पिछले साल 24 मार्च की शाम को प्रधानमंत्री ने लॉकडाउन लगाते समय कहा था कि जान है तो जहान है. लेकिन इस बार जबकि दूसरी लहर जानलेवा और भीषण है, प्रधानमंत्री लॉकडाउन से क्यों कतरा रहे हैं?
कोरोना: लॉकडाउन पर असमंजस में मोदी, जान बचाएँ या अर्थव्यवस्था?
- ज़ुबैर अहमद
- बीबीसी संवाददाता
भारत में कोरोना महामारी की दूसरी लहर से बड़ी तादाद में हो रही मौतों को देखते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर राष्ट्रीय स्तर पर लॉकडाउन लगाने का दबाव बढ़ता जा रहा है लेकिन सरकारी अधिकारियों का कहना है कि फ़िलहाल केंद्र सरकार देशभर में सम्पूर्ण लॉकडाउन लागू करने के पक्ष में नहीं है.
विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने इसकी वकालत करते हुए मंगलवार को कहा, "कोरोना के प्रसार को रोकने का एकमात्र तरीका एक पूर्ण लॉकडाउन है- कमज़ोर वर्गों के लिए 'न्याय' की सुरक्षा के साथ."
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न्याय से उनका आशय 'न्यूनतम आय योजना' से है, कांग्रेस ने पिछले लोकसभा चुनाव से पहले कहा था कि अगर वह चुनाव जीती तो इस योजना को लागू करेगी.
भारत के कई राज्यों ने अपने स्तर पर लॉकडाउन लागू किया है. मिसाल के तौर पर मंगलवार को छत्तीसगढ़ की सरकार ने अप्रैल की शुरुआत से लगे लॉकडाउन को 10 दिन के लिए और बढ़ा दिया है, अब राज्य में 15 मई तक लॉकडाउन होगा.
दूसरी ओर, सोमवार को अमेरिकी प्रशासन के मुख्य चिकित्सा सलाहकार डॉक्टर एंथनी फाउची ने भारतीय न्यूज़ एजेंसी पीटीआई को दिए एक इंटरव्यू में दो-तीन सप्ताह के लिए राष्ट्रीय स्तर पर लॉकडाउन लगाने की सलाह दी थी.
उन्होंने कहा, "यह बिलकुल स्पष्ट है कि भारत की स्थिति बेहद गंभीर है."
इंटरव्यू में उन्होंने कहा, "जब आपके इतने सारे लोग संक्रमित हैं, तो सभी की पर्याप्त देखभाल करने की क्षमता कम हो जाती है; जब आपके पास अस्पताल के बेड और ऑक्सीजन की कमी होती है, तो यह वास्तव में एक बहुत ही हताशा की स्थिति बन जाती है, इसलिए हमें लगता है कि सभी देशों के लिए यह महत्वपूर्ण है कि वे जिस हद तक भारत की मदद कर सकते हैं, ज़रूर करें."
भारत की शीर्ष अदालत ने दो दिन पहले मोदी सरकार को दूसरी लहर की रोकथाम के लिए लॉकडाउन लगाने की सलाह दी थी. सुप्रीम कोर्ट ने सार्वजनिक सभाओं और संक्रमण फैलाने वाले 'सुपर स्प्रेडर' कार्यक्रमों पर प्रतिबंध लगाने का भी मशवरा दिया था.
सुप्रीम कोर्ट ने कहा, "हम लॉकडाउन के सामाजिक-आर्थिक प्रभाव से परिचित हैं, विशेष रूप से, हाशिए के समुदायों पर इसके असर से, अगर लॉकडाउन लागू किया जाता है, तो इन समुदायों की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए पहले से व्यवस्था की जानी चाहिए."
ज़ाहिर है, सुप्रीम कोर्ट ने यह बात 2020 में लगाए गए संपूर्ण लॉकडाउन को ध्यान में रखकर कही थी जब लाखों-लाख मज़दूरों को भारी दिक्कतों के बीच किसी तरह अपने घर-गाँव लौटना पड़ा था, कई मज़दूर रास्ते में थकान और भूख की वजह से अपनी जान गँवा बैठे थे.
डॉक्टरों और नर्सों की पुकार
भारत सरकार पर सबसे बड़ा दबाव उन लाखों डॉक्टरों और फ्रंटलाइन स्टाफ़ का है जो देश के हज़ारों अस्पतालों में दिन-रात काम कर रहे हैं लेकिन अपनी आँखों के सामने ऑक्सीजन की कमी के कारण कई मरीज़ों को दम तोड़ते देख रहे हैं.
अस्पतालों में आईसीयू बेड, वेंटिलेटर और दूसरे स्वास्थ्य यंत्रों की सख्त कमी को देखते हुए वो चाहते हैं कि केंद्र सरकार कुछ हफ़्तों के लिए देशभर में लॉकडाउन लगाए ताकि संक्रमण के फैलाव को रोका जा सके और उन्हें कुछ राहत मिले.
एम्स के निदेशक डॉ. रणदीप गुलेरिया ने कुछ दिनों पहले ही कहा था कि देश में पिछले साल की तरह इस बार भी पूर्ण लॉकडाउन या आक्रामक लॉकडाउन लगाने की ज़रूरत है
भारत में 10 से अधिक राज्यों, केंद्र शासित प्रदेशों और शहरों में या तो क्षेत्रीय लॉकडाउन लागू हैं या फिर रात का कर्फ्यू लगाया गया है.
कुछ जगहों पर सप्ताहांत कर्फ्यू और लॉकडाउन लग गया है. प्रधानमंत्री मोदी ने पिछले हफ़्ते मुख्यमंत्रियों की एक वर्चुअल बैठक में आग्रह किया था कि वो लॉकडाउन को आख़िरी क़दम मानें.
हालाँकि महाराष्ट्र, दिल्ली और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में कोरोना पॉज़िटिव मामलों में थोड़ी कमी आई है और देशभर में औसतन हर रोज़ आने वाले चार लाख संक्रमण के मामले अब तीन लाख 57 हज़ार पर आ गए हैं.
कोरोना से होने वाली मौतों की संख्या में कोई ख़ास गिरावट नहीं आई है, और संक्रमण नई जगहों पर फैल रहा है. सबसे ज़्यादा चिंता उन ग्रामीण इलाकों को लेकर है जहाँ स्वास्थ्य सुविधाएँ शहरों की तरह नहीं हैं.
डॉक्टर गुलेरिया के अनुसार वायरस की दूसरी लहर जिस तेज़ी से देशभर में फैल रही है उसे रोकने की तैयारी हमारी नहीं है और उनके विचार में राज्यों के लॉकडाउन या प्रतिबंध कामयाब साबित नहीं हो रहे हैं, इसलिए संक्रमण के चक्र को तोड़ने का राष्ट्रव्यापी संपूर्ण लॉकडाउन ही एकमात्र रास्ता है.
जान और जहान का असमंजस
भारत सरकार की दुविधा ये है कि पहले जान बचाएं या अर्थव्यवस्था, लॉकडाउन से अर्थव्यवस्था तबाह हो सकती है जिसके कारण और भी जानें जा सकती हैं और बेरोज़गारी चरम पर पहुंच सकती है.
देश में टीकाकरण का कार्यक्रम चल तो रहा है लेकिन सवा अरब से अधिक आबादी वाले देश में सभी लोगों को टीका लगाने का काम न तो आसान होगा, और न ही जल्दी से उसे पूरा किया जा सकता है.
पिछले साल 24 मार्च की शाम को प्रधानमंत्री ने लॉकडाउन लगाते समय कहा था कि जान है तो जहान है. लेकिन इस बार जबकि दूसरी लहर जानलेवा और भीषण है, प्रधानमंत्री लॉकडाउन से क्यों कतरा रहे हैं?
सरकारी अधिकारी कहते हैं कि "प्रधानमंत्री फिलहाल क्षेत्रीय और टार्गेटेड लॉकडाउन और कंटेनमेंट ज़ोन बनाए जाने के पक्ष में हैं."
पिछले साल देश भर में अचानक से लगाए गए लॉकडाउन से भारत की अर्थव्यवस्था मंदी का शिकार हो गई थी. एक तिमाही में विकास दर -23.9 प्रतिशत पहुँच गई थी, ऐसी भयंकर गिरावट भारत की अर्थव्यवस्था में पहले कभी नहीं देखी गई थी.
बहुत बड़ी तादाद में मज़दूरों के पलायन से देश भर में अफरा-तफरी फैल गई थी और एक अंदाज़े के मुताबिक़, 12 करोड़ मज़दूर एक झटके में बेरोज़गार हो गए थे. इनमे से कई लोग अब भी अपने गाँवों से उन जगहों पर वापस नहीं लौटे हैं जहाँ वो काम करते थे.
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उस समय प्रधानमंत्री को चौतरफ़ा आलोचना का सामना करना पड़ा था. शायद इसी कारण वो एक और राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन के पक्ष में नज़र नहीं आते हैं. एक वजह ये भी है कि लंबे समय तक धीरे-धीरे हुई अनलॉकिंग के बाद अर्थव्यवस्था कुछ हद तक संभल गई है उसे दोबारा झटका देना जोखिम का काम लग सकता है.
और दूसरी तरफ़ देश भर में डॉक्टरों और अस्पतालों में काम करने वाले स्वास्थ्य कर्मचारियों की बुरी हालत देखकर केंद्र सरकार को ये भी चिंता है कि कहीं डॉक्टर और नर्स मानसिक और शारीरिक रूप से जवाब न दे दें, उनका मनोबल कहीं जवाब न दे दे. सरकारी हलकों में ये एक बड़ी चिंता का विषय है.
विशेषज्ञ क्या कहते हैं?
अमेरिका में जॉन्स हॉपकिंस यूनिवर्सिटी के अर्थव्यवस्था के प्रोफेसर और एक प्रसिद्ध अर्थशास्त्री स्टीव हैंकी पिछले साल भी देशभर में लागू किए गए लॉकडाउन के ख़िलाफ़ थे और उन्होंने इसके लिए नरेंद्र मोदी की ज़बरदस्त आलोचना की थी.
उनका कहना है कि भारत जैसे देश में जिसकी अर्थव्यवस्था का सबसे बड़ा हिस्सा असंगठित सेक्टर पर आधारित है, पूर्ण लॉकडाउन लगाना मूर्खता है.
वो कहते हैं, "भारत में स्मार्ट लॉकडाउन लगाने की ज़रूरत है, जिसके अंतर्गत केवल उन इलाक़ों या उन व्यवसायों पर रोक लगाई जाए जिनसे संक्रमण के फैलने का ख़तरा अधिक है."
इसी यूनिवर्सिटी के पब्लिक हेल्थ सिस्टम के विशेषज्ञ और रिसर्च स्कॉलर, भारतीय मूल के डॉक्टर अमेश अदलजा महामारी के वैश्विक असर पर काम कर रहे हैं. भारत पर उनकी गहरी नज़र है. वो एक छोटे समय के लॉकडाउन के पक्ष में हैं जिसके दौरान स्वास्थ्य सुविधाओं को बेहतर करने का मौक़ा मिले.
वो कहते हैं, "भारत में कोरोना की दूसरी लहर तेज़ी से फैल रही है. इसे रोकना आसान नहीं होगा. इसके लिए हमें मूल बातों पर वापस ध्यान देना होगा, टेस्टिंग और ट्रेसिंग बढ़ानी होगी, संक्रामक मरीज़ों को अलग रखना, घरों में बुनियादी सुविधाओं को बढ़ाना, सामाजिक और धार्मिक भीड़ पर पाबन्दी लगाना और टीका लगाने का अभियान राष्ट्रीय स्तर पर शुरू करना ज़रूरी है."
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मिशिगन यूनिवर्सिटी की डेटा वैज्ञानिक और महामारी विज्ञानी डॉक्टर भ्रमर मुखर्जी भारत में कोरोना की पहली लहर और दूसरी लहर पर लगातार काम करती आई हैं.
उनके विचार में सारे बुनियादी क़दमों पर अगर अमल किया गया तो केवल क्षेत्रीय लॉकडाउन से काम चल जाएगा, लेकिन उन्हें इस बात का भी अंदाज़ा है कि भारत में संक्रमण और मृत्यु के सरकारी आँकड़ों से असल आंकड़े कहीं ज़्यादा हैं इसलिए वो चाहती हैं कि केंद्र सरकार और राज्य सरकारें सही डेटा जारी करें जिससे आने वाले दिनों में कोरोना की दूसरी लहर चरम पर कब पहुंचेगी इसका सही अंदाज़ा लगाया जा सके.
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