झारखंडः आदिवासियों का दावा, युवक को माओवादी समझ पुलिस ने 'मारी गोली'
- आनंद दत्त
- लातेहार से, बीबीसी हिन्दी के लिए
झारखंड के एक गांव के आदिवासियों का कहना है कि शिकार पर जा रहे कुछ लोगों पर पुलिस ने गोली चलाई जिसमें एक व्यक्ति की मौत हो गई. वहीं पुलिस ने व्यक्ति की मौत से इनकार नहीं किया है, लेकिन कहा है कि गोली सेल्फ़ डिफेंस में चलाई गई थी.
मामला बीते शनिवार 12 जून का है जब गारू प्रखंड के पीरी गांव के ब्रह्मदेव सिंह और उनके साथी शिकार के लिए जंगल जा रहे थे. ब्रह्मदेव सिंह के परिजनों का आरोप है कि इस दौरान चली पुलिस की गोली से उनकी मौत हो गई जबकि दिनानाथ सिंह नाम के एक और व्यक्ति के हाथ में गोली लगी.
इस मामले में पांच ग्रामीण और एक पुलिसकर्मी पर एफ़आईआर दर्ज की गई है.
पीरी गांव के गनईखांर टोले में रहने वाली ब्रह्मदेव सिंह की मां मालती देवी कहती हैं, "हमलोग खेरवार जाति के सरना आदिवासी हैं. सरहुल पर्व मनाने की तैयारी हो रही थी. परंपरा के अनुसार गांव के आठ से नौ लोग शिकार करने जंगल जा रहे थे. मेरा बेटा भी था. सुबह के वक्त वो घर से सौ मीटर दूर ही निकला था कि सामने से गोली चलने लगी."
मृतक की पत्नी जिरामनी के मुताबिक़ गोली की आवाज़ सुनकर वो बाहर निकली तो पुलिस ने उन्हें घर में बंद कर दिया.
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वे कहती हैं, "मैं खिड़की से देख रहा थी, मेरे पति को पुलिसवाले ने गोली मारा तो वह गिर गए, चिल्लाने लगे. फिर देखे कि उसको पकड़कर आगे ले गया और तीन गोली मारी."
वहीं पिता राजेश्वर सिंह के मुताबिक़, लगभग आधा घंटा रटा-रट (धांय-धांय) गोली चली.
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ब्रह्मदेव के घायल साथी दिनानाथ सिंह ने बताया कि, "फायरिंग के बाद पहली गोली मेरे हाथ में लगी. वो मेरे से आगे था. तुरंत बाद उसको गोली लगी और वहीं पर गिर गया. 'हम लोग जनता हैं...जनता हैं चिल्ला रहे थे', लेकिन पुलिसवाला नहीं माना."
घटना की एक और चश्मदीद और मृतक की चाची बताती हैं, "मेरे सामने ही ब्रह्मदेव को गोली मार दी. मैं भागकर घर गई और पुलिसवालों को दिखाने के लिए आधार कार्ड लेकर बाहर निकली. हमने कहा कि हम माओवादी को जानते भी नहीं है. हम आम जनता हैं."
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कौन से हथियार लेकर निकले थे आदिवासी शिकार पर
ग्रामीण शुकुलदेव सिंह (26) ने बताया, "हमारे पास भरूठिया बंदूक था. उसमें लोहे की छड़ को काटकर गोली लगाई जाती है. इसमें एक बार में एक ही गोली लगती है."
उनके मुताबिक़, "घर से निकले ही थे की फायरिंग होने लगी. कुछ लोग पेड़ की ओट में छिप गए. थोड़ी देर बाद पुलिस घर में घुस गई. फिर हमें जंगल लेकर गई और कहा कि तुम माओवादी हो. हमने कहा कि हम माओवादी नहीं हैं."
इधर पुलिस की ओर से दिए गए बयान के मुताबिक़ पहले गोली आदिवासियों ने चलाई.
जबकि शुकुलदेव के मुताबिक, "जब हम लोगों को जंगल ले जाकर पूछताछ चल रही थी, उसी दौरान बंदूक से गोली निकालने के लिए कहा. सात बंदूक में सात गोली थी. हम लोगों ने सब वहीं निकाल कर रख दिया. एक भी गोली नहीं चलाई थी."
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मृतक के भाई बलराम सिंह ने बताया कि, घटना के अगले दिन पुलिस उनके घर आई थी और उन्हें 36 हजार रुपये दिए. इसके अलावा चावल, तेल भी दिया और कहा भोज-भात में मदद मिल जाएगी.
वहीं घायल युवक दीनानाथ ने भी बताया कि, बुधवार को गारू थाना प्रभारी ने उन्हें बुलाया था और उन्हें बैंक अकाउंट खोलने की सलाह दी.
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पुलिस ने घटना पर क्या कहा
इस मामले पर लातेहार एसपी प्रशांत आनंद ने बीबीसी को बताया कि, "नक्सलियों के होने की सूचना मिलने पर ज़िला पुलिस, झारखंड जगुआर और सीआरपीएफ़ की टीम उस इलाके में संयुक्त अभियान चला रही थी. उसी दौरान पीरी गांव में शिकार खेलने गए युवकों से पुलिस का सामना हो गया. पुलिस ने रुकने के लिए कहा, लेकिन पहली गोली उनकी तरफ़ से चली. सेल्फ डिफेंस में पुलिस ने गोली चलाई. जिसमें एक युवक की मौत हो गई."
उन्होंने बताया, "घटना के बाद इसमें शामिल पांच युवकों को हमने हिरासत में लिया था. उनके पास से सात हथियार बरामद हुए हैं, उसे स्थानीय भाषा में भरठुआ बंदूक कहते हैं जो अवैध है. जिस इलाके में घटना हुई है, वो पलामू टाइगर रिजर्व के तहत आता है, वहां शिकार करना अवैध है."
उन्होंने बताया कि, पुलिस ने हिरासत में लिए गए युवक से हथियार बरामद कर और अंडरटेकिंग लेकर उन्हें छोड़ दिया है. साथ ही मामले को सीआईडी को भी रेफर किया है.
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राज्य में इस तरह की यह पहली घटना नहीं है. साल 2015 में चर्चित बकोरिया हत्याकांड में कुल 12 निर्दोष लोगों की हत्या माओवादी के नाम पर कर दी गई थी. मामले की सीबीआई जांच चल रही है.
17 जून 2020, चाइबासा ज़िले के गोइलकेरा जंगल में माओवादी समर्थक होने के आरोप में आठ आदिवासियों को सुरक्षाबलों ने पीटा था. ये मामला हाईकोर्ट में है.
झारखंड क्रांतिकारी मज़दूर यूनियन के केंद्रीय अध्यक्ष बच्चा के अनुसार 9 जून 2017, गिरिडीह ज़िले के मोतीलाल बास्के की मौत पुलिस की गोली से हो गई थी लेकिन मामले में अभी तक एफ़आईआर तक दर्ज नहीं की गई है.
मानवाधिकार कार्यकर्ता और ऐसे ही मामलों पर क्रॉसफायर नामक किताब लिख चुके ग्लैडसन डुंगडुंग कहते हैं, "ऐसे अधिकतर मामलों में पुलिस सेल्फ डिफेंस के हथियार का इस्तेमाल करती है. ये ख़ुद को बचाने के लिए ये तरह का सेफगार्ड हैं."
वे कहते हैं, "इसका मूल कारण है कि आदिवासी रिसोर्स बेल्ट में रहते हैं. आदिवासी और खनिज जब तक रहेंगे, इस तरह की घटनाएं होती रहेंगी."
ग्लैडसन ने बताया कि एक रिपोर्ट के अनुसार 15 नवंबर 2000 से मई 2011 के दौरान कुल 550 लोगों की मौत हुई है. और 4372 लोगों को नक्सली होने के आरोप में गिरफ़्तार किया गया था.
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