कितने बच्चे पैदा हों ये कौन तय करे, सरकार या औरत?
- दिव्या आर्य
- संवाददाता
देश की ज़्यादा आबादी को कम करने के लिए जब सरकार फ़ैसले लेना चाहती है, तब उससे मची उथल-पुथल में बच्चे पैदा करनेवाली और गर्भनिरोध के तरीके अपनानेवाली औरतें सबसे ज़्यादा प्रभावित होती है.
ये पहली बार नहीं है कि जनसंख्या के नियंत्रण के लिए भारत में प्रलोभन और दंड की नीति अपनाई गई हो. यानी परिवार छोटा रखने पर सरकार इनाम दे और ज़्यादा बच्चे पैदा करने पर सरकारी नीतियों और मदद से वंचित करे.
पहले 1970 के दशक में देश में लगी इमरजेंसी के दौरान नसबंदी के कार्यक्रम से और फिर 1990 के दशक में पंचायत चुनाव लड़ने के लिए कई राज्यों में बाध्यकारी की गई 'टू-चाइल्ड' पॉलिसी के ज़रिए ऐसा किया जा चुका है.
कुछ सबक़ 'वन-चाइल्ड' और 'टू-चाइल्ड' पॉलिसी लागू करनेवाले पड़ोसी देश चीन से भी लिए जा सकते हैं और कुछ जापान और दक्षिण कोरिया से.
अब असम और उत्तर प्रदेश की सरकारें ऐसी ही नीति अपनाना चाहती हैं. ऐसे में ये समझना ज़रूरी है कि इनसे पहले चलाई गई ऐसी मुहिम का भारत की आबादी पर और औरतों की ज़िंदगी पर कैसा असर पड़ा था?
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इमरजेंसी में जब हुई जबरन नसबंदी
विश्व बैंक के मुताबिक़ जब भारत आज़ाद हुआ तो एक औरत औसतन छह बच्चों को जन्म दे रही थी यानी देश का 'टोटल फर्टिलिटी रेट' (टीएफआर) छह था.
जनसंख्या नियंत्रण पर पहला कदम 1952 की पहली पंचवर्षीय योजना में उठाया गया. 'फर्टिलिटी' और 'परिवार नियोजन' पर शोध और 'जनसंख्या को देश की अर्थव्यवस्था की ज़रूरत के स्तर तक' लाने का लक्ष्य रखा गया.
लेकिन इमरजेंसी के दौरान सरकार ने कहा कि पुराने तरीकों का कोई व्यापक असर नहीं दिखा है सो कुछ नया करने की ज़रूरत है और नसबंदी पर ज़ोर दिया गया.
1976 में लाई गई इस पहली राष्ट्रीय जनसंख्या नीति के तहत परिवार नियोजन के टार्गेट तय किए गए और राज्यों को इन्हें पूरा करने पर ही केंद्रीय सहायता मिलने जैसी शर्तें लागू की गईं. नसबंदी करवाने के लिए लोगों को प्रलोभन भी दिए गए.
नसबंदी और औरतें
नसबंदी की ये नीति थी तो मर्द और औरतों दोनों के लिए, पर मर्दों पर ज़्यादा केंद्रित थी. एक तो सरकारी नौकरी या राशन से वंचित रखने की शर्तें उनपर लागू करना आसान था, दूसरा ये कि मर्दों की नसबंदी (वैसेक्टोमी) करना, औरतों की नसबंदी (ट्यूबेक्टमी) के मुक़ाबले कम जटिल था और स्वास्थ्य केंद्र उसके लिए बेहतर तैयार थे.
इसके बावजूद नसबंदी करवाने के दौरान उस दौर में 2,000 मर्दों की मौत हो गई. इमरजेंसी हटी तो कांग्रेस सरकार गिर गई. नई सरकार को जबरन नसबंदी के फ़ैसले से पीछे हटना पड़ा.
चुनावी हार के बाद अहम फर्क ये आया कि अब परिवार नियोजन का केंद्र मर्द नहीं, बल्कि औरतें बन गईं.
प्रोफेसर टी.के.एस रविंद्रन ने 'रिप्रोडक्टिव हेल्थ मैटर्स' पत्रिका में लिखा, "1975-76 में कुल नसबंदी का 46 प्रतिशत औरतें करवा रही थीं, ये 1976-77 में घटकर 25 प्रतिशत हुआ पर 1977-78 में बढ़कर 80 प्रतिशत हो गया. 1980 के दशक में ये करीब 85 प्रतिशत बना रहा और 1989-90 में 91.8 प्रतिशत हो गया था."
साल 2015-16 के ताज़ा नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे (एनएफ़एचएस) के मुताबिक़ परिवार नियोजन में मर्दों की नसबंदी का हिस्सा अब सिर्फ 0.3 प्रतिशत है. यानि नसबंदी के ज़रिए परिवार नियोजन का लगभग पूरा भार औरतों के माथे था.
47 प्रतिशत औरतें अब भी गर्भनिरोध का कोई तरीका इस्तेमाल नहीं करतीं और गर्भ निरोध के तरीकों के इस्तेमाल में 2005-06 से लेकर 2015-16 में मामूली गिरावट भी आई है.
इसमें मर्दों की भागीदारी भी गिरती रही और अब परिवार नियोजन में उनका कुल योगदान 10 प्रतिशत से भी कम रह गया है.
गर्भ-निरोध की ज़िम्मेदारी औरतों के कंधों पर ज़रूर लाद दी गई लेकिन उसका फ़ैसला लेने की आज़ादी उन्हें नहीं मिली. सरकार ने फिर जब परिवार नियोजन के साथ दंड और प्रलोभन जोड़ दिया तो इसका परिणाम औरतों को ज़्यादा भुगतना पड़ा.
पंचायत चुनाव लड़ने के लिए ज़रूरी दो या कम बच्चे
इमरजेंसी के दौरान लाखों मर्दों की नसबंदी के बावजूद जब 1981 में जनगणना के आंकड़े सामने आए तो जनसंख्या वृद्धि दर में कमी नहीं बल्कि थोड़ी बढ़त दिखी.
जानकारों के मुताबिक़ ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि गर्भ-निरोधक के मामले में कंडोम जैसे अस्थाई उपाय की जगह नसबंदी एक स्थाई फ़ैसला है जिसे दंपत्ति तभी लेते हैं जब वो पूरी तरह आश्वस्त होते हैं कि उन्हें और बच्चे नहीं चाहिए.
एक बार जब सरकार ने नीति वापस ले ली, तब लोगों ने नसबंदी करवानी भी बंद कर दिया. यानि नीति के कारण जनसंख्या कम करने के फ़ायदे को लेकर लोगों की सोच में कोई बदलाव नहीं आया.
नसबंदी और आधुनिकीकरण के जनसंख्या पर असर को समझने के लिए अमेरिकी ऐन्थ्रोपॉलोजिस्ट रूथ एस. फ्रीड ने दिल्ली के पास के एक गांव में साल 1958-83 के बीच शोध किया.
इकनॉमिक एंड पोलिटिकल वीकली में छपे उनके अध्ययन के मुताबिक़, "सरकारी नीति हटने के बाद नसबंदी का फ़ैसला या तो मर्द की आर्थिक स्थिति पर आधारित था या फिर इस पर कि उनके घर में बेटा पैदा हुआ है या नहीं. औरतों की इच्छा की कोई खास अहमियत नहीं थी."
औरतों को इस दोयम दर्जे का अहसास एक बार फिर तब हुआ जब 1990 के दशक में संविधान के संशोधन से पंचायती राज में औरतों, दलितों और अन्य पिछड़े वर्गों के लिए सीटें आरक्षित की गईं लेकिन साथ ही चुनाव लड़ने के लिए दो या उससे कम बच्चे होने की शर्त रखी गई.
कम बच्चों के नियम का औरतों पर असर
इसका असर मर्द और औरतों दोनों पर होना चाहिए था पर औरतों पर कहीं ज़्यादा पड़ा - जैसा सरकारी अफसर निर्मल बाख ने पांच राज्यों के अध्ययन में पाया.
उन्हें कई ऐसे उदाहरण मिले जहां किसी मर्द ने पंचायत चुनाव जीतने के बाद तीसरा बच्चा होने पर अपनी पत्नी को तलाक दे दिया, नाजायज़ औलाद से गर्भवती होने का झूठा इल्ज़ाम लगाकर घर से निकाल दिया या पहली पत्नी को छोड़कर दूसरी शादी कर ली.
उन्होंने ऐसी औरतों का भी ज़िक्र किया है जो चुनाव जीतने के बाद अगर तीसरी बार गर्भवती हुईं तो दूसरे गांव या राज्य में जा कर बच्चे को चोरी छिपे जन्म दिया. अगर लड़का हुआ तो राजनीतिक पद छोड़ दिया और लड़की हुई तो उसे ही छोड़ दिया.
कई जगह महिलाओं का असुरक्षित गर्भपात करवाया गया और कहीं भ्रूण की लिंग जांच कर ग़ैरकानूनी भ्रूण हत्या की गई.
निर्मल बाख के मुताबिक़, "इस नीति का औरतों के स्टेटस पर बहुत बुरा असर पड़ा लेकिन आम धारणा यही बनी रही कि जनसंख्या नियंत्रण के लिए ये ज़रूरी है."
ग्रामीण परिवेश में बेटे की चाह और पंचायत में प्रतिनिधित्व के बीच चुनाव करने में औरत की अपनी चाह मारी जाती रही. लेकिन ये जानने की कोशिश कम ही हुई कि वो क्या चाहती है?
चीन की जनसंख्या नीति और बेटे की चाह
जनसंख्या नियंत्रण में सरकार के दखल का सबसे बड़ा उदाहरण पड़ोसी देश चीन में मिलता है. भारत से ज़्यादा आबादी वाले चीन ने उसे कम करने के लिए साल 1980 में 'वन-चाइल्ड' पॉलिसी अपनाई.
बेटे की चाह चीन में भी कितनी प्रबल है इसका अंदाज़ा इस बात से मिलता है कि 'वन-चाइल्ड' पॉलिसी में ग्रामीण इलाकों में रहने वाले दम्पति को दो बच्चे पैदा करने की इजाज़त दी गई बशर्ते उनका पहला बच्चा लड़की हो.
इसका मकसद था कि 'वन-चाइल्ड' पॉलिसी को निभाने और बेटे की चाह पूरी करने के लिए ग्रामीण और कम शिक्षित इलाकों में लिंगानुपात ना बिगड़ जाए.
इसके बावजूद 'वन-चाइल्ड' पॉलिसी लाने के दो दशक बाद चीन में बच्चों का लिंगानुपात बहुत बिगड़ गया था. यानी यहां भी गर्भपात और भ्रूण हत्या जैसे तरीकों का इस्तेमाल कर सरकारी नीति से बचकर बेटे की ख्वाहिश पूरी करने की कोशिशें की गई.
युनिसेफ़ के मुताबिक़ 1982 में 100 लड़कियों के मुक़ाबले 108.5 लड़कों से बढ़कर ये 2005 में 118.6 लड़कों की औसत दर तक पहुंच गया. 2017 में 100 लड़कियों के मुक़ाबले 111.9 लड़कों पर आ गया है. पर ये अब भी दुनिया के सबसे बुरे लिंगानुपात में से है.
चीन में अब जनसंख्या नीति में ढील दी है.
जनसंख्या में कटौती और लिंगानुपात में बढ़ोत्तरी
चीन में बच्चों के लिंगानुपात में जो बेहतरी आई है वो ज़्यादातर शहरी इलाकों में देखी गई. जहां औरतों की शिक्षा का स्तर बेहतर है, वो बुज़ुर्ग मां-बाप का ख़याल रखने के लिए आर्थिक तौर पर सक्षम हैं, उन्हें जायदाद में हिस्सा मिलता है और परिवार भी रूढ़ीवादी परंपराओं में कम यकीन रखते हैं.
अमरीका की टफ्ट्स युनिवर्सिटी में पॉलिटिकल साइंस की प्रोफ़ेसर एलिज़बेथ रेमिक चीन के साथ जापान और दक्षिण कोरिया में बच्चों के अच्छे लिंगानुपात का उदाहरण देते हुए बताती हैं कि इसके पीछे सरकारी नीतियों का अहम योगदान है.
उनके मुताबिक़, "जापान में औरतें प्रॉपर्टी में हकदार होती हैं, आर्थिक रूप से सशक्त हैं और वहां ओल्ड-एज पेंशन की बहुत अच्छी व्यवस्था है. दक्षिण कोरिया में भी 1995 के बाद बच्चों का लिंगानुपात ठीक होना शुरू हुआ जब सरकार ने औरतों और मर्दों को प्रॉपर्टी में बराबर का हिस्सा दिया, परंपराओं में बराबरी की जगह दी और शादी के बाद पत्नी का पति के घर में उसके परिवार के साथ रहने के चलन को खत्म किया."
यानी जनसंख्या नियंत्रण की किसी भी तरह की नीति लाने के बुरे परिणाम भी हो सकते हैं और ये ज़रूरी नहीं को लोग उसका स्वेच्छा से पालन करें.
पिछले अनुभव ये बताते हैं कि बिना प्रलोभन या दंड की नीति अपनाए, औरतों को सक्षम बनाने से अच्छे नतीजों तक पहुंचा जा सकता है.
अंतरराष्ट्रीय विज्ञान पत्रिका लैन्सेट में साल 2020 में छपे एक शोध में भी पाया गया कि, "गर्भ-निरोध के आधुनिक तरीकों तक पहुंच और लड़कियों की शिक्षा के बल पर ही दुनिया-भर में फर्टिलिटी की दर और जनसंख्या गिर रही है."
एनएफ़एचएस 2015-16 के मुताबिक़ भारत में भी बारहवीं तक पढ़ाई कर चुकीं, आर्थिक रूप से सशक्त औरतें कम बच्चे पैदा कर रही हैं. अनपढ़ लड़कियों के मुक़ाबले पढ़ी-लिखी लड़कियां 15 से 18 साल की नाबालिग उम्र में मां कम बन रही हैं.
वहीं कम पढ़ी-लिखी, गरीब, ग्रामीण और अल्पसंख्यक समुदायों की औरतों को गर्भ-निरोध अभियानों की जानकारी कम है.
मर्द क्या सोचते हैं?
अब इसके साथ सामाजिक सोच से जुड़े निष्कर्ष देखें तो एनएफ़एचएस 2015-16 के मुताबिक़ क़रीब 40 प्रतिशत मर्द मानते हैं कि गर्भ-निरोध सिर्फ औरतों की ज़िम्मेदारी है, पर 20 प्रतिशत ये भी मानते हैं कि गर्भ-निरोध के तरीकों का इस्तेमाल करनेवाली औरत एक से ज़्यादा मर्द से यौन संबंध बनानेवाली होती है.
यानी औरतों पर गर्भ-निरोध की ज़िम्मेदारी भी है और उनके चरित्र पर सवाल भी. इसके अलावा उस पर बेटे की चाह का सामाजिक दबाव भी.
साल 2000 में भारत में अपनाई गई दूसरी राष्ट्रीय जनसंख्या नीति में प्रलोभन और दंड की जगह बच्चों और मां की सेहत, औरतों के सशक्तिकरण और गर्भ-निरोध पर ध्यान केंद्रित किया गया.
अब केंद्र सरकार ने गर्भ-निरोध में मर्दों की हिस्सेदारी बढ़ाने की बात शुरू की है. भारत का टीएफ़आर 1950 में छह था से गिरकर 2015-16 में 2.2 तक आ गया है.
गर्भ-निरोध के लिए औरतों की ज़िम्मेदारी बांटने और उन्हें उनके हक देनेवाले कदम सही लिंगानुपात के साथ जनसंख्या नियंत्रण के कहीं बेहतर नतीजे दे सकते हैं. यही बात उत्तरप्रदेश और असम जैसे राज्यों पर लागू होती है जो लगता है इतिहास के पन्नों से सबक नहीं ले रहे हैं.
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