कारगिल युद्धः आख़िर पाकिस्तान को इस युद्ध से क्या हासिल हुआ?
भारत और पाकिस्तान के बीच हुए कारगिल युद्ध पर कई किताबें लिखी गई हैं, जिनमें उन पहलुओं का जिक्र है, जो आम लोगों को मालूम नहीं हैं.
पाकिस्तानी पत्रकार नसीम ज़हरा की किताब "फ्रॉम कारगिल टू द कॉपः इवेंट्स डैट शूक पाकिस्तान" उनमें से एक है.
युद्ध के 20 साल होने पर बीबीसी संवाददाता शुमाइला जाफरी ने नसीम ज़हरा से उनके किताब और उसमें जिक्र कुछ घटनाक्रमों पर बात की थी. आज कारगिल युद्ध के 22 साल पूरे हो गए हैं.
नसीम ज़हरा ने कहा कि शुरुआत में पाकिस्तान की योजना भारत प्रशासित कश्मीर में पहाड़ की कुछ चोटियों पर कब्ज़ा करने और फिर श्रीनगर-लेह राजमार्ग को बंद करने की थी.
इस सड़क को बंद करना पाकिस्तान की प्रमुख रणनीतियों में शामिल था क्योंकि यह एकमात्र रास्ता था जिससे भारत कश्मीर में तैनात सैनिकों को सैन्य हथियार भेजता था.
नसीम के मुताबिक कारगिल हमले की योजना बना रहे पाकिस्तानी जनरलों का मानना था कि हालात बिगड़ेंगे और भारत कश्मीर विवाद पर बातचीत के लिए मजबूर होगा, लेकिन जिस तरह से पाकिस्तानी सैनिक लड़ रहे थे, वो दुनिया के आठवां अजूबा से कम नहीं थे.
वो कहती हैं कि "कारगिल के बारे में दिलचस्प बात यह है कि पाकिस्तानियों को इस पर गर्व हो सकता है और दुख भी. जिस तरह से युवा सैनिकों को वहां (कारगिल) भेजा गया था, जिस कड़ाके की ठंड में वे वहां पहुंचे थे और जिन परिस्थितियों में उन्होंने बहादुरी से लड़ाई लड़ी, वो गर्व की वजह है, लेकिन सवाल यह भी उठता है कि उन्हें वहां क्यों भेजा गया?"
नसीम ज़हरा का कहना है कि "पाकिस्तान सेना ने शुरू में भारतीय बलों को भारी नुकसान पहुंचाया. भारतीय सेना को भी नहीं पता था कि क्या हुआ. और भारतीय जनरल कह रहे थे कि वे उन्हें (पाकिस्तानी सैनिकों को) कुछ ही घंटों में या कुछ दिनों में अपने इलाक़े से बाहर निकाल फेकेंगे."
नसीम ज़हरा के अनुसार शुरू में पाकिस्तानी सेना और लड़ाकों को यह फ़ायदा हुआ कि वे पहाड़ों की चोटियों पर बैठे थे और ऊपर से भारतीय सैनिकों पर हमला करना बहुत आसान था, लेकिन बाद में स्थिति बदल गई.
हालांकि नसीम ज़हरा के इन दावों पर पर पाकिस्तानी सैन्य अधिकारियों की तरफ़ से कोई प्रतिक्रिया नहीं मिल पाई है.
बड़ी भूल
नसीम ज़हरा का कहना है कि जब भारतीय सेना ने धीरे-धीरे महसूस किया कि क्या हुआ है तो उसने बोफ़ोर्स तोपें मंगवाई, जिन्हें आमतौर पर इस तरह के ऑपरेशन में इस्तेमाल नहीं किया जाता है.
"यदि आप पूछते हैं कि कारगिल युद्ध को किस चीज ने बदल दिया तो वह है बोफ़ोर्स तोपें. भारतीय सैनिकों ने उन्हें उसी श्रीनगर-लेह राजमार्ग पर तैनात किया, जिसे पाकिस्तान बंद करना चाहता था. बोफ़ोर्स तोपों ने पहाड़ की चोटियों को छोटे-छोटे टुकड़ों में बदल दिया और भारतीय वायु सेना ऊपर से लगातार बमबारी कर रही थी. इस तथ्य की पुष्टि दोनों देशों ने की है."
नसीम ज़हरा ने कहा कि कारगिल की पहाड़ियों से नीचे उतरने पर भी पाकिस्तान को भारी नुकसान उठाना पड़ा था.
"उनके लौटने के लिए कोई सड़क या फिर वाहन मार्ग नहीं थे, न ही वे एक दोस्ताना वातावरण में वापस लौट रहे थे. पहाड़ों की 16 से 18 हज़ार फीट की ऊंचाई से लौटना बहुत मुश्किल था. कई खाइयों को पार करना होता था और ऊपर से भीषण ठंड थी. जब भारतीयों को मौका मिला तो उन्होंने इसका फ़ायदा उठाया और जमकर जवाबी कार्रवाई की. युद्ध बहुत कम समय के लिए लेकिन यह भीषण तरीके से लड़ा गया था."
नसीम ज़हरा का कहना है कि भारत ने कारगिल में अपनी वायुसेना का अच्छी तरह से इस्तेमाल किया, लेकिन पाकिस्तानी ने इसमें देरी कर दी. वो कहती हैं कि कारगिल में कितने लोग मारे गए, यह अभी तक स्पष्ट नहीं है.
"कुछ लोग कहते हैं कि तीन सौ मारे गए, कुछ लोग इसे दो हज़ार बताते हैं, लेकिन दो हज़ार की संख्या में सैनिक शायद वहां नहीं गए थे. जब मैंने सेना के लोगों से इस बारे में बात की तो उनका कहना था कि इतनी बड़ी संख्या में लोग नहीं मारे गए. यह एक बहुत बड़ी भूल थी."
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कारगिल-सियाचिन का मुद्दा
नसीम ज़हरा का यह भी कहना है कि कारगिल की योजना कई सालों से विचाराधीन थी, लेकिन इसे 1999 में पूरा किया गया.
"यह योजना जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ ने बेनजीर भुट्टो के सामने पेश किया था. उन्होंने इससे इनकार कर दिया. इससे पहले जनरल जियाउल हक़ के समय में भी इस पर बात हुई थी."
नसीम ज़हरा के अनुसार कश्मीर मुद्दा कारगिल ऑपरेशन की प्रमुख वजह थी. इसके अलावा सियाचिन का मुद्दा भी प्रमुख कारणों में से एक था.
चार जनरलों ने दिया युद्ध को अंजाम
नसीम ज़हरा का कहना है कि कारगिल युद्ध को पाकिस्तान के चार जनरलों ने मिल कर अंजाम दिया था.
उनके मुताबिक चार जनरलों में तत्कालीन सेना प्रमुख जनरल परवेज मुशर्रफ, मेजर जनरल जावेद हसन, जनरल अजीज ख़ान और जनरल महमूद अहमद शामिल थे. सेना का शीर्ष नेतृत्व इस ऑपरेशन से अनजान था.
नसीम ज़हरा के मुताबिक नियंत्रण रेखा पर चारों जनरल तैनात थे. वो कश्मीर मुद्दे को लेकर भावुक थे. उनका मानना है कि कारगिल युद्ध के लिए इन चारों जनरलों ने चुनी हुई सरकार से औपचारिक इजाज़त के बिना ही इसे अंज़ाम दे दिया था. यह नियमों का एक तरह से उल्लंघन था.
फ़रवरी 1999 में नवाज़ शरीफ और अटल बिहारी वाजपेयी के बीच लाहौर में एक समझौता हुआ था जिसके मुताबिक दोनों देशों ने बातचीत के जरिए एक नए रिश्ते की शुरुआत करने की प्रतिबद्धता दिखाई थी.
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'कश्मीर का विजेता बनिए'
नसीम ज़हरा के मुताबिक सैनिकों के नियंत्रण रेखा पार करने के हफ़्तों बाद 17 मई 1999 को की गई ब्रीफिंग के दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ ने कारगिल ऑपरेशन के बारे में जाना.
नसीम ज़हरा बताती हैं, "उस समय के विदेश मंत्री सरताज अज़ीज़ ने स्थिति को समझा कि हमारी सेना के कुछ जवानों ने नियंत्रण रेखा को पार कर लिया था. उन्होंने पीएम को इस बारे में बताया और कहा कि प्रधानमंत्री जी हम भारत से बात कर रहे थे."
वो बताती हैं, "ये बातें लाहौर शिखर सम्मेलन के बाद हो रही थी."
लेकिन नसीम ज़हरा के मुताबिक शुरू में नवाज़ शरीफ़ को सच में यह विश्वास था कि सेना इस ऑपरेशन के साथ कश्मीर मुद्दे को हल करने में सफल हो सकती थी.
"सरताज अज़ीज ने समझाया कि अंतरराष्ट्रीय ताकतें, ख़ास कर संयुक्त राष्ट्र इसे स्वीकार नहीं करेगा और अमरीका हमेशा भारत का साथ देगा. जिस पर नवाज़ शरीफ़ ने कहा कि नहीं सरताज साहब हम बैठकों और फाइलों के आदान-प्रदान करके कभी भी कश्मीर को हासिल नहीं कर सकते हैं."
"तब जनरल अज़ीज़ ख़ान ने नवाज़ शरीफ से कहा कि कायदे-आज़म मुहम्मद अली जिन्ना ने पाकिस्तान बनाया, अब आपका मौका है, आप कश्मीर का विजेता बनिए."
रिश्ते बेहतर हो रहे थे पर...
नसीम ज़हरा का कहना है कि भारत और पाकिस्तान के बीच संबंध बेहतर हो रहे थे, लेकिन उसी वक़्त जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ ने कारगिल युद्ध को अंजाम दे दिया.
"वाजपेयी पाकिस्तान आए थे और पाकिस्तान ने भारत के प्रधानमंत्री का शानदार स्वागत किया था, वो बातचीत करने आए थे और यह चल भी रही थी. बाद में जनरल मुशर्रफ़ ने भारत से कई बार बातचीत का अनुरोध किया. भारत को बातचीत के मेज पर लाने के लिए उन्हें घुटनों के बल भारत भी जाना पड़ा."
नसीम उन्हें ग़लत मानती हैं जो लोग यह कहते हैं कि इस युद्ध से कश्मीर के मामले में पाकिस्तान को फ़ायदा पहुंचा.
"तथ्य इस बात का समर्थन नहीं करते हैं. तथ्यों के मुताबिक यह एक ऐसी ग़लत चाल थी कि पाकिस्तान को सालों तक बातचीत की प्रक्रिया फिर से शुरू करने की कोशिश करनी पड़ी. भले ही भारत ने 1971 और सियाचिन किया हो पर कारगिल युद्ध का पाकिस्तान का फ़ैसला बहुत गैर ज़िम्मेदाराना था. इसने पाकिस्तान की छवि को नुकसान पहुंचाया."
हालांकि नसीम ज़हरा का मानना है कि कोई भी नुकसान या लाभ स्थायी नहीं होता है. देशों को अपनी नीतियों की समीक्षा करने का अवसर मिलते हैं.
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