लालू प्रसाद यादव ने आरजेडी का गठन कैसे और क्यों किया था?
- प्रदीप कुमार
- बीबीसी संवाददाता
पांच जुलाई, 2021 को राष्ट्रीय जनता दल अपना 25वां स्थापना दिवस मना रहा है. कोविड पाबंदियों के दौर में कोई बड़ा आयोजन तो नहीं हो रहा है लेकिन पार्टी इस मौक़े पर वर्चुअल आयोजन कर रही है.
25वें साल के जश्न की पूर्व संध्या पर पार्टी के नेता तेजस्वी यादव ने पार्टी कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए बताया है कि दोपहर 11 बजे से एक बजे के बीच पार्टी स्थापना दिवस समारोह मनाएगी.
इस आयोजन में दिल्ली से लालू प्रसाद यादव भी वर्चुअल रूप में शामिल होंगे. क़रीब तीन साल के बाद लालू प्रसाद पहली बार अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं को संबोधित करते नज़र आएंगे.
जेल से रिहा होने के बाद वे पार्टी के नेताओं की एक ऑनलाइन बैठक में शामिल हुए थे. दो महीने पहले हुई बैठक में लालू प्रसाद चार मिनट से भी कम बात कर पाए थे और उनके शरीर में ऑक्सीजन का स्तर कम होने लगा था. लेकिन बताया गया है कि वे पार्टी की 25वीं वर्षगांठ से जुड़े आयोजन में शामिल होंगे.
इस आयोजन की शुरुआत से पहले पार्टी रामविलास पासवान को भी याद करेगी. पांच जुलाई राम विलास पासवान की जन्मतिथि भी है.
अब राष्ट्रीय जनता दल की कमान अप्रत्यक्ष तौर पर लालू प्रसाद यादव के बेटे तेजस्वी यादव के हाथों में आ गयी हो लेकिन व्यापक तौर पर इसे आज भी लालू प्रसाद यादव की पार्टी के तौर पर देखा जाता है.
लालू प्रसाद यादव ने इस पार्टी का गठन अपने राजनीतिक करियर के सबसे सुनहरे दिनों में अचानक से आए उस संकट में किया था जिसके शिकंजे से वे आज तक मुक्त नहीं हो सके हैं.
कब बना था राष्ट्रीय जनता दल
भारत की केंद्रीय राजनीति में 1996 से 1998 के दौर को सबसे अस्थिर माना जाता है. तब लालू प्रसाद यादव जनता दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष हुआ करते थे. उन्हें पार्टी की कमान एसआर बोम्मई का नाम हवाला कांड में आने के बाद मिली थी. लालू उस दौर में अमूमन कहा करते थे, "हवाला ने जनता दल को मेरे हवाले कर दिया."
यानी लालू ने जब राष्ट्रीय जनता दल का गठन किया तब वे जनता दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष होने के साथ साथ बिहार के मुख्यमंत्री भी थे और ख़ास बात यह भी थी कि उनकी ही पार्टी के नेता प्रधानमंत्री थे. राजनीति में इससे सुनहरा समय क्या हो सकता है, लेकिन इसी दौर में सीबीआई ने चारा घोटाले में लालू प्रसाद यादव के ख़िलाफ़ चार्जशीट दाख़िल करने का फ़ैसला लिया.
चारा घोटाले में लालू प्रसाद की संलिप्तता की सीबीआई जांच की फ़ाइल वैसे तो अटल बिहारी वाजपेयी की 13 दिनों की सरकार के दौरान खुली थी लेकिन उसे आगे बढ़ाने का काम एचडी देवगौड़ा की सरकार के समय किया गया था.
बिहार में समाजवादी राजनीति पर से लंबे समय से जुड़े रहे प्रेम कुमार मणि कहते हैं, "एचडी देवगौड़ा परिस्थितिवश प्रधानमंत्री तो बन गए थे लेकिन वे लोकप्रिय नेताओं से कांप्लैक्स महसूस करते थे, पहले उन्होंने हेगड़े को हटवाया और उसके बाद लालू जी पर अंकुश लगाने का रास्ता उन्हें मिल गया था."
इंद्र कुमार गुजराल ने अपनी आत्मकथा मैटर्स ऑफ़ डिसक्रिएशन में कई जगहों पर इसका ज़िक्र किया है कि देवगौड़ा लालू को पसंद नहीं करते थे. उन्होंने एक प्रसंग में लिखा है, "मुझे पता चला कि लालू प्रसाद यादव पीएम निवास पर ढाई घंटे तक बैठे रहे थे जब तक कि देवगौड़ा ने सीबीआई डायरेक्टर को वहां नहीं बुलवा लिया था."
कई राजनीतिक विश्लेषक यह भी मानते हैं कि लालू प्रसाद यादव की नाराज़गी की क़ीमत के चलते ही देवगौड़ा को प्रधानमंत्री पद गंवाना पड़ा था. चारा घोटाले की जांच को लेकर लालू यादव शरद यादव के साथ कई बार देवगौड़ा से मिल चुके थे लेकिन उन्हें लग रहा था कि हमारा ही प्रधानमंत्री हमारे काम नहीं आ रहा है.
देवगौड़ा की मुश्किल तब बढ़ गई जब कांग्रेस में नरसिम्हा राव की जगह सीताराम केसरी का दौर शुरू हुआ था. लालू प्रसाद यादव और सीताराम केसरी की आपस में बहुत बनती थी, लालू सार्वजनिक तौर पर उन्हें चाचा केसरी कहते थे.
सीताराम केसरी के संयुक्त मोर्चा सरकार से समर्थन वापस लेने की वजहों पर प्रेम कुमार मणि कहते हैं, "देवगौड़ा को प्रधानमंत्री के तौर पर देख कर कई लोगों के मन में प्रधानमंत्री का ख्याल उस दौर में आ रहा था और सीताराम केसरी भी उनमें एक थे."
अपनी आत्मकथा में इंद्र कुमार गुजराल ने लिखा कि निजी बातचीत में कभी सीताराम केसरी ने टॉप पोस्ट के लिए इच्छा नहीं जताई थी. लेकिन देवगौड़ा सरकार से समर्थन वापसी के बाद उन्होंने सरकार बनाने की दिलचस्पी ज़रूर दिखाई थी, हालांकि उन्हें कोई कामयाबी नहीं मिली.
देवगौड़ा की जगह संयुक्त मोर्चा ने इंद्र कुमार गुजराल को प्रधानमंत्री बनाया, गुजराल को भी लालू प्रसाद यादव की पसंद बताया गया था पर उनके शासन में भी सीबीआई का शिकंजा लालू प्रसाद पर कसता गया.
ऐसी एक दोपहर सीबीआई के प्रमुख जोगिंदर सिंह ने मीडिया चैनलों को इंटरव्यू देते हुए कहा, "हमलोगों के पास जो सबूत है उसके आधार पर हम बिहार के मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव के ख़िलाफ़ चार्जशीट दाख़िल करेंगे. हम उसकी प्रक्रिया पूरी कर रहे हैं."
लालू ने जब किया पीएम गुजराल को फ़ोन
वरिष्ठ राजनीतिक पत्रकार संकर्षण ठाकुर ने अपनी पुस्तक 'द ब्रदर्स बिहारी' मे लिखा है, "लालू प्रसाद यादव उस दिन सुबह सुबह अपने परिवार के साथ एक आयोजन में अपने गांव निकल गए थे. वापस घर लौटने के बाद जब उन्होंने टीवी खोला तो दिन की सबसे बड़ी ख़बर पर नज़र जाते ही वे भड़क गए. उन्होंने प्रधानमंत्री इंद्र कुमार गुजराल को फ़ोन करके कहा, क्या हो रहा है ये सब? ये सब क्या बकवास करवा रहे हैं? एक पीएम को हटाकर आपको बनवाया और आप भी वही काम कर रहे हैं."
संकर्षण ठाकुर के मुताबिक़, लालू प्रसाद यादव ने 27 अप्रैल, 1997 की उस रात को संयुक्त मोर्चा के तमाम बड़े नेताओं यानी चंद्रबाबू नायडू, ज्योति बसु, इंद्रजीत गुप्ता और शरद यादव को फ़ोन किया था, और सबने उनसे यही कहा कि अगर चार्जशीट दाख़िल होती है तो मुख्यमंत्री पद से इस्तीफ़ा देना चाहिए.
इस घटना का ज़िक्र इंद्र कुमार गुजराल ने अपनी आत्मकथा मैटर्स ऑफ़ डिसक्रिएशन में भी किया है, उन्होंने लिखा है, "जब लालू प्रसाद यादव का फ़ोन आया तो मैंने कहा कि मुझे भी अभी कुछ मिनट पहले ही इसकी जानकारी मिली है. मैं फ़ोन रखता तब तक लालू प्रसाद के सहयोगी प्रेमचंद गुप्ता और उनके वकील कपिल सिब्बल आ गए."
गुजराल ने लिखा है कि उन्हें प्रधानमंत्री बने एक ही सप्ताह हुआ था और ना तो उन्होंने इस घोटाले के बारे में कुछ देखा था और ना ही पदभार संभालने के बाद वे सीबीआई के किसी अधिकारी से मिले थे. उन्होंने यही बात प्रेमचंद्र गुप्ता और कपिल सिब्बल के सामने दोहरा दी.
लालू प्रसाद यादव पर क़ानून का शिकंजा कसता जा रहा था और उनके साथी उनका साथ छोड़ते जा रहे थे. आख़िर में 17 जून, 1997 को बिहार के राज्यपाल एआर किदवई ने लालू प्रसाद यादव के ख़िलाफ़ चार्जशीट दाख़िल करने की अनुमति दे दी. जिसके बाद भी लालू प्रसाद यादव ये दोहराते रहे है कि उन्हें साज़िश का शिकार बनाया जा रहा है और वे बिहार के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफ़ा नहीं देंगे.
पार्टी वरिष्ठ नेता शिवानंद तिवारी कहते हैं, "जिस तरह से सेलेक्टिव होकर लालू को फंसाया गया और जिस तरह से उन्हें एक ही मामले में कई बार सज़ा दी जा रही है, यह सब लोग समझ रहे हैं. ये मैं इसलिए नहीं कह रहा हूं कि मैं आज लालू के साथ हूं, बल्कि इसलिए कह रहा हूं क्योंकि ये सब होते हुए मैंने नज़दीक से देखा है."
जनता दल के लोगों ने भी छोड़ा साथ
उनकी इस ज़िद से संयुक्त मोर्चा सरकार के सामने भी संकट बढ़ रहा था, इस मुद्दे पर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टियों ने इंद्र कुमार गुजराल पर दबाव बनाना शुरू किया कि वे लालू प्रसाद यादव का इस्तीफ़ा करवाएं.
राज्य के राज्यपाल की अनुमति के बाद जनता दल के अंदर से भी लालू प्रसाद यादव के ख़िलाफ़ विरोध की आवाज़ आने लगी थी. राम विलास पासवान और शरद यादव ने उनके इस्तीफ़े की मांग की. नहीं तो गुजराल पर लालू यादव की सरकार बर्ख़ास्त करने का दबाव बढ़ रहा था.
इन सबके बीच आख़िर में जनता दल के अध्यक्ष पद का चुनाव आ गया और पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष शरद यादव ने लालू प्रसाद यादव को चुनौती दे दी.
लालू प्रसाद ने अपनी पुस्तक 'राजनीतिक यात्रा गोपालगंज टू रायसीना' में राष्ट्रीय जनता दल के गठन की वजह बताते हुए कहा है, "जुलाई, 1997 में पार्टी के अध्यक्ष पद का चुनाव होना था. मैं नहीं समझ पाया कि आख़िर शरद जी ने किन वजहों से आख़िरी समय में अध्यक्ष पद की दौड़ में कूदने का फ़ैसला लिया. मैं अपने नेतृत्व में पार्टी को जीत दिला रहा था, बिहार में दूसरी बार सरकार बन गई थी, केंद्र में सरकार थी, उन्हें मेरा साथ देना था कि लेकिन उनकी महत्वाकांक्षा पार्टी अध्यक्ष पद पर मुझे हटाकर काबिज़ होने की हो गई. यहां मेरा धैर्य ख़त्म हो गया और मैंने सोच लिया कि अब काफ़ी हो गया है."
इस चुनाव के लिए लालू प्रसाद यादव ने अपने सहयोगी रघुवंश प्रसाद सिंह को निर्वाचन अधिकारी बनाया था, शरद यादव इसके ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट चले गए और सुप्रीम कोर्ट ने रघुवंश प्रसाद सिंह को हटाकर मधु दंडवते को निर्वाचन अधिकारी बना दिया.
पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष रहते हुए शरद यादव ने पार्टी की कार्यकारिणी में अपने समर्थकों की संख्या इतनी कर ली थी कि लालू प्रसाद यादव को अंदाज़ा हो गया था कि अगर वे चुनाव लड़ेंगे तो उनकी हार होगी.
गुजराल के घर डिनर पार्टी
संकर्षण ठाकुर ने अपनी किताब में लिखा है, "चार जुलाई को आईके गुजराल ने अपने घर पर सभी सहयोगी दलों के नेताओं को खाने पर बुलाया था. लालू उस पार्टी में शामिल हुए थे. उन्होंने पार्टी में ही गुजराल से कहा कि आप शरद यादव से कहिए वे चुनाव से हट जाएं, मैं पार्टी नहीं तोड़ूंगा. लेकिन इंद्र कुमार गुजराल ये प्रस्ताव शरद यादव से कहने की स्थिति में भी नहीं थे."
संकर्षण ठाकुर ने यह भी लिखा है कि लालू प्रसाद यादव ने गुजराल को दूसरा प्रस्ताव भी दिया कि वे मुख्यमंत्री पद से इस्तीफ़ा दे देंगे लेकिन अध्यक्ष पद नहीं छोड़ेंगे. हालांकि तब तक यह तय हो चुका था कि उन्हें मुख्यमंत्री पद से देर सबेर इस्तीफ़ा देना ही पड़ेगा.
इस रात के बाद अगली सुबह पांच जुलाई को बिहार सदन में लालू प्रसाद यादव ने राष्ट्रीय जनता दल के गठन का एलान कर दिया था. उनके नेतृत्व में पार्टी के 22 सांसदों में 16 सांसद शामिल हुए और छह राज्यसभा के सांसदों ने भी लालू प्रसाद यादव के नेतृत्व को स्वीकार कर लिया.
लालू प्रसाद यादव ने अपनी पार्टी का नाम रखा था, राष्ट्रीय जनता दल. इस नाम का सुझाव भी उन्हें समाजवादी राजनीति के कद्दावर नेता रहे रामकृष्ण हेगड़े ने दिया था. इसका ज़िक्र लालू प्रसाद ने अपनी किताब गोपालगंज टू रायसीना में किया है. यहां यह जानना दिलचस्प है कि लालू ने जनता दल अध्यक्ष रहते हुए देवगौड़ा के कहने पर रामकृष्ण हेगड़े को जनता दल से निकाल दिया था.
इस वाक़ये का ज़िक्र लालू प्रसाद यादव पर लिखी शोध परक किताब 'दि किंग मेकर- लालू प्रसाद यादव की अनकही दास्तां' में राष्ट्रीय जनता दल की बिहार कार्यकारिणी के सदस्य जयंत जिज्ञासु ने किया है. उन्होंने लिखा है, "प्रधानमंत्री बन जाने के बाद देवगौड़ा ने जो पहला काम किया वो जनता परिवार के पुराने नेता और कर्नाटक के मुख्यमंत्री रहे राम कृष्ण हेगड़े को निकलवाने का काम किया. उन्होंने लालू प्रसाद यादव से कहा कि बॉस हमको ये आदमी ठीक से सरकार नहीं चलाने देगा, इसके आदमी मेरे ख़िलाफ़ कुचक्र रच रहे हैं. लालू प्रसाद यादव ये मानते हैं कि उनसे ये पाप हुआ."
ऑरिजनल पार्टी होगी
बहरहाल पार्टी के गठन के बाद पहले ही प्रेस कांफ्रेंस में लालू प्रसाद यादव से मीडिया ने पहला सवाल यही पूछा था कि क्या आपकी पार्टी नेशनल पार्टी होगी? जब लालू प्रसाद यादव पूछा गया था तब प्रेम कुमार मणि समता पार्टी के साथ थे, इन दिनों वे राष्ट्रीय जनता दल के उपाध्यक्ष हैं. वे याद करते हैं, "हमलोगों ने टीवी पर देखा था कि उन्होंने बहुत छोटा जवाब दिया था कि ऑरिजनल पार्टी होगी."
उस दौर में लालू प्रसाद यादव का गुजराल पर कितना असर था या राजनीतिक तौर पर गुजराल लालू प्रसाद यादव के एहसानों तले थे कि उन्होंने सरकार में शामिल राष्ट्रीय जनता दल के तीन मंत्रियों को नहीं हटाया. राष्ट्रीय जनता दल संयुक्त मोर्चा सरकार का हिस्सा नहीं था, लेकिन उनकी पार्टी के तीन मंत्री रघुवंश प्रसाद सिंह, कांति सिंह और जय नारायण निषाद सरकार में बने रहे.
इसकी एक बड़ी वजह तो यही कही जाती है कि लालू प्रसाद यादव ने इंद्र कुमार गुजराल को राज्यसभा में बिहार से भिजवाया था. इसी वजह से जब उन्होंने इसी दौर में सीबीआई के प्रमुख जोगिंदर सिंह को पद से हटाया तो यह भी कहा गया कि उन्होंने लालू प्रसाद यादव को संतुष्ट करने के लिए ऐसा किया था.
लालू प्रसाद यादव के सामने क्या अपनी ही पार्टी को तोड़ कर अलग रास्ता चुनने का कोई विकल्प नहीं बचा था, इस बारे में पूछे जाने पर पार्टी के उपाध्यक्ष तनवीर हसन बताते हैं, "कोई विकल्प नहीं बचा था, लालू प्रसाद यादव के पास इतना बड़ा जनाधार था, लेकिन साज़िश करके उनको फंसाया गया. लालू प्रसाद यादव को फंसाने का खेल कोई 1996-97 में अचानक नहीं आया. उनकी राजनीति को ख़त्म करने की कोशिशें तभी से शुरू हो गईं जब उन्होंने राम रथ यात्रा के ख़िलाफ़ स्टैंड लेकर लाल कृष्ण आडवाणी को गिरफ़्तार कर लिया था."
शिवानंद तिवारी इससे सहमति जताते हुए कहते हैं, "लालू ने जो स्टैंड ब्राह्मणवाद के ख़िलाफ़ लिया, जो स्टैंड बीजेपी और आरएसएस के ख़िलाफ़ लिया, उस स्टैंड की क़ीमत उन्हें चुकानी पड़ रही है."
लेकिन लालू प्रसाद यादव के पांच जुलाई, 1997 को पार्टी का गठन करने से ज़्यादा लोग उस समय अचरज में पड़ गए जब 24 जुलाई, 1997 को उन्होंने दुनिया को चौंकाते हुए अपनी पत्नी राबड़ी देवी को बिहार का मुख्यमंत्री बनवा दिया. बिहार को इसके साथ ही पहली महिला मुख्यमंत्री मिली, लेकिन लालू प्रसाद यादव की इस रणनीतिक फ़ैसले की ख़ूब आलोचना हुई. लेकिन इस बहाने सरकार की कमान लालू प्रसाद यादव के हाथों में ही बनी रही. 30 जुलाई, 1997 को उन्होंने चारा घोटाले मामले में सरेंडर किया और उसके बाद उन पर क़ानूनी कार्रवाइयों का दौर चलता रहा.
पार्टी के तौर पर राष्ट्रीय जनता दल ने भी इस सफ़र में तमाम उतार चढ़ाव देखे. साल 2000 में राबड़ी देवी थोड़े कम बहुमत के साथ सरकार में वापसी करने में कामयाब हुईं. लेकिन तब तक लालू प्रसाद के दो साले साधु यादव और सुभाष यादव की पार्टी में चलने लगी थी.
2004 में लालू प्रसाद केंद्र की यूपीए सरकार में रेल मंत्री बने और उनके सहयोगी रघुवंश प्रसाद सिंह ग्रामीण विकास मंत्रालय के मंत्री बने.
राज्य में 15 साल के शासन में सामाजिक न्याय की तस्वीर बेहतर ज़रूर हुई थी लेकिन अव्यवस्था और अपराध का बोलबाला बढ़ गया था, इन सबके चलते भारतीय जनता पार्टी के साथ मिलकर नीतीश कुमार ने 2005 में राजद को बाहर का रास्ता दिखाया.
महागठबंधन ने दिखाई ताक़त
2009 के लोकसभा चुनाव में लालू प्रसाद यादव की पार्टी महज़ चार सांसदों तक सिमट गई. 2010 के विधानसभा चुनाव में पार्टी की क़रारी हार हुई. जब लालू प्रसाद यादव की राजनीतिक रूप से ख़त्म होने की चर्चा होने लगी थी तब उन्होंने नीतीश कुमार के साथ हाथ मिलाकर नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता और बीजेपी के संसाधनों को 2015 में रोक दिया.
नीतीश कुमार महागठबंधन के मुख्यमंत्री बने लेकिन 20 महीने बाद उन्होंने फिर से पाला बदल लिया. चारा घोटाले के मामले में सज़ा मिलने के बाद लालू प्रसाद यादव की संसद सदस्यता चली गयी और सक्रिय राजनीति में वे हिस्सा नहीं ले सकते थे. पहले पत्नी और फिर बेटे को राजनीति में लाने के चलते लालू प्रसाद यादव पर परिवारवाद के आरोप लगते रहे हैं.
950 करोड़ रुपये के चारा घोटाले में कुल 64 मामले दर्ज हुए थे और इनमें छह में लालू प्रसाद भी अभियुक्त बनाए गए.
इसके एक मामले, चाईबासा में 37.7 करोड़ रुपये की निकासी और उसमें धांधली के आरोप में लालू दोषी क़रार दिए गए, उन्हें पांच साल की सज़ा मिली थी, इसी सज़ा के चलते ही चुनावी गतिविधियों में हिस्सा लेने पर पाबंदी लग गई.
तनवीर हसन बताते हैं, "हमारी पार्टी को लोग कई तरह से आंकते हैं. लेकिन लालू प्रसाद यादव और हमारी पार्टी केवल दो पहियों पर चल रही है, सामाजिक न्याय और सांप्रदायिक सद्भाव. इन दोनों मुद्दों पर लालू प्रसाद यादव ने बीते 25 साल में कोई समझौता नहीं किया. यही हमारी पार्टी की ताक़त है और यही पूंजी भी है."
ऐसे में पार्टी के सामने अस्तित्व का संकट ज़रूर आया लेकिन उनके छोटे बेटे तेजस्वी यादव ने 2020 के विधानसभा चुनाव के दौरान अकेले नेतृत्व करते हुए राज्य में पार्टी को सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर स्थापित कर दिखाया. हालांकि उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती पार्टी की छवि को ठीक करने और जातिगत समीकरणों के हिसाब से सामाजिक दायरा बढ़ाने की है.
तनवीर हसन कहते हैं, "तेजस्वी इन सब चुनौतियों को बखूबी समझ रहे हैं और पार्टी उन सब पर काम कर रही है." वहीं पार्टी के युवा नेता जयंत जिज्ञासु कहते हैं कि हमारी पार्टी के सांगठनिक चुनाव में दलितों- आदिवासियों को 17 फ़ीसदी और अति पिछड़ों के लिए 28 फ़ीसदी आरक्षण की व्यवस्था की गई और यह बताता है कि पार्टी ग़रीब-गुरबों की पार्टी बनी हुई है.
वरिष्ठ राजनीतिक पत्रकार जयशंकर गुप्ता कहते हैं कि लालू प्रसाद यादव के बेटे तेजस्वी यादव ने अब तक तो राजनीतिक तौर पर परिपक्वता दिखाई है लेकिन उनके सामने असली चुनौती पारिवारिक कुनबे को एकजुट रखने की होगी, वे इसमें कितना कामयाब होते हैं, इस बात पर ही राष्ट्रीय जनता दल का भविष्य निर्भर होगा.
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