श्रीलंका में भारत को लगा झटका क्या चीन की वजह से है?
- सरोज सिंह
- बीबीसी संवाददाता, दिल्ली
पड़ोसी देशों के साथ भारत के रिश्ते इन दिनों काफ़ी उतार-चढ़ाव से गुज़र रहे हैं.
पाकिस्तान, चीन और नेपाल के बाद अब एक बुरी ख़बर श्रीलंका से आई है.
मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक़ श्रीलंका में बंदरगाहों के निजीकरण के विरोध में एक मुहिम चल रही है. ट्रेड यूनियन, सिविल सोसाइटी और विपक्षी पार्टियाँ भी इस विरोध में शामिल हैं.
अब वहाँ की राजपक्षे सरकार ने भारत के साथ एक ट्रांसशिपमेंट परियोजना के करार को ठंडे बस्ते में डाल दिया है.
इस ट्रांसशिपमेंट परियोजना को ईस्ट कंटेनर टर्मिनल नाम से जाना जाता है. इसे बनाने का करार राष्ट्रपति मैत्रीपाला सिरीसेना- प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे सरकार के दौरान मई 2019 में हुआ था, जो भारत और जापान को मिल कर बनाना था. भारत की तरफ़ से अडानी पोर्ट को इस प्रोजेक्ट पर काम करना था.
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यानी ये करार श्रीलंका, भारत और जापान के बीच था, जिसमें 51 फ़ीसदी हिस्सेदारी श्रीलंका की और 49 फ़ीसदी हिस्सेदारी भारत और जापान की होनी थी.
मीडिया रिपोर्ट्स के मुताब़िक सोमवार को बंदरगाहों के निजीकरण का विरोध कर रहे ट्रेड यूनियन वालों से प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे ने कहा कि ईस्ट कंटेनर टर्मिनल में 100 फ़ीसदी हिस्सेदारी श्रीलंका पोर्ट अथॉरिटी (एसएलएपी) की ही होगी.
उनके इसी बयान के बाद ख़बरे आई कि भारत के साथ ईस्ट कंटेनर टर्मिनल का करार श्रीलंका ने रद्द कर दिया गया है.
ईस्ट कंटेनर टर्मिनल क्यों महत्वपूर्ण है ?
सामारिक नज़रिए से ये कंटेनर टर्मिनल बहुत ही महत्वपूर्ण बताया जाता है. उस इलाक़े का लगभग 70 फ़ीसदी कारोबार इसी के ज़रिए होता है. ये ट्रांसशिपमेंट कोलंबो के नज़दीक है. पड़ोसी देश होने के नाते भारत इसका सबसे ज़्यादा उपयोग भी करता है.
श्रीलंका सरकार ने अब ईस्ट कंटेनर टर्मिनल की जगह वेस्ट कंटेनर टर्मिनल भारत के सहयोग से बनाने का प्रस्ताव दिया है. नए प्रस्ताव के तहत श्रीलंका इसे पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप की तर्ज़ पर भारत और जापान के साथ ही मिल कर बनाना चाहता है. हालाँकि अभी तक भारत सरकार नए प्रस्ताव को लेकर बहुत उत्साहित नहीं है.
श्रीलंका की अंदरूनी राजनीति
अभी हाल ही की बात है, जब भारत ने वैक्सीनमैत्री के तहत श्रीलंका को 50 हज़ार कोरोना वैक्सीन की डोज़ भेजी है. भारत सरकार के इस प्रयास के लिए श्रीलंका सरकार ने काफ़ी सरहाना भी की. भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर भी श्रीलंका को अपना भरोसेमंद दोस्त बताते नहीं थक रहे थे.
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फिर आख़िर श्रीलंका सरकार ने ये फ़ैसला क्यों लिया?
ऑब्ज़र्वर रिसर्च फ़ाउंडेशन से जुड़े सत्यमूर्ति इसके पीछे वहाँ की अंदरूनी राजनीति और उसमें ट्रेड यूनियन के दखल को मानते हैं.
चेन्नई से बीबीसी से बात करते हुए वे कहते हैं, "श्रीलंका में हर सरकार ट्रेड यूनियन को नाराज़ करने का रिस्क नहीं उठा सकती है. ऐसा इसलिए क्योंकि राजनीतिक तौर पर उनका दखल बहुत है. राजनीति में उनकी नाराज़गी किसी भी पार्टी को बहुत नुक़सान पहुँचा सकती हैं. कुछ पार्टियाँ इस बात को स्वीकार करती हैं, कुछ नहीं करती. लेकिन ये बात हर पार्टी पर लागू होती है. यही वजह है कि पिछली सरकार ने एमओयू साइन तो किया, लेकिन उनके कार्यकाल में भी ये काम शुरू नहीं हो पाया."
ऐसे में ज़ाहिर है कि अगर स्थानीय ट्रेड यूनियन की तरफ़ से भारत के इस परियोजना में शामिल होने का विरोध हो रहा है, तो सत्ताधारी पार्टी उनकी नाराज़गी का जोखिम नहीं उठाना चाहेगी.
वहीं वरिष्ठ पत्रकार टीआर रामचंद्रन भारत के साथ परियोजना को रद्द करने के पीछे दो महत्वपूर्ण कारण मानते हैं. वो कहते हैं, पहली वजह हैं वहाँ के भारतीय तमिल- श्रीलंका के सिंहला समुदाय के बीच की खींचतान, जो लंबे समय से चली आ रही है.
"तमिल समुदाय को वहाँ अल्पसंख्यक माना जाता है, भारत की तरफ़ से किसी भी तरह की मदद को वहाँ के स्थानीय लोग भारत के बढ़ते दबदबे के तौर पर देखते हैं. इसलिए वहाँ के पोर्ट यूनियन वाले नहीं चाहते कि भारत की मदद से वहाँ इस तरह का कोई काम हो. वो कहते हैं कि बंदरगाह यूनियन में तमिलों का प्रतिनिधित्व तो है, लेकिन चलती सिंहला समुदाय के लोगों की है."
वो बताते हैं कि पिछले एक-सवा महीने से वहाँ निजीकरण के विरोध में काफ़ी तेज़ आवाज़ें उठीं हैं और सत्ताधारी पार्टी को दिक़्कतों का सामना करना पड़ रहा है.
सत्ताधारी पार्टी को डर है कि कहीं इस वजह से कुर्सी को ख़तरा ना हो जाए. निजीकरण के विरोध में ना केवल पोर्ट ट्रेड यूनियन है, बल्कि अब सिविल सोसाइटी भी उनके साथ आ गई है.
चीन का श्रीलंका में दख़ल
टीआर रामचंद्रन श्रीलंका के इस फ़ैसले के पीछे दूसरी वजह चीन के बढ़ते दबाव को मानते हैं.
उनके मुताबिक़, "अगले 15-20 साल में वहाँ पूरी पॉपुलेशन चीन के कब्ज़े में चली जाएगी. आज वहाँ चीनियों की तादाद इतनी ज़्यादा हो गई है. श्रीलंका में चीन की काफ़ी परियोजनाएँ चल रही है. उनमें से चीन को अलग नहीं किया गया है. ये अपने आप में ग़ौर करने वाली बात है."
टीआर रामचंद्रन कहते हैं, "चीन की श्रीलंका में रणनीति ये रही है कि छोटे देशों को इतना क़र्ज़ दे दो कि वो उसका एक 'उपनिवेश' बन कर ही रह जाए. फिर छोटे देशों की अपने भले और बुरे के निर्णय लेने की क्षमता नहीं बचती."
इसके लिए वो हम्बनटोटा बंदरगाह का उदाहरण देते हैं.
श्रीलंका ने चीन का क़र्ज़ न चुका पाने के कारण हम्बनटोटा बंदरगाह चीन की मर्चेंट पोर्ट होल्डिंग्स लिमिटेड कंपनी को 99 साल के लिए लीज पर दे दिया था. साल 2017 में इस बंदरगाह को 1.12 अरब डॉलर में इस कंपनी को सौंपा गया. इसके साथ ही पास में ही क़रीब 15,000 एकड़ जगह एक इंडस्ट्रियल ज़ोन के लिए चीन को दी गई थी.
भारत और चीन को एक साथ साधने की कोशिश
भारत में विदेश मामलों की वरिष्ठ पत्रकार और टाइम्स ऑफ़ इंडिया की डिप्लोमेटिक एडिटर इंद्राणी बागची भी चीन को इस फ़ैसले के पीछे एक वजह मानती है.
बीबीसी से बातचीत में वो कहती हैं, "अगर ट्रेड यूनियन को ईस्ट कंटेनर टर्मिनल में श्रीलंका की 100 फ़ीसदी हिस्सेदारी चाहिए तो, वहाँ की सरकार वेस्ट कंटेनर टर्मिनल का प्रस्ताव भारत को क्यों दे रही है? क्या उस प्रस्ताव से ट्रेड यूनियन को दिक़्क़त नहीं होगी. चीन की पोर्ट परियोजनाओं में ऐसी माँग क्यों नहीं होती."
वो आगे कहती हैं, "सिरीसेना सरकार के साथ जब भारत का समझौता हुआ था, उस वक़्त भी चीन का उनपर बहुत दबाव था. राजपक्षे सरकार को वैसे भी चीन के क़रीब माना जाता है. नई सरकार चाहती है कि चीन के साथ आर्थिक समझौते करे और भारत के साथ सुरक्षा समझौते. ताकि दोनों को एक साथ साध सके."
इंद्राणी कहती हैं कि आर्थिक मोर्चे पर एक देश के साथ और सुरक्षा के मोर्चे पर दूसरे देश के साथ ऐसा होना थोड़ा मुश्किल है.
श्रीलंका सरकार के ताज़ा फ़ैसले से भारत सरकार की 'नेबरहुड फ़र्स्ट' पॉलिसी को एक धक्का ज़रूर लगा है.
लेकिन इंद्राणी इसे भारत की विदेश नीति की विफलता नहीं मानती. उनका कहना है कि एक परियोजना हाथ से जाने के बाद ऐसा कहना ग़लत होगा. लेकिन श्रीलंका के साथ भारत के रिश्ते हमेशा से जटिल रहे हैं. ये कोई नई बात नही है.
नई सरकार से भारत नज़दीकियाँ
नवंबर 2019 में श्रीलंका में नई सरकार बनने के बाद से अब तक भारत ने अब तक कई ऐसे पहल किए हैं, जिससे दोनों देशों के बीच बढ़ती दूरियों को पाटने की कोशिश के तौर पर देखा गया.
श्रीलंका में नई सरकार बनने पर भारत उन देशों में से था, जिसने सबसे पहले अपना संदेश उन्हें भेजा. गोटाबाया राजपक्षे के राष्ट्रपति पद संभालते ही अगले दिन भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर श्रीलंका दौरे पर पहुँच गए थे. उन्होंने गोटाबाया राजपक्षे से मुलाक़ात की और उन्हें भारत आने के लिए पीएम नरेंद्र मोदी की ओर से न्यौता भी दिया.
इसके बाद गोटाबाया राजपक्षे नवंबर में भारत के दौरे पर आए और दोनों देशों के बीच गर्मजोशी देखने को मिली.
इस दौरे को लेकर श्रीलंका की विदेश नीति पर नज़र रखने वाले जानकारों ने हैरानी भी जताई थी, क्योंकि गोटाबाया चीन के क़रीब बताए जाते थे.
इसके बाद जनवरी में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल की श्रीलंका यात्रा के दौरान भारत की ओर से श्रीलंका को 50 मिलियन डॉलर की मदद देने का वादा भी किया गया था.
हाल ही में कोरोना महामारी से निपटने के लिए भारत की तरफ़ से वैक्सीन भी श्रीलंका को भेजी गई है.
Received 500,000 #COVIDー19 vaccines provided by #peopleofindia at #BIA today(28).
— Gotabaya Rajapaksa (@GotabayaR) January 28, 2021
Thank you! PM Shri @narendramodi & #peopleofindia for the generosity shown towards #PeopleofSriLanka at this time in need. pic.twitter.com/yniKBWNeWC
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अभी एक महीना पहले ही विदेश मंत्री एस जयशंकर श्रीलंका के दौर से वापस लौटे हैं. लेकिन आज ऐसा लग रहा है जैसे मोदी सरकार द्वारा उठाए गए ये सारे क़दम श्रीलंका को भारत की तरफ़ खींचने में नाकाफ़ी साबित हुए हैं.
वरिष्ठ पत्रकार टीआर रामचंद्रन कहते हैं कि भारत सरकार की तरफ़ से अब भी कोशिशें जारी है कि श्रीलंका सरकार अपने फ़ैसले को वापस ले ले.
उनके मुताबिक़, "श्रीलंका के अख़बारों में भारतीय दूतावास के प्रवक्ता के हवाले से ख़बरे छपी हैं. भारत को भरोसा है कि श्रीलंका सरकार इस मसले को सुलझाने में कामयाब हो जाएगी. भारत सरकार नाउम्मीद नहीं है. पूरा मामला थोड़ा पेंचीदा और संजीदा है. जल्द ठीक नहीं होगा."हालांकि इंद्राणी कहती हैं कि भारत अगर केरल और तमिलनाडु में उतने बड़े स्तर का ट्रांसशिपमेंट पोर्ट बना ले, तो श्रीलंका पर से निर्भरता कम हो सकती है. ऐसे में भले ही भारत को अभी ज़्यादा नुक़सान हो, लेकिन आने वाले दिनों में श्रीलंका को भी कम परेशानी नहीं होगी. ये भी हो सकता है श्रीलंका चीन के और क़रीब चला जाए.
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