट पर कई पुलिसवालों को खड़ा देखा.
उनमें से दो ने उनकी तरफ़ देखा फिर अपनी नज़रें फेर लीं. प्रोफ़ेसर सेन कहती हैं, "यह मेरी याद में कहीं धंस गई है. मैं इस पल को नहीं भूल सकती."
आजतक प्रशासन की ओर से किसी ने भी प्रोफ़ेसर सेन से इस बारे में पूछताछ नहीं की है. दो महीने के बाद पुलिस आई थी और मामले की तफ़्तीश की लेकिन उनसे कभी नहीं पूछा गया.
उनके मुताबिक़ जो कुछ हुआ उसे लेकर उनके मन में कुछ दिनों तक डर बना रहा लेकिन अब वो डर ग़ायब हो चुका है. हालांकि इस हमले ने 'यूनिवर्सिटी' जैसी जगह की गरिमा को नुक़सान पहुँचाया है.
सेंटर फ़ॉर रिजनल डेवेलपमेंट के असिस्टेंट प्रोफ़ेसर अमित थोराट को उस दिन पता चला कि पेरियार होस्टल के बाहर 'ख़तरनाक' लोगों का एक समूह जमा हो चुका है. उन्होंने तीन बार पुलिस को कॉल किया. पुलिस ने उनसे कहा कि वे फ़ोर्स भेज रहे हैं. लेकिन जब ऐसा नहीं हुआ तब उन्होंने ख़ुद से जाकर देखने का फ़ैसला लिया कि क्या हो रहा है. साइकिल चलाकर वो जब वहाँ पहुँचे तो उन्होंने रॉड और डंडों से लैस 50-100 लोगों को देखा. उन लोगों ने चेहरे पर सफ़ेद रूमाल बांध रखा था.
यह देखकर घबराए प्रोफ़ेसर थोराट ने अपनी जेब से फ़ोन निकाला उनकी तस्वीर ले ली.
उन्हें तस्वीर लेते उस भीड़ ने देख लिया था. भीड़ से दो लोग उनकी तरफ़ भागे और उन्हें घेर कर उनके साथ बदतमीज़ी शुरू कर दी और फ़ोन से तस्वीर डिलीट करने को कहने लगे.
उन्हें मजबूरन वो तस्वीरें डिलीट करनी पड़ीं. उन्होंने जैसे ही फ़ोन को जेब में रखा, उन लोगों ने प्रोफ़ेसर थोराट को मारना शुरू कर दिया. वो अपनी साइकिल छोड़ कर साबरमती ढाबे की ओर भागे और उन्होंने वहाँ सबको इसके बारे में बताया.
थोराट और दूसरे फ़ैकल्टी मेंबर्स ने पुलिस में एफ़आईआर दर्ज कराई थी लेकिन किसी ने भी अब तक इस मामले में उनसे कोई पूछताछ नहीं की है.
प्रोफ़ेसर थोराट कहते हैं, "हमले ने हमें और निडर बना दिया है. उन्हें इस बात का एहसास हो रहा होगा कि ये कितनी बेकार की क़वायद थी. जेएनयू के छात्रों को ग़ुस्सा, दुख और अपने साथ धोखा हुआ महसूस होता है. लेकिन वो अब डरते नहीं है क्योंकि जो सबसे बुरा होना था वो हो चुका है."
'अगर हमलावर बाहर से आए थे, तब वे बॉउंड्री से कूद कर आए होंगे'
यूनिवर्सिटी के एक सुरक्षा अधिकारी इस हमले से सुरक्षा कर्मियों के किसी भी तरह के जुड़े होने या सुरक्षा में किसी भी तरह की कोई चूक होने के आरोप को ख़ारिज करते हैं. वो अपना नाम नहीं बताना चाहते हैं क्योंकि वो मीडिया से बात करने को लेकर अधिकृत नहीं हैं.
वो बताते हैं, "जेएनयू की बॉउंड्री कई जगहों पर कमज़ोर और टूटी हुई है. इसके अलावा कैम्पस बहुत बड़ा है और क़रीब 1000 एकड़ में फैला हुआ है. इसका एक बड़ा हिस्सा जंगल है. उस दिन अगर कोई बाहर से आया है तो उसे बॉउंड्री कूद के आना पड़ा होगा. मैं यह निश्चित तौर पर कह सकता हूँ कि वे मेन गेट से नहीं आए हैं क्योंकि वहाँ सीसीटीवी कैमरे भी लगे हुए हैं."
वो आगे कहते हैं, "मैं ये नहीं कह सकता हूँ कि वे लोग कैम्पस के बाहर के थे या अंदर के. अब तक तीन जाँच हो चुके हैं. लेकिन किसी भी जाँच की रिपोर्ट पेश नहीं की गई है."
पुलिस के देर से पहुँचने पर वो कहते हैं कि हालांकि यह कहीं लिखित में नहीं है लेकिन सिर्फ़ वाइस चाइंसलर के लिखित अनुमति के बाद ही पुलिस कैम्पस में आती है और यही पाँच जनवरी को भी हुआ.
सूर्य प्रकाश तीन सालों से जेएनयू में हैं. वो कहते हैं कि उस रात ऐसा डर था कि उनके अलावा कोई भी बाथरूम तक में नहीं गया. कई लोगों ने पेशाब करने के लिए बाल्टी और मग का इस्तेमाल किया.
हमने सूर्य प्रकाश से पूछा कि तब से कैम्पस कितना बदल गया है.
इस पर उन्होंने कहा, "छात्र टूट चुके हैं और डरे हुए हैं. लेकिन वो हमें रोक नहीं पाएंगे. जेएनयू ऐसी जगह है जहाँ मेरे जैसा नेत्रहीन भी वाक़ई में नेत्रहीन नहीं है."
उन्होंने जेएनयू के एक अन्य नेत्रहीन छात्र और एक्टिविस्ट शशि भूषण पांडे की शायरी सुनाते हुए कहा-
"हज़ारों ख़्वाब, नींद, अश्क और तेरा चेहरा...
जगह कहां है इन आंखों में रोशनी के लिए"
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