दिल्ली दंगा: पुलिस की वो "बेढंगी और हास्यास्पद" जाँच जिस पर लगा जुर्माना
- सलमान रावी
- बीबीसी संवाददाता, नई दिल्ली
दिल्ली के पूर्वोत्तर इलाक़े में पिछले साल फ़रवरी में हुए दंगों के एक पीड़ित मोहम्मद नासिर की एफ़आईआर अब शायद दर्ज हो सके, इसके लिए उन्हें थानों और अदालतों के कई चक्कर लगाने पड़े.
अब भी शायद इसलिए क्योंकि दिल्ली पुलिस का कहना है कि वह अदालत के जुर्माने के फ़ैसले के ख़िलाफ़ ऊपरी अदालत में अपील कर सकती है.
अतिरिक्त सत्र न्यायधीश विनोद यादव ने मामले की सुनवाई के बाद पिछले सप्ताह दिल्ली पुलिस पर 25 हज़ार रूपए का जुर्माना लगाया है. उसी आदेश में जज ने दिल्ली पुलिस कमिश्नर से ये भी कहा है कि वो नासिर के मामले की जांच करने वाले पुलिस अधिकारियों के ऊपर कार्रवाई करके अदालत को इसकी सूचना दें.
अदालत ने अपने आदेश में कहा है कि नासिर के मामले में दिल्ली पुलिस की जांच "बेढंगी, लापरवाह और हास्यास्पद" है. आदेश में कहा गया कि नासिर ने जिन लोगों पर हमले का आरोप लगाया है, पुलिस के "अधिकारियों ने उनका बचाव करने के रास्ते बनाने की कोशिश की है."
दंगों के दौरान और उसके बाद दिल्ली पुलिस की भूमिका को लेकर बड़े पैमाने पर गंभीर आरोप लगाए गए थे, आरोप लगाने वाले मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और पीड़ितों के वकीलों का कहना था कि "पुलिस ने पक्षपातपूर्ण रवैया अपनाया, चुनिंदा दंगाइयों को खुली छूट दी और कई जगह वह दंगाइयों का साथ देती नज़र आई".
लेकिन केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने 11 मार्च 2020 को संसद में दिल्ली के दंगों को "एक बड़ी सुनियोजित साज़िश का हिस्सा" बताया था और दिल्ली पुलिस के बारे में कहा था कि "उन्होंने सराहनीय काम करते हुए दंगों को 36 घंटे के भीतर काबू में कर लिया."
नासिर का संघर्ष
दंगों के दौरान नासिर की आँख में गोली लगी थी. दिल्ली की अदालत में उन्होंने जो याचिका दायर की थी उसमें कहा गया कि 24 फ़रवरी को उन्हें गोली लगी थी और वो अस्पताल से इलाज कराकर 11 मार्च 2020 को लौटे.
दंगाग्रस्त पूर्वोत्तर दिल्ली के घोंडा इलाके के निवासी नासिर ने अपनी याचिका में आरोप लगाया था कि उन पर हुए हमले की एफ़आईआर दर्ज करने की बजाय भजनपुरा पुलिस स्टेशन के अधिकारियों ने उनकी शिकायत दूसरी एफ़आईआर के साथ जोड़ दी जिसका उन पर हुए हमले से कोई ताल्लुक नहीं था.
नासिर के वकील महमूद पराचा ने बीबीसी से बात करते हुए कहा कि जिस एफ़आईआर के साथ पुलिस ने नासिर की शिकायत को जोड़ा है उसमें "अभियुक्त मुसलमान हैं और पीड़ित भी मुसलमान" हैं. पराचा ने जो हलफ़नामा अदालत में दायर किया है उसमें कहा गया है कि पुलिस नासिर पर हुए हमले की शिकायत पर एफ़आईआर दर्ज करने से बचती रही जबकि नासिर ने हमलावरों को नामज़द किया था.
बीबीसी से बात करते हुए नासिर कहते हैं कि उन पर हमला 24 फरवरी को हुआ और अस्पताल से इलाज के बाद आने पर उन्होंने एफ़आईआर दर्ज करने की बहुत कोशिश की.
उनका कहना था, "जब एफ़आईआर दर्ज नहीं हुई तो हमने स्पीड पोस्ट के ज़रिए अपनी बात थाने को और आला पुलिस अधिकारियों को लिखकर भेजी लेकिन स्पीड पोस्ट वापस आ गया जिस पर लिखा हुआ था-"लेने से इनकार कर दिया". फिर पिछले साल जुलाई की 8 तारीख को पुलिस के एक अधिकारी मेरा बयान लेने आए जबकि पुलिस ने इस मामले में 17 जून को ही आरोपपत्र अदालत में दाख़िल कर दिया था."
मोहम्मद नासिर बताते हैं, "मैंने पुलिस अधिकारी से पूछा कि मेरा बयान लिए बिना ही मुझ पर हुए हमले के मामले में आख़िर आरोपपत्र कैसे दायर कर दिया गया?"
पिछले साल की 21 अक्टूबर को मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट की अदालत ने पुलिस को नासिर पर हमले के मामले की एफ़आईआर दर्ज करने का आदेश दिया था लेकिन दिल्ली पुलिस ने एफ़आईआर दर्ज करने के बदले इस आदेश को ही ज़िला और सत्र न्यायलय में चुनौती दे दी.
इसी मामले में 13 जुलाई के अपने आदेश में अतिरिक्त ज़िला एवं सत्र न्यायाधीश विनोद यादव ने लिखा कि नासिर के मामले में पुलिस का रवैया "बेहद चौंका देने वाला" है.
एफ़आईआर दर्ज करने के पिछले अदालती आदेश पर दिल्ली पुलिस की अपील को ख़ारिज करते हुए जज ने कहा कि पुलिस की 'केस डायरी' भी सही नहीं थी जिसे 'सीआरपीसी' के मानदंडों के अनुसार होना चाहिए था मगर ऐसा नहीं किया गया.
क्या थी घटना?
नासिर ने जो शिकायत दर्ज कराई है उसके अनुसार 24 फरवरी को वो अपनी बहन को शालीमार बाग़ के एक अस्पताल से डिस्चार्ज कराके घर ला रहे थे. उनकी बहन का पथरी का ऑपरेशन हुआ था. उनका कहना है कि वो टैक्सी से घर लौटे थे.
यह वही समय था जब दिल्ली में सीएए के विरोध और समर्थन को लेकर दो गुटों में हुई झड़प के बाद दंगे भड़क उठे थे, चूँकि हालात ख़राब थे इसलिए वो टैक्सी के ड्राइवर को उस इलाके से निकलने का रास्ता दिखा रहे थे.
उन्होंने शिकायत में कहा है, "ड्राइवर डरा हुआ था. उसकी पत्नी का बार-बार फ़ोन आ रहा था. मैं स्थानीय था इसलिए मैंने उसे वहां से निकलने के लिए रास्ता बताया."
वापस घर लौटते समय उनके एक हिंदू दोस्त ने उन्हें अपनी मोटरसाइकल पर लिफ्ट भी दी थी और घर से एक किलोमीटर पहले ही छोड़ दिया था. ये दोस्त उनके साथ स्कूल में पढता था.
वो कहते हैं कि वो बच-बचकर सावधानी के साथ घर की तरफ़ बढ़ रहे थे. अचानक घर से पहले वाले मोड़ पर ही भीड़ ने उन्हें घेर लिया और उन पर हमला कर दिया. उन्होंने अदालत को बताया है कि वो अपने हमलावरों को पहचानते हैं. सभी के नामों का उन्होंने अपनी शिकायत में ज़िक्र भी किया था.
कई ऐसे मामले
नासिर के वकील महमूद पराचा कहते हैं, "ये तो सिर्फ़ नासिर का मामला है. दिल्ली दंगों से संबंधित जो मामले दर्ज किए गए हैं उनमें से बहुत सारे मामलों में दिल्ली पुलिस की जाँच ही संदिग्ध है. उनके आरोपपत्र में बहुत सारी खामियाँ हैं."
पराचा के अनुसार कई मामले हैं जिनमें निर्दोष लोगों पर ही कार्रवाई हो रही है जबकि कई मामलों में पीड़ितों की फरियाद के बावजूद पुलिस ने उन लोगों को नहीं पकड़ा जिनके ऊपर आरोप लगे हैं.
दिल्ली दंगों में दिल्ली पुलिस की भूमिका को लेकर दिल्ली के अल्पसंख्यक आयोग ने भी पिछले साल एक रिपोर्ट जारी की थी. रिपोर्ट में कहा गया था कि 'दिल्ली पुलिस ने दंगों के सिलसिले में दर्ज मामलों में जो आरोपपत्र दाख़िल किए हैं उनमें घटनाक्रम की बहुत ही अहम कड़ियाँ ग़ायब हैं."
दिल्ली में हुए दंगों में पचास से ज़्यादा लोग मारे गए थे जबकि 400 से ज़्यादा घायल हुए थे. ये दंगे दिल्ली के विभिन्न इलाकों में नागरिकता संशोधन क़ानून (सीएए) के ख़िलाफ़ चल रहे प्रदर्शनों के बाद शुरू हुए थे.
दिल्ली में हुए दंगों की निष्पक्ष जाँच का दावा करने वाले अलग-अलग फ़ैक्ट फाइंडिंग दलों ने एक-दूसरे के बिल्कुल उलट रिपोर्ट पेश की है. दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग ने पुलिस की भूमिका पर सवाल उठाए हैं.
वहीं सुप्रीम कोर्ट की वकील मोनिका अरोड़ा की अगुआई में की गई एक पड़ताल की रिपोर्ट को 'धरने से दंगे तक' कहा गया है जिसमें सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों को 'सुनियोजित साज़िश के तहत' दंगे के करने का दोषी बताया गया है.
https://www.bbc.com/hindi/india-57881740
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