जाट मुसलमान एकता की बातें और मुज़फ़्फ़रनगर दंगों के घाव
- चिंकी सिन्हा
- बागपत और सिसौली से
वे कहते हैं, "हम उस दंगे को भूल जाएं. वक्त जाटों और मुसलमानों के साथ आने का है. लेकिन उस खूंरेजी को कैसे भूल जाएं? मेरे ही गांव के 13 लोग मार डाले गए थे. किसी को सज़ा नहीं हुई. मुज़फ़्फ़रनगर दंगों ने यहां कई चीजें बदल कर रख दी हैं"
रिज़वान सैफी यह सब बेहद धीमी आवाज में कह रहे थे. आवाज में कंपकंपाहट थी. जुबान लड़खड़ा रही थी. दंगों में उनके परिवार के छह लोग मारे गए थे. तब से वह अपने गांव नहीं लौट पाए हैं. अब भी वह मुज़फ़्फ़रनगर की पुनर्वास बस्ती में रह रहे हैं. नाम है- जन्नत कॉलोनी.
किसान आंदोलन के दौरान राकेश टिकैत की भावुक अपील के बाद मीडिया को पश्चिम उत्तर प्रदेश में जाटों और मुसलमानों में एक नई एकता दिख रही है. कई मीडिया विश्लेषणों में कहा जा रहा है इस नई एकता में उत्तर प्रदेश में सत्ता पलटने की क्षमता है. लेकिन बहुत सारे लोगों की आंखों के सामने अब भी दंगों के दौरान हुई भयानक हिंसा की तस्वीरें नाच रही हैं. इन दंगों ने उनकी जिंदगी हमेशा के लिए बदल दी है. वे याद करते हैं कि कैसे दंगों के दौरान पड़ोसी ही एक दूसरे के ख़ून के प्यासे हो गए. हमलों ने उनकी ज़िंदगी तार-तार कर दी.
किसान आंदोलन के दौरान राकेश टिकैत की भावुक तस्वीरें मीडिया में छाने के बाद पश्चिमी उत्तर प्रदेश में उनके समर्थकों के सैलाब उमड़ने लगे. किसान आंदोलन को समर्थन देने के लिए पूरे इलाके में जगह-जगह महापंचायतें हो रही हैं.
इनमें तमाम खापों के लोग जुट रहे हैं लेकिन रिज़वान को 2013 में कवाल में बुलाई गई ऐसी ही एक महापंचायत की याद है. 7 सितंबर, 2013 बुलाए गए 'बहू-बेटी बचाओ महासम्मेलन' में हुकुम सिंह, संगीत सोम और सुरेश राणा जैसे बीजेपी के बड़े स्थानीय नेता आए थे. उनके साथ भारतीय किसान यूनियन के प्रभावशाली नेता नरेश और राकेश टिकैत ने भी इस सम्मेलन में शिरकत की थी.
उस महापंचायत में अपनी 'औरतों का सम्मान बचाने' की अपील की गई थी. उस सम्मेलन की गूंज का असर अब भी दिखाई दे रहा है. यूपी में हाल में ही कथित 'लव जिहाद' रोकने के लिए धर्मांतरण विरोधी कानून लाया गया. देश में ऐसा करना वाला यूपी पहला राज्य बन गया.
मुज़फ़्फ़रनगर में पीट-पीटकर मार दिए गए शख़्स के मामले को तब 'लव जिहाद' का केस बताया गया था.
2013 में यह महापंचायत दो जाट युवकों की हत्या के बाद बुलाई गई थी. दोनों की हत्या 27 अगस्त को कवाल गांव में कर दी गई थी, कुछ लोग इसे एक मुसलमान नौजवान की हत्या का बदला बता रहे थे. इसके बाद दोनों समुदायों के बीच टकराव शुरू हो गया और पूरे इलाके में दंगे भड़क उठे.
राकेश और नरेश टिकैत पर दंगे भड़काने के आरोप लगाए गए और उनके ख़िलाफ़ एफ़आईआर दर्ज करवाई गई.
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जाटों की गलतियां गिनवाईं
29 जनवरी, 2021 नरेश टिकैत ने मुज़फ़्फ़रनगर में एक और महापंचायत बुलाई. इसमें मुस्लिम खाप नेता गुलाम जौला भी बुलाए गए. जौला राकेश और नरेश टिकैत के पिता और मशहूर किसान नेता महेंद्र सिंह टिकैत के लंबे समय तक सहयोगी रहे थे. इस महापंचायत में नरेश टिकैत ने दो बातों के लिए माफी मांगी.
पहला, उन्होंने कहा कि जाटों को 2019 के चुनाव में राष्ट्रीय लोकदल के प्रमुख अजित सिंह के ख़िलाफ़ वोट नहीं देना चाहिए था. दूसरा, मुज़फ़्फ़रनगर दंगों में मुसलमानों पर हमला करके उन्हें नीचा नहीं दिखाना चाहिए था. जौला ने महापंचायत में ये दोनों बातें उठाई थीं.
पिछले आठ साल से जौला टिकैत बंधुओं से दूरी बनाए हुए थे. जौला ने महेंद्र सिंह टिकैत के साथ 27 साल तक काम किया था. 1987 में महेंद्र सिंह टिकैत जौला के पास आए थे उनके कहने पर जौला के साथ मुसलमान किसान भी आंदोलन जुड़ गए थे.
बाबा टिकैत के नाम से मशहूर महेंद्र सिंह के साथ इतने लंबे वक्त तक काम करने के बाद आखिरकार 2013 में जौला ने भारतीय किसान यूनियन छोड़ दी. उन्होंने अपना गुट बना लिया है. उस समय जौला ने कहा था कि टिकैत बंधुओं (राकेश और नरेश) ने ग़लत रास्ता चुन लिया है.
महापंचायत में जब एक बुजुर्ग ने कहा कि जयंत चौधरी और नरेश टिकैत को मतभेदों को भुलाकर गले लगना चाहिए तो जौला ने टोका. उन्होंने कहा कि एक बार फिर मुसलमानों को इस भाईचारे में शामिल नहीं किया जा रहा है.
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दंगों के घाव अभी नहीं भरे हैं
जौला ने कहा, "उन्होंने मेरे पांव छुए. मुझे उम्मीद है कि इससे दंगों के घाव भर जाएंगे. एक लंबा वक्त गुजर चुका है. लेकिन उनके लिए हमारी मोहब्बत कम नहीं होगी."
जौला इस इलाके में ऊंची जाति के मुसलमान राजपूत बिरादरी से ताल्लुक रखते हैं. उनका मानना है कि राकेश टिकैत के आंसुओं ने किसान आंदोलन को नई जिंदगी दे दी. इसने मुस्लिम और जाट किसानों को एक साथ खड़ा कर दिया. जौला और टिकैत ने हमेशा यही चाहा, लेकिन रिज़वान जैसे युवा इससे इत्तेफाक नहीं रखते.
रिजवान कहते हैं, "हमें उन पर भरोसा नहीं है. वह खालीपन अब भर नहीं सकता. हम उनके साथ एक मंच पर नहीं आ सकते. हम सिर्फ किसानी के मुद्दे पर ही उनके साथ हो सकते हैं. इससे ज़्यादा नहीं. दंगों में उन लोगों के ख़िलाफ़ जो केस हुए थे उनमें से अधिकतर बंद हो चुके हैं. मैंने इंसाफ के लिए सात साल तक लड़ाई लड़ी. अभी तक हम अपने गांव नहीं जा सके हैं".
मुसलमान जाट की बातों से रिज़वान प्रभावित नहीं हैं, "यही नरेश टिकैत थे, जिन्होंने हमारे ख़िलाफ़ महापंचात बुलाई थी. और अब वह चाहते हैं कि हम सब भूलकर एक हो जाएं. दरअसल उन्होंने हमेशा हमारा इस्तेमाल किया है और अब भी वही कर रहे हैं."
बंटी हुई धरती और हिंसा का साया
मुज़फ्फरनगर एक बंटी हुई धरती है. यहां की जमीन जरूर हरी-भरी है. दृश्य सुहावने हैं. हाईवे और सड़कों से गुजरते हुए गन्ने के बड़े-बड़े खेत धरती की खूबसूरती का अहसास कराते हैं. मैंने 2013 के दंगों को कवर करने के लिए मुज़फ्फरनगर का दौरा किया था.
2016 में दंगा पीड़ितों के लिए जब एक पुनर्वास कॉलोनी का उद्घाटन हुआ था तो मैं फिर वहां पहुंची थी. मुझे मंच पर एक शख्स की ओर से पढ़ी गई एक कहानी के कुछ हिस्से अब भी याद हैं.
अगस्त, 2016 की बात है. कांधला शहर के मलकपुर रोड पर मौजूद इस अंधेरी कॉलोनी में जनरेटर लगाया गया था. शाम का अंधेरा जनरेटर की रोशनी की वजह से मिट गया था. रोशन के कतरे इधर-उधर बिखरे हुए थे. कॉलोनी का उद्घाटन हो रहा था. शामली जिले (यूपी) में बनी इस बस्ती का नाम रखा गया था 'अपना घर' कॉलोनी. यह कॉलोनी उन कई पुनर्वास बस्तियों में एक थी, जो सितंबर, 2013 के मुजफ्फनगर दंगों में अपना घर खो चुके लोगों के लिए बनाई गई थी. इन दंगों में 60 लोग मार गए थे. हजारों मुसलमानों को अपना घर छोड़ना पड़ा था.
उद्घाटन के वक्त वहीं बनाए गए एक छोटे से अस्थायी मंच पर मानवाधिकार कार्यकर्ता और वकील अस्करी नकवी चढ़ गए थे. उन्होंने असगर वजाहत की छोटी कहानी 'शाह आलम कैंप की रूहें' पढ़कर सुनाई. कहानी के कुछ हिस्से यूं थे-
शाह आलम कैंप में आधी रात के बाद एक बच्चे की रूह आती है. बच्चा रात में चमकता हुआ जुगूनू जैसा लगता है... कहता है, "मैं सुबूत हूँ".
सुबूत? किसका सुबूत?
"बहादुरी का सुबूत हूँ''.
किसकी बहादुरी का सुबूत हो?
'उनकी जिन्होंने मेरी मां का पेट फाड़कर मुझे निकाला था और मेरे दो टुकड़े कर दिए थे.'
यह कहानी उस उद्घाटन की याद दिला रही थी. यह कहानी मुजफ्फनगर में हुई भीषण हिंसा, हत्याओं, बलात्कारों, विस्थापन और लोगों के बीच भरोसा टूटने की याद दिला रही थी. इस खून-खराबे के शिकार लोगों को अब तक इंसाफ नहीं मिला है. 24 साल के रिजवान भी इन्हीं लोगों में शामिल हैं.
2013 में मुजफ्फनगर में जो हुआ, रिज़वान उन सबके गवाह हैं. जिले में उन दिनों भीषण हिंसा हुई, लोगों का भरोसा टूटा. लोगों को खूंरेजी के साये में भयावह अनिश्चितताओं के दौर से गुजरना पड़ा. जिस इंसाफ की उम्मीद थी वह भी दूर ही रहा. दंगों में वे बच गए लेकिन लिसाड़ गांव में रहने वाले उनके परिवार के पांच लोगों को बेरहमी से कत्ल कर जला दिया गया.
रिज़वान कहते हैं, "कोर्ट ने उनके सुबूतों को नहीं माना लेकिन दंगों की खौफनाक यादें तो मिट नहीं सकती. जो कुछ खत्म हुआ वह कैसे भुलाया जा सकता है. रात में भयानक सपने आते हैं. क्या ये कभी खत्म हो सकते हैं? ये सुबूत नहीं तो क्या हैं?"
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जौला की उम्मीदें
इस इलाके की बदलती राजनीति के गवाह रहे 85 साल के जौला एक बार फिर एकता की उम्मीद कर रहे हैं.
वह कहते हैं, "इलाके के बहुत सारे मुसलमान किसान हैं. खेती करते हैं. इसलिए किसान आंदोलन में साथ खड़े हैं."
टिकैत भाइयों में से राकेश टिकैत लगातार महापंचायत बुलाने की अपील कर रहे हैं. किसान आंदोलन के समर्थन में टिकैत दिल्ली में गाजीपुर बॉर्डर में धरने पर बैठे हैं.
भारतीय किसान यूनियन के राष्ट्रीय प्रवक्ता राकेश 28 जनवरी को अचानक टेलीविजन कैमरों के सामने यह कहते हुए रो पड़े कि वह विरोध स्थल को छोड़ कर नहीं जाएंगे.
दरअसल, लाल किले पर प्रदर्शनकारियों की ओर से 26 जनवरी को धार्मिक झंडा फहराए जाने के बाद सरकार ने प्रदर्शनकारियों से विरोध स्थल खाली कराने और उनकी गिरफ्तारी का मन बना लिया था.
28 जनवरी को जिला प्रशासन की ओर से इसके आदेश जारी होते ही यूपी पुलिस और रैपिड एक्शन फोर्स की एक बड़ी टुकड़ी वहां जमा हो गई थी और उसने किसानों से वह जगह खाली करने को कह दिया था.
27 जनवरी को विरोध स्थल की बिजली काट दी गई थी. अगले दिन पानी की सप्लाई काट दी गई. राष्ट्रीय किसान मजदूर संगठन के वीएम सिंह ने विरोध स्थल से वापस लौटने का ऐलान कर दिया था.
लेकिन टिकैत ने भावुक अपील करते हुए कहा कि जिस बीजेपी का उन लोगों ने समर्थन किया उसने किसानों के साथ धोखा किया.
उन्होंने कहा, "अगर मेरे किसान भाइयों को कोई नुकसान पहुंचा तो मैं फंदा लगा कर खुदकुशी कर लूंगा."
टिकैत के इस बयान ने आंदोलन का रुख दोबारा उनकी ओर मोड़ दिया.
लाल किले की घटना के बाद कइयों को लग रहा था कि गाजीपुर बॉर्डर पर चल रहा किसानों का धरना अब खत्म हो जाएगा. लेकिन टिकैत के आंसुओं ने आंदोलन में नई जान डाल दी.
राष्ट्रीय लोक दल के अध्यक्ष अजित सिंह ने राकेश टिकैत को समर्थन देने का ऐलान कर दिया और अपने समर्थकों से गाजीपुर बॉर्डर पहुंचने को कहा. उनके बेटे जयंत चौधरी मुज़फ़्फ़रनगर में टिकैत के गृह शहर सिसौली पहुंच कर महापंचायत में शामिल हुए.
इस महापंचायत में भारतीय किसान के पूर्व प्रमुख महेंद्र सिंह टिकैत के आंदोलन और धरनों की याद दिलाई गई. इस तरह एक राजनीतिक प्रक्रिया की शुरुआत हो गई.
किसानों को खास कर 1988 में महेंद्र सिंह टिकैत के दिल्ली में हुए प्रदर्शन की याद दिलाई गई. लोगों को बताया गया था कि कैसे टिकैत उस दौरान केंद्र सरकार की छाती पर बैठ गए थे. लोगों की स्मृतियों को कुरेदा गया और कहा गया कि आपके आंदोलन का इतिहास ऐसा रहा है.
अब हर दूसरे दिन महापंचायतें बुलाई जा रही हैं और अपने-अपने खाप के चौधरियों के नेतृत्व में बड़ी संख्या में किसान इनमें पहुंच रहे हैं. अब किसानों के विरोध और प्रदर्शन सिंघु और टिकरी बॉर्डर से खिसक कर गाजीपुर बॉर्डर पर केंद्रित हो गया है.
यहां राकेश टिकैत के मंच पर राजनीतिक नेता भी आ रहे हैं. यहां से तमाम संभावनाएं तलाशी जा रही हैं और उन पर बाते हों रही हैं लेकिन रिज़वान का कहना है कि यह सब रूमानी ख्याल भर हैं.
वे कहते हैं "मुज़फ़्फ़रनगर के दंगों ने सारे समीकरणों को धवस्त कर दिया है."
कोई भी इन बिगड़े समीकरणों को देख सकता है. किसी को भी यह विस्थापन, गुस्सा, आघात, नुकसान और विश्वासघात दिख जाएगा.
दंगों में उजड़ चुके लोगों के लिए 65 पुनर्वास कॉलोनियां बनाई गई हैं. 28 मुज़फ़्फ़रनगर और 37 शामली जिले में. इनमें 29,328 लोग रह रहे हैं.
आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक दंगों में मरने वालों की संख्या 70 से कम बताई गई थी. लेकिन दंगा प्रभावित समुदायों का कहना है कि 500 से ज्यादा लोगों की मौत हुई थीं. उनका कहना है कि लोगों की लाशें नहर और झरनों में बहा दी गईं.
2017 से अब तक मुज़फ्फरनगर की अदालतों ने दंगों से जुड़े 41 मामलों में अपना फैसला सुनाया. सिर्फ एक मामले में सजा हुई है, जब सेशन कोर्ट ने 27 अगस्त 2013 को कवाल में गौरव और सचिन (रिश्ते में भाई) की हत्या के आरोप में मुजम्मिल, मुजस्सिम, फुरकान, नदीम, जहांगीर, अफजल और इकबाल को उम्र कैद की सजा सुनाई.
इसी घटना ने मुज़फ़्फ़रनगर में दंगों की यह आग भड़काई थी. मुस्लिमों पर हमलों से जुड़े कई मामलों में 40 लोगों को आरोप मुक्त कर दिया गया था.
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बीजेपी का एजेंडा और जाट-मुस्लिम एकता
भारतीय किसान यूनियन ने पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह से राम मंदिर आंदोलन का समर्थन किया था और हिंदुत्व के एजेंडे के साथ हो गए थे, उसमें इस तरह के फैसले को समझना कठिन नहीं है.
मुज़फ्फरनगर में रहने वाले वकील और सामाजिक कार्यकर्ता अकरम अख्तर चौधरी का कहना है कि जाटों का एक साथ आना और मुस्लिमों के साथ उनकी एकता इतनी आसान नहीं है.
वे कहते हैं, "किसान और मुस्लिम युवक यहां के किसान संगठनों में सक्रिय हैं लेकिन इन महापंचायतों में ज्यादा लोग नहीं जा रहे हैं. आम मुसलमान इन रैलियों में नहीं पहुंच रहा है. मुज़फ़्फ़रनगर दंगों के जख्म अभी भी हरे हैं. दंगाइयों पर मुकदमे खत्म कर दिए गए हैं. मुसलमानों को अभी भी न्याय नहीं मिला है. कोई समझौता नहीं कराया गया है.
मुसलमानों का कहना है कि राष्ट्रीय लोकदल ने दंगों को कभी नहीं रोका. किसानों के मुद्दों को लेकर सहानुभूति है लेकिन मुसलमान अभी तक 2013 के दंगों को नहीं भूले हैं. पश्चिम उत्तर प्रदेश एक-तिहाई आबादी मुसलमानों की है. सात फीसदी जाट हैं.
किसानों के आंदोलन का केंद्र अब पंजाब और हरियाणा से खिसक कर पश्चिम उत्तर प्रदेश आ चुका है. अब बात धान और चावल की नहीं, गन्ने की होने लगी है.
पुराने नेताओं के राजनीतिक रुख को लेकर सवाल उठ रहे हैं. लेकिन लगता है कि उन्होंने अब उन पुराने राजनीतिक गठजोड़ों से पाला बदल लिया है.
बीजेपी से अपने पुराने गठजोड़ों की वजह से एक किसान नेता के तौर पर राकेश टिकैत की विश्वसनीयता को झटका लगा है. मुज़फ़्फ़रनगर के दंगों में दायर कई एफआईआर में टिकैत और उनके भाई के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई गई है.
2009 में राकेश टिकैत लोकसभा का चुनाव लड़ चुके हैं. उस समय वह बीजेपी के उम्मीदवार थे. उस वक्त बीजेपी राष्ट्रीय लोक दल के साथ मिलकर चुनाव लड़ रही थी. लेकिन उन्हें हार का मुंह देखना पड़ा था. टिकैत दूसरी बार भी चुनाव लड़े लेकिन उस बार भी हार गए.
टिकैत भाइयों को पिता की विरासत का सहारा
राकेश टिकैत के पिता महेंद्र सिंह टिकैत भारतीय किसान यूनियन के संस्थापक सदस्यों में से एक थे. यह किसानों का गैर-राजनीतिक संगठन था. जनवरी 1988 में किसानों ने उनके नेतृत्व में मेरठ कमिश्नरेट का घेराव किया था.
इस घेराव से वह एक कद्दावर किसान नेता के तौर पर उभरे. इसके बाद उसी साल उनके नेतृत्व में किसानों ने दिल्ली में धरना किया.
जौला ने बाद में किसान मजदूर फोरम के नाम से अपना संगठन बना लिया. कहा जा रहा है कि वह अब संगठन को भारतीय किसान यूनियन में मिला देंगे. लेकिन इस बारे में अभी उन्होंने कुछ तय नहीं किया है.
2011 में महेंद्र सिंह टिकैत का निधन हो गया और इसके बाद पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भारतीय किसान यूनियन का प्रभाव कम होने लगा.
जौला का गांव बुढाना तहसील में है. 2013 के मुज़फ्फ़रनगर दंगों की चपेट में बुढाना भी आया था लेकिन उनका गांव दंगों से अछूता रहा. दंगों में दर-बदर हुए कई मुस्लिम परिवारों ने इस गांव में शरण ली थी. वे हफ्तों तक रुके. बाद में जौला और कुछ अन्य लोगों ने कॉलोनियां बनवा कर उनके रहने की व्यवस्था की.
ये लोग जौला की बड़ी इज्जत करते हैं और उन्हें 'बाबाजी' कह कर बुलाते हैं. एक दोपहर मैं उनसे उनके घर में मिली. उन्होंने कहा कि नरेश टिकैत ने जिस तरह से उन्हें महापंचायत में बुलाया उसने उनके दिल को छू लिया. 29 जनवरी को सुबह लगभग साढ़े आठ बजे नरेश टिकैत का फोन उनके पास आया था.
जौला ने बताया, " नरेश टिकैत ने कहा आप पिछला सब कुछ भूल जाओ और महापंचायत में आ जाओ''
जौला 24 खापों के चौधरी हैं. इनमें 22 हिंदू और दो मुस्लिम बहुल गांव हैं.
इसके बाद उस दिन सुबह जौला के गांव से दस कारों का एक काफिला सिसौली की ओर चल पड़ा. यह एक तरह से सुलह-समझौते का संकेत था.
गांव में लोग मुस्लिमों को प्रति गुलाम जौला की प्रतिबद्धता के कसमें खाते हैं. जौला कहते हैं, " अगर महेंद्र सिंह टिकैत जिंदा होते तो ये दंगे नहीं होते"
जौला के मुताबिक पूरे बुढाना में मुसलमानों के सवा लाख वोट हैं. जौला खुद कुशवा खाप से ताल्लुक रखते हैं. वे कहते हैं, " हम किसान आंदोलन को समर्थन देने के लिए इस इलाके के सभी मुसलमानों बात कर रहे हैं. "
जौला अपने साथ के किसानों को लेकर गाजीपुर बॉर्डर का भी दौरा कर आए हैं.
जौला कहते हैं, "टिकैत बंधु अब तक बीजेपी से हाथ मिलाकर चल रहे थे. लेकिन अब उनके सामने दुविधा की स्थिति है. उनकी जो विरासत रही है, उसकी वजह से अब पसोपेश में हैं. हम बीजेपी के आभारी हैं कि उसने हमें एक साथ ला खड़ा किया है. अब मुस्लिम, यादव और जाट एक साथ आ सकते हैं."
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टिकैत परिवार के पुश्तैनी घर में तीसरे भाई नरेंद्र टिकैत कुछ स्थानीय लोगों के साथ बैठे मिल जाते हैं.
पूछने पर नरेंद्र कहते हैं, "हम बस इतना कहना चाहते हैं कि गुलाम जौला यूनियन के मेंबर थे और जो इससे नाता तोड़ कर चले गए थे लेकिन अब वापस आ गए हैं."
जौला कहते हैं. "हमने अभी तक बीजेपी का बहिष्कार नहीं किया है. अगर वे राजी हो जाते हैं तो ठीक है लेकिन अगर वह कृषि कानून वापस लेने को राजी नहीं होते है हम लट्ठ गाड़ देंगे. बीजेपी नहीं मानी तो हम गांव में बैरिकेड लगा देंगे. एक भी बीजेपी वालों को घुसने नहीं देंगे. बीजेपी वाले तो वोट मांगने यहां आएंगे ही. 2022 में यूपी में चुनाव होने वाले हैं."
हरियाणा में किसानों की रैलियों में 'हुक्का-पानी बंद' के नारे गूंज रहे हैं. नरेंद्र टिकैत ने कहा कि उन लोगों ने अब तक बीजेपी के बहिष्कार का ऐलान नहीं किया है. लेकिन जयंत चौधरी मुज़फ़्फ़रनगर के महापंचायत में बीजेपी नेताओं का हुक्का पानी बंद करने का ऐलान कर चुके हैं.
गुलाम जौला के पोते सुहेल कहते हैं कि टिकैत परिवार पर काफी दबाव और यह बात उन्होंने मालूम है.
सुहेल कहते हैं, "सबसे बड़ी चीज जाट और मुस्लिमों को साथ लाने का है. हम जानते हैं कि मुसलमान आसानी से जाटों का भरोसा नहीं करेंगे .लेकिन अगर जाट आरएलडी और समाजवादी पार्टी के साथ गए तो मुसलमानों के पास उनके साथ होने के अलावा कोई चारा नहीं है. हमें लोगों से यह कहना है कि दंगों को भूल जाओ. मुख्य मुद्दा किसानों का है. लेकिन जो हुआ, उसके बाद टिकैत बंधुओं पर भरोसा करना मुश्किल है."
किसान और आंदोलनकारी कार्यकर्ता कुरबान अली अब जौला के संगठन से जुड़ गए हैं. वे कहते हैं लगभग 500 मुस्लिमों ने भारतीय किसान यूनियन के भानु गुट का साथ छोड़ दिया है. इस संगठन के लिए उन्होंने तीन साल तक काम किया."
अली कहते हैं. "उन्होंने चिल्ला बॉर्डर में चल रहा विरोध प्रदर्शन बंद कर दिया जबकि हम चाहते थे कि प्रदर्शन चलता रहे."
अली की राय बिल्कुल साफ है- यह किसानों का मुद्दा है. इसे और किसी रूप में नहीं देखा जाना चाहिए.
कुरबान कहते हैं, "वे माफी क्यों मांग रहे हैं? अगर वो सचमुच माफी चाहते हैं तो वो यहां आएं और हम सब से माफी मांगें".
पिछले शुक्रवार को शामली के महापंचायत में किसानों के विरोध प्रदर्शन में अच्छी-खासी तादाद में मुस्लिम आए थे.
कुरबान कहते हैं, "मैं वहां मौजूद था. वहां लगभग तीन हजार मुसलमान थे. लेकिन क्या हम उन दंगों को भूल सकते हैं. जौला ने सिसौली की रैली में कहा कि टिकैत भाइयों ने गलती की है लेकिन इतनी आसानी से किसी पर विश्वास नहीं किया जा सकता.
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'गद्दी वापसी' की मांग
28 जनवरी के बाद राकेश टिकैत किसान आंदोलन का प्रमुख चेहरा बन गए. अब वे अपने भाइयों के साथ पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा की रैलियों में जाकर भाषण दे रहे हैं.
रैलियों में वे इस बात का संकेत दे रहे हैं कि उनकी ओर से अब 'गद्दी वापसी' की मांग उठ सकती है. लेकिन पश्चिमी यूपी की बंटी हुई धरती में लोगों को इन दावों पर पूरा भरोसा नहीं हो रहा कि आगे चल कर यह किसान आंदोलन यूपी की चुनावी राजनीति को झटका दे सकता है क्योंकि पिछले कई साल से जाट बीजेपी का समर्थन करते आ रहे हैं.
महापंचायतें बहुत कम बुलाई जाती हैं. इस बार बुलाई जा रही हैं. उनमें हजारों लोग जुट रहे हैं. लेकिन हर जगह दंगों की बात उठ रही है और कहा जा रहा है सब कुछ भुला कर मुसलमानों और जाटों को एक हो जाना चाहिए. लेकिन ये आह्वान महापंचायतों तक सीमित रह सकती है क्योंकि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गांवों में अभी दोनों समुदायों के बीच टकराव की स्थिति बनी हुई है.
31 जनवरी को बागपत के बड़ौत में एक महापंचायत हुई. यह तीसरी महापंचायत थी, जहां 26 जनवरी को किसानों के खिलाफ पुलिसिया कार्रवाई के खिलाफ हजारों की भीड़ जुटी थी. इसमें किसानों ने आगे की रणनीति पर बात की.
बागपत के ही 70 वर्षीय किसान कृपाल सिंह ने कहा वे लोग इस इलाके में चौधरी चरण सिंह के अनुयायी रहे हैं. उन्होंने कहा, हम गांधीवादी हैं.'
उन्होंने कहा, "हम दंगों की आग बुझाने आए हैं. हम पश्चिम उत्तर प्रदेश को हिंदुत्व के एजेंडे के मुक्त कराना चाहते हैं."
कृपाल सिंह कहते हैं, " इस इलाके में खापों ने जाट बिरादरी को जोड़ रखा है. हम खाप के आदेशों का उल्लंघन नहीं करते.''
इस इलाके सनवर अली सोलंकी खाप से ताल्लुक रखते हैं. वह किसानों के समर्थन में इस महापंचायत में आए थे.
अली कहते हैं, "हम भले ही अलग-अलग धर्म को मानते हैं लेकिन हमारे रीति-रिवाज एक हैं. हमारा डीएनए एक है. हम एक ही समुदाय हैं. हमारा खून एक है".
शेखपुरा गांव में उनकी दो एकड़ जमीन है. उनका कहना है कि बागपत लोकसभा क्षेत्र में दो लाख मुस्लिम वोटर हैं. "बीजेपी ने हमें धोखा दिया है. मैंने पिछले चुनावों में बीजेपी को वोट दिया, यह सोच कर कि बीजेपी की सरकारों में शासन-प्रशासन अच्छा चलता है. लेकिन हम सरकार बदलते रहते हैं. "
मजदूर किसान मंच से जुड़े महेश सिंह कहते हैं कि अब एक नए वर्ग का उदय हुआ है और यह किसानों का वर्ग है. यह जाति और धर्म की दीवार को ध्वस्त कर देगा. किसान एक वर्ग के तौर पर संगठित होंगे .
वे कहते हैं, " आज सिंघु और टिकरी बॉर्डर पर मुस्लिम और हिंदू एक ही थाली में खाना खा रहे हैं. यूपी एक नई राजनीति की राह दिखाएगा. आगे के आंदोलन इस तरह जिंदा रहेंगे. टिकैत बंधुओं को इस वर्ग को सामने लाने का श्रेय जाएगा. "
केंद्र सरकार के तीन कृषि कानूनों के खिलाफ गाजीपुर बॉर्डर में चल रहे भारतीय किसान यूनियन के प्रदर्शन के समर्थन में यहां तहसील ग्राउंड में 'सर्व खाप महापंचायत' बुलाई गई थी. इसमें भारतीय किसान यूनियन को पूरा समर्थन देने की अपील की गई. महापंचायत में शामिल होने ट्रैक्टर पर चढ़ कर आए युवाओं ने हाथों में गन्ने डंडे की तरह थाम रखे थे.
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टिकैत भाइयों पर है भारी दबाव
सिसौली के एक मैदान में आयोजित एक रैली में महेंद्र सिंह टिकैत का विशाल पोस्टर लगा है. सफेद रंग में चार मूर्तियां शाम की रोशनी में चमक रही हैं. इनमें टिकैत और चौधरी चरण सिंह की मूर्तियां हैं. मैदान की दूसरी ओर टिकैत भाइयों का पुश्तैनी मकान है.
राकेश टिकैत मुज़फ़्फ़रनगर में रहते हैं लेकिन नरेश और नरेंद्र टिकैत इसी घर में रहे हैं. नरेश टिकैत के लिए यह वक्त फिर से अपनी खोई विरासत को हासिल करना है. लेकिन टिकैत भाइयों पर दबाव भी बढ़ रहा है.
वे कहते हैं, "हमारा सम्मान दांव पर लगा है".
सामने बैठे चौधरी दरियाव सिंह हुक्का गुड़गुड़ा रहे हैं. वह खाप नेता हैं.
वे कहते हैं, "हम देखेंगे कि आगे क्या होता है. हमारी खापें बहुत मजबूत हैं. अगर चीजें हमारे हिसाब से नहीं हुईं तो हम हुक्का-पानी बंद कर देंगे." लेकिन बीजेपी के बहिष्कार के सवाल पर वे चुप्पी साध लेते हैं.
इलाके में काम करने वाले एक रिपोर्टर कहते हैं, " टिकैत भाइयों को अब मुस्लिमों का समर्थन मिलने लगा है. गुलाम जौला ने भी कहा है कि वे टिकैत भाइयों का समर्थन कर रहे हैं क्योंकि यह किसानों का मामला है."
नरेंद्र कहते हैं. " यहां अब सब लोग हमारा समर्थन कर रहे हैं. जाट समुदाय यहां बहुत मजबूत हैं."
नरेंद्र जहां बैठे हैं वहां कमरे में लौ जल रही है. हरे रंग की दीवार से एक सिंगल बेड लगी है. बेंत की कुर्सी पर फॉक्स लेदर की गद्दी पड़ी है. हुक्का रखा है. छोटा सा मंदिर है. लकड़ी की एक चौकी पर महेंद्र सिंह टिकैत की फोटो है. घी के कुछ कनस्तर एक खाली चौकी पर रखे हुए हैं.
नरेंद्र टिकैत कहते हैं, यह लौ 1987 से जल रही है. यह वही कमरा है जहां से हमारा आंदोलन शुरू हुआ था. यह हमारे लिए पवित्र कमरा है. जब भी आंदोलन होता है, इस कमरे में हमारे परिवार का एक सदस्य आकर रहता है. इस दौरान वह पूरी तरह सादा भोजन करता है और यहीं सोता है.
कमरे के आगे एक हॉल है. हॉल की दीवारों पर महेंद्र सिंह के आंदोलन और सभाओं की तस्वीरें लगी हैं. एक पोस्टर ने एक पूरी दीवार की जगह ले रखी है. इसमें महेंद्र टिकैत पुराने नेताओं के साथ दिख रहे हैं.
छोटे छोटे वाक्यों में पार्टी का इतिहास लिखा है. इनके ज़रिए यह भी दिखाया गया है कि आंदोलन के दौरान वह कितनी बार जेल गए. अब इस हॉल में दूसरे नेताओं के साथ बैठक होती है.
बाहर चारपाइयां बिछी हैं. हुक्के के चारों ओर कुर्सियां रखी हुई हैं. वहां नरेंद्र टिकैत गांव के कुछ लोगों के साथ बैठे हुए हैं. उनमें इलाके के कुछ बुजुर्ग खाप नेता भी हैं.
नरेंद्र 28 जनवरी के बाद आयोजित रैलियों और महापंचायतों की क्लिप दिखाते हैं.
वे कहते हैं " जय हिंद की रैली में तो इतने लोग आए थे कि विरोध स्थल से लेकर आगे की दस किलोमीटर सड़क पूरी तरह भरी हुई थी.
टिकैत भाइयों में सबसे बड़े नरेश टिकैत भारतीय किसान यूनियन के प्रमुख हैं. वह एक महापंचायत के लिए मथुरा गए हुए थे.
पिछले कुछ दिनों से पश्चिमी उत्तर प्रदेश के अलग-अलग हिस्सों और हरियाणा में एक के बाद महापंचायतें हो रही हैं. इनमें आंदोलन की आगे की रणनीति तय की जा रही है.
पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा में प्रति बीघे के हिसाब से किसानों से दस या बीस रुपये का चंदा लिया जा रहा है ताकि गाजीपुर बॉर्डर पर चल रहे प्रदर्शन की वित्तीय मदद की जा सके.
वे कहते हैं, "यही काम करने का तरीका है. हमारे पास अपना सिस्टम है और हम इसके जरिए विरोध स्थल पर मदद पहुंचाते रहते हैं. हमारे पास इस इलाके में 35 हजार बीघा जमीन है."
नरेंद्र टिकैत कहते हैं, "28 जनवरी की रात को सिसौली में लगभग 20 हजार लोग जमा हो गए थे. वे सब दिल्ली जाने के लिए तैयार थे "
अकेले सिसौली में जाटों के 14 हजार वोट हैं. यह चेतावनी हवा में गूंज रही है.
नरेंद्र टिकैत कहते हैं, "अगर उन्होंने हमारी बात नहीं मानी और कृषि कानूनों को वापस नहीं लिया तो हम भी वही करेंगे जो उन्होंने किया."
ऊपर के कमरों में टिकैत परिवार की महिलाओं ने हमें आंदोलन की कहानी सुनाई. परिवार की सबसे बड़ी बहू मंजू ने 1987 की रात को लगातार जलने वाली यह जोत जलाई थी. उस वक्त पुलिस सादे कपड़ों में महेंद्र सिंह टिकैत को गिरफ्तार करने आई थी.
वो वाकया याद करते हुए वह कहती हैं, " रात का वक्त था. राकेश और नरेश परिवार की एक शादी समारोह में गए थे. उस रात पुलिस वाले आए और मेरे ससुर को अपने साथ चलने को कहा."
उन दिनों सिसौली में उनका धरना चल रहा था. टिकैत साहब को लगा कि ये लोग उन्होंने गिरफ्तार करने आए हैं. उन्होंने नरेंद्र को आवाज देकर अपना हुक्का लाने को कहा. पुलिसवालों से उन्होंने कहा मैं अपना कुर्ता लेकर आता हूं.
उस रात जब पुलिस राकेश को गिरफ्तार करने आई तो मुझे ससुर की गिरफ्तारी की कोशिश से जुड़ी 1987 की वह घटना याद आ गई. "
नरेंद्र उस समय युवा थे और उन्होंने शोर मचा दिया. गांव वाले जमा हो गए और उन्होंने ''रणसिंघ'' (एक बड़ा भोंपू) बजा दिया. लोग सतर्क हो गए. महेंद्र सिंह टिकैत कमरे में घुस गए और दरवाजा लगा लिया. पुलिस जोर-जबरदस्ती के बावजूद दरवाजा खुलवा नहीं पाई और वापस लौट गई.
वे कहती हैं. " उस रात उन्होंने इस कमरे में जोत जलाने को कहा था. इस कमरे में वह ध्यान लगाया करते थे. हम अब भी इसी कमरे में उनका हुक्का तैयार करके रखते हैं. और हर रात उनका बिस्तर लगाते हैं."
नरेंद्र टिकैत की पत्नी अनिता बताती हैं वे लोग आंदोलन के आदी हो चुके हैं. वह कहती हैं, " हमें डर नहीं लगता है. हमारे पास अभी भी रणसिंघ है. इस बार भी जब राकेश रोए तो हमने इसे बजाया था."
पिता के कमरे में नरेंद्र ही रहते हैं. कमरे में एक छोटा सा मंदिर है. पूरे कमरे में इतिहास भरा पड़ा है. लेकिन वह सतर्क होकर बात करते हैं. वह मुज़फ़्फ़रनगर दंगों या मुस्लिमों की बात नहीं करते. जब वह रैलियों की बात करते हैं टिकैतों की रैली कहते हैं. वे कहते हैं ये हमारी रैलियां हैं.
ये बातें, हावभाव और बाकी सारी चीजें राजनीति का हिस्सा हैं. यहां के मुस्लिम इस बात को जानते हैं.
दंगों की याद उनके जेहन में धुंधली नहीं हुई हैं. गुलाम जौला भी इसे जानते हैं. 85 साल की इस उम्र में वह पुरानी यादों में खो जाते हैं.
वह उन दिनों को याद कर भावुक होने लगते हैं जब कई बार ईद में टिकैत उनके घर आया करते थे. उन दिनों वे कंधे से कंधा मिलाकर किसानों के आंदोलन के लिए लड़ते थे.
लेकिन अतीत की इन अच्छी यादों और अपने कद के बावजूद उन्हें नहीं लगता है कि दंगों के जख्म कभी भर पाएंगे. गांव में दंगा पीड़ितों की जो बस्तियां उन्होंने बसाई है वे इन दिनों की याद भुलाने नहीं देंती.
फिर भी वह कहते हैं, "मैं चाहता हूं कि लोग एक बार सब भूल कर मिल-जुल कर रहना शुरू करें".
मुस्लिम किसानों का जत्था विरोध स्थलों पर लगातार पहुंच रहा है. पिछले कई महापंचायतों में उनकी मौजूदगी बढ़ती ही रही है. लेकिन अब मंच से माफी मांगने से कुछ ज्यादा करने की जरूरत है.
दो समुदायों के बीच जो दरार आई है उसे भरने के लिए ठोस कदम उठाने होंगे. यह अभी नहीं हुआ है. इसलिए इलाके के मुस्लिम कह रहे हैं- मुज़फ़्फ़रनगर अभी बाकी है.
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