पश्चिम बंगाल चुनाव- ओवैसी और योगी की रैली की तुलना: दोनों में क्या बुनियादी फ़र्क़ नज़र आता है?
- रजनीश कुमार
- बीबीसी संवाददाता, पश्चिम बंगाल के चंद्रकोना और सागरदीघि से
''ममता कहती हैं कि मुसलमानों को उसने प्रोटेक्शन दिया, ये ममता हमें क्या प्रोटेक्शन देगी? हमें प्रोटेक्शन केवल अल्लाह ही दे सकता है. अल्लाह हमारे लिए काफ़ी है. वो हमें ग़द्दार कहती हैं. ममता दीदी तुमसे मुझे इज़्ज़त नहीं चाहिए. मुझे अल्लाह ने सब कुछ दिया है.''
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शनिवार (27 मार्च) को दोपहर बाद दो बजे पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद ज़िले के सागरदीघि शहर के सुरेंद्र नारायण उच्च विद्यालय के मैदान में ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) के अध्यक्ष और हैदराबाद के सांसद असदुद्दीन ओवैसी ने एक चुनावी जलसे को संबोधित करते हुए यह बात कही. ओवैसी की पश्चिम बंगाल में यह पहली रैली थी. अभी उन्होंने महज़ दो सीटों पर चुनाव लड़ने की घोषणा की है.
''ममता दीदी के राज में दुर्गा पूजा होने से रोका जा रहा है. सरस्वती पूजा नहीं होने दी जा रही है. बांग्लादेश के घुसपैठियों का स्वागत किया जा रहा है. दो मई को जब प्रदेश में बीजेपी की सरकार बनेगी तो आप सभी आराम से दुर्गा पूजा कर पाएंगे. ममता दीदी गोहत्या पर प्रतिबंध नहीं लगा सकती है क्योंकि उन्हें डर है कि उनका वोट बैंक ही खिसक जाएगा. ममता दीदी ने जय श्रीराम के नारे को प्रतिबंधित करने का प्रयास किया.''
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उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने 25 मार्च को पश्चिम बंगाल में पश्चिमी मेदिनीपुर के चंद्रकोना शहर में एक चुनावी रैली को संबोधित करते हुए यह बात कही. योगी की इन बातों पर भीड़ जय श्री राम के नारे लगाती है तो ओवैसी की बातों पर भी भीड़ और हल्ला मचाती है.
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'सतर्कता के साथ तुलना करें'
ओवैसी की रैली में क़ुरान की आयतें पढ़ी गईं तो योगी की रैली में जय श्री राम के आक्रामक नारे लगे. भगवा वस्त्र में तिलक लगाए योगी आते हैं तो वहीं ओवैसी अपनी टोपी और शेरवानी के साथ पहुंचते हैं. न योगी का लिबास बदलता है और न ओवैसी सार्वजनिक जगहों पर उस ड्रेस से अलग होते हैं.
ओवैसी और योगी की रैली की भाषा और उसके ताने-बाने के आधार पर क्या तुलना की जा सकती है?
कोलकाता यूनिवर्सिटी में राजनीतिक विज्ञान के प्रोफ़ेसर हिमाद्री चटर्जी कहते हैं कि ऊपरी तौर पर आपको देखने में दोनों चुनावी रैली एक जैसी लग सकती हैं लेकिन हमें यहाँ तुलना करते हुए थोड़ा चौकन्ना रहने की ज़रूरत है.
प्रोफ़ेसर चटर्जी कहते हैं, ''भाषा एक फॉर्म है. जैसे भाषा को आप एक डिब्बा मान लें तो उस डिब्बे में चाहें तो चावल रख लें या आटा. ग़ुस्से की भाषा एक जैसी हो सकती है लेकिन हमें ग़ुस्से का कारण देखना बहुत ज़रूरी है. अगर ग़ुस्से का कारण एक नहीं है तो हमें तुलना करते वक़्त बहुत सतर्क रहना चाहिए."
'केवल भाषाई और तेवर के स्तर पर समानता'
"ओवैसी के भाषण और योगी का भाषण भाषा के स्तर पर कई बार एक जैसा लग सकता है लेकिन जो लोग इनके भाषण को सुन रहे होते हैं उनसे बात कीजिए तो फ़र्क़ समझ में आता है. संभव है कि ओवैसी के भाषण में धार्मिक लाइन हो लेकिन उनके समर्थक अपने हक़ों की बात करते हैं. वे अपने साथ होने वाले भेदभाव से ग़ुस्से में दिखते हैं. उन्हें इस बात की चिंता सताती है कि एक मुस्लिम बच्चे को मंदिर में पानी पीने के लिए बेरहमी से मारा गया. ओवैसी के भाषण का ज़्यादातर हिस्सा उस समुदाय को जागरूक भी कर रहा है कि अब अपनी आवाज़ उठाओ और एकजुट हो जाओ."
प्रोफ़ेसर चटर्जी कहते हैं, "हम सबल और निर्बल की राजनीतिक भाषा की तुलना एक साथ नहीं कर सकते हैं. दोनों में समानता सिर्फ़ भाषा और तेवर के स्तर पर है. राजनीतिक गुणवत्ता में नहीं है. राजनीतिक गुणवत्ता से मेरा मतलब है कि एक संख्या में भारी होने की मज़बूती के कारण बोल रहा है और दूसरा अपनी ग़रीबी, अशिक्षा, कुपोषण और भेदभाव के कारण बोल रहा है."
"आर्थिक असमानता का रिश्ता मुसलान, दलितों और आदिवासियों के साथ ही क्यों है? अगर इनके बीच का कोई नेता ध्रुवीकरण वाली चुनावी राजनीति में लोगों को धुवीकृत कर रहा है तो ग़लत क्या है? क्या मुसलमान राजनेता ही हमेशा संवैधानिक दायित्व का परचम लहराएगा? यह वर्तमान चुनावी राजनीति में संभव नहीं है."
"इसे हम प्रतिस्पर्धी राजनीति कहते हैं. राजनीति की जो भाषा है वो कई सालों से ध्रुवीकृत हो रही है. अगर आप इस तरह की राजनीति करेंगे तो इस तरह की बात करनी होगी. दूसरा रास्ता हो सकता है कि आप ध्रुवीकरण के ख़िलाफ़ बोलें लेकिन ये राजनीति कठिन होती है. ये कठिनतम रास्ता अपनाने की उम्मीद हम मुस्लिम नेता से ही क्यों करें? ये जवाबदेही बहुसंख्यक को लेनी चाहिए."
ओवैसी को शेर कह रहे समर्थक से पूछा... तो क्या मिला जवाब
ओवैसी की रैली में ज़्यादातर युवा आते हैं. इनकी तादाद 95 फ़ीसदी तक होती है. इन युवाओं से बात कीजिए तो इनके भीतर की नाराज़गी साफ़ दिखती है. ये खुलकर बोलते हैं कि इनके साथ व्यवस्था भेदभाव कर रही है. ओवैसी के आने पर युवा नारा लगा रहे थे- 'देखो-देखो कौन आया, शेर आया, शेर आया.'
30 साल के मोहम्मद हमज़ा भी नारा लगा रहे थे. उनसे पूछा कि आप ओवैसी को शेर क्यों कह रहे हैं? इसके जवाब में हमज़ा ने कहा, ''शेर को आप किसी जानवर की तरह मत देखें. संसद में मुसलमानों से भेदभाव करने वाले कई बिल पास हुए. भारत में ख़ुद को सेक्युलर कहने वाली कई पार्टियाँ हैं. लेकिन अगर किसी ने साहस और तर्क के साथ विरोध किया तो वो हमारे शेर ओवैसी साहब ही थे. इतने लोगों के बीच अगर कोई बंदा बोलने का साहस जुटा पा रहा है तो उसमें शेर वाला ही साहस है. हम इसीलिए शेर कहते हैं.''
ओवैसी समर्थक का तर्क
मोहम्मद आसिफ़ जाधवपुर से ओवैसी को सुनने आए हैं. आसिफ़ ग्रैजुएशन की पढ़ाई कर रहे हैं. उन्होंने कहा, ''हम ओवैसी साहब के पीछे इसलिए हैं कि वो हमारी बात करते हैं. सीएए को लेकर अगर किसी ने बोला तो ओवैसी साहब थे."
वो कहते हैं, "सरकार तर्क दे रही है कि बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान में प्रताड़ित ग़ैर-मुस्लिम अल्पसंख्यक यानी कुल मिलाकर जो हिन्दू हैं उन्हें नागरिकता दी जाएगी. ठीक है आप दीजिए. लेकिन हमारे साथ मुसलमान होने के कारण जो अन्याय हो रहा है उसका क्या करें. इस अन्याय के आधार पर हमें कौन देश नागरिकता देगा? पाकिस्तान में शिया और अहमदिया के साथ भी नाइंसाफ़ी हो रही है आप उन्हें भी नागरिकता दीजिए. बात स्पष्ट है कि ये सरकार मुसलमानों से भेदभाव करती है."
इसी बातचीत के दौरान आसिफ़ शेख़ नाम के एक युवक ने कहा, "सर, संविधान में कहीं नहीं लिखा है कि कोई सरकार किसी के खान-पान को कंट्रोल करेगी. हम बीफ़ खाते हैं, हिन्दू सुअर का मांस खाते हैं. अब तक किसी को कोई आपत्ति नहीं थी. इन्होंने बीफ़ बैन करना शुरू कर दिया. हमें जिससे प्रोटीन मिलता है उनसे इन्हें दिक़्क़त है. ये क्या कर रहे हैं?"
इसी बीच एक और युवक ने मोबाइल में बांग्ला अख़बार का एक न्यूज़ की क्लिप दिखाई जिसमें लिखा था कि 'मोदी राज में बीफ़ का निर्यात बढ़ा.' ओवैसी की रैली में आए कई युवाओं को लगता है कि वे ओवैसी के नेतृत्व में ही व्यवस्था से लड़ सकते हैं.
क्या वाकई दुर्गा पूजा नहीं होने दे रही हैं ममता?
दूसरी तरफ़ योगी आदित्यनाथ ने रैली में कहा कि दुर्गा पूजा ममता नहीं होने दे रही हैं.
शंकर शोरेन भाजपा के झंडे को माथे पर परचम की तरह बांधे हुए हैं. उनकी टी-शर्ट भी भगवा है. उनसे पूछा कि क्या योगी की ये बात सच है कि ममता राज में दुर्गा पूजा नहीं होने दी जा रही है? शंकर सोरेन ने पूरे जोश के साथ कहा, "हाँ, नहीं होने दिया जा रहा है. योगी ठीक बोलता है."
शंकर से पूछा कि कैसे कह रहे हैं कि नहीं होने दिया जा रहा है तो वे कुछ ठोस जवाब नहीं दे पाए. ज़्यादा सवाल करने लगा तो ज़ोर से जय श्रीराम के नारे लगाकर निकल लिए.
एक युवा ने अपना नाम सुधा पंडित बताया. वे बिना रुके जय श्रीराम के नारे लगाए जा रहे थे. माइक देख वे बोले मुझसे कुछ पूछिए. मैंने कहा बताइए क्या कहना है?
सुधा पंडित ने शुरुआत ही इस बात से की, "टीएमसी का सब पाकिस्तानी है. पाकिस्तानी को ला रहा है. जय श्रीराम, जय श्रीराम."
वहाँ शराब की गंध के बारे में मैंने उनसे पूछा तो सुधा यह सुनकर थम से गए और थोड़ा पूछने पर बोले, 'शराब नहीं हड़िया पी है.' फिर कहने लगे 'ये सब मत दिखाइएगा' और कहकर वहाँ से भाग गए.
योगी की रैली में आए जिन युवकों से मैं मिला उन्होंने रोज़गार, शिक्षा, लोकतांत्रिक अधिकार और धर्मनिरपेक्षता की बात नहीं की लेकिन ओवैसी की रैली में आए जिन युवाओं से मेरी मुलाक़ात हुई उन्होंने इन्हीं मुद्दों पर बात की.
इस बार के चुनाव में क्या हो रहा बिल्कुल अलग?
कोलकाता के वरिष्ठ पत्रकार आशीष घोष कहते हैं कि इस बार का चुनाव पश्चिम बंगाल की चुनावी राजनीति का बिल्कुल अलग और नया चुनाव है.
घोष कहते हैं, "यहाँ पहचान की राजनीति कभी केंद्र में नहीं रही. समाज में जाति और धर्म के वजूद हैं और प्रैक्टिस में भी हैं लेकिन राजनीति में इन पहचानों को लेकर गोलबंदी नहीं होती थी. इस बार के चुनाव में बीजेपी ने खुलकर इसका प्रयोग किया है. कुछ हद तक यह सफल भी होता दिख रहा है."
घोष कहते हैं, "पहले यहाँ यह सवाल नहीं उठता था कि हमारी जाति या मज़हब के इतने लोग हैं तो हमें इतनी सीटें चाहिए पर अब हो रही है. संभव है कि यह टीएमसी की राजनीति को सीधा नुक़सान पहुँचाए क्योंकि काँग्रेस, सीपीएम और टीएमसी की राजनीति में प्रतिनिधित्व के सवाल को पहचान की राजनीति के दायरे में नहीं देखा गया था. लेकिन बीजेपी ने इसे बहुत तरीक़े से उभारा है."
निशाने पर काँग्रेस भी..
पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के बेटे अभिजीत मुखर्जी से पूछा कि काँग्रेस ने मुसलमानों और दलितों के बीच से कोई नेतृत्व क्यों नहीं पैदा किया?
इसके जवाब में मुखर्जी कहते हैं, "काँग्रेस धर्म और जाति के आधार पर नहीं सोचती है. मेरे पिता मुर्शीदाबाद से सांसद बनते थे जहाँ 72 फ़ीसदी मुसलमान हैं. बल्कि हिन्दू ही हमें कम वोट करते थे. बंगाल के लोग सेक्युलर माइंडेड रहे हैं."
लेकिन क्या 72 फ़ीसदी मुस्लिम आबादी वाले लोकसभा क्षेत्र में काँग्रेस को मुस्लिम नेतृत्व नहीं पैदा करना चाहिए था? क्या मुसलमानों को वहाँ से मौक़ा नहीं देना चाहिए था?
इस पर अभिजीत मुखर्जी कहते हैं, 'सर्वाइवल ऑफ़ द फिटेस्ट'. लेकिन क्या यह अभिजीत मुखर्जी का तर्क सही है?
प्रोफ़ेसर हिमाद्री चटर्जी कहते हैं कि मुर्शीदाबाद में मुसलमानों के बीच से कोई सांसद क्यों नहीं बन रहा है इस सवाल को उठाने में 70 साल से ज़्यादा वक़्त लग गए.
चटर्जी कहते हैं, "अब यही सवाल पूछा जा रहा है तो लोगों को लगता है कि ये जवाबी सांप्रदायिकता है. अपने यहाँ भले सेपरेट इलेक्टोरेट नहीं है लेकिन 72 फ़ीसदी आबादी को चालाकी से मौक़ा न देने का तर्क अब नहीं चलेगा."
ओवैसी ने रैली ख़त्म करने के बाद शाम चार बजे के आसपास पश्चिम बंगाल के सागरदीघि स्टेशन पर तौलिया बिछाकर नमाज़ अदा की. योगी ने जय श्रीराम के साथ रैली ख़त्म की. लेकिन ओवैसी इस तर्क को ख़ारिज करते हैं कि उनकी राजनीति से ध्रुवीकरण बढ़ रहा है.
ओवैसी कहते हैं ममता का चंडी पाठ करना सामान्य लगता है लेकिन मेरा नमाज पढ़ना सांप्रदायिक क्यों लगने लगता है? ये नहीं चलेगा.
ओवैसी की तुलना में योगी की रैली में भीड़ ज़्यादा थी. योगी की रैली में महिलाएं भी थीं. ओवैसी की रैली में गाड़ियाँ कम थीं. ओवैसी के मंच और लोगों के बीच की दूरियाँ कम थीं. मंच खुली धूप में था.
लेकिन योगी के मंच और लोगों के बीच की दूरियाँ बहुत ज़्यादा थीं. मंच पर धूप दस्तक नहीं दे पा रही थी. मुख्यमंत्री होने के नाते योगी की सुरक्षा मानों परिंदों से भी की गई हो लेकिन ओवैसी बिना किसी सुरक्षा के स्टेशन और सड़क पर चलते दिखे.
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