तालिबान जहां-जहां जा रहा है भारत भी उन देशों से क्यों संपर्क कर रहा है?
- दिलनवाज़ पाशा
- बीबीसी संवाददाता, दिल्ली
अफ़ग़ानिस्तान में हाल के दिनों में जिस तरह तालिबान का क़ब्ज़ा नए इलाक़ों पर हो रहा है उसे लेकर भारत के राजनयिक हलकों में चिंता है.
भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर के गुरुवार की ईरान यात्रा को इसी से जोड़कर देखा जा रहा है. एस जयशंकर ने तेहरान में नव-निर्वाचित राष्ट्रपति इब्राहिम रईसी से मुलाक़ात की और उन्हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का संदेश भी दिया.
जिस दिन भारतीय विदेश मंत्री तेहरान में थे उसी दिन अफ़ग़ानिस्तान सरकार और तालिबान का एक प्रतिनिधि मंडल भी वहां मौजूद था. जयशंकर बाद में जब रूस पहुंचे तो वहां भी तालिबान के नुमाइंदे मौजूद थे. हालांकि भारत की तरफ़ से इस मामले पर किसी तरह का आधिकारिक बयान नहीं आया है.
मीडिया में पहले भी भारत और तालिबान में अनौपचारिक बातचीत की ख़बरें आती रही हैं लेकिन भारत ने इसका खंडन किया है. विश्लेषकों का मानना है कि भारत ऐसा कुछ कारणों से कर रहा है.
अमेरिका की डेलावेयर यूनिवर्सिटी में अंतरराष्ट्रीय मामलों के प्रोफ़ेसर मुक़तदर ख़ान कहते हैं, "तालिबान से बैक-चैनल बातचीत करने की भारत की अपनी वजहें हैं, इसमें ख़ासतौर पर कश्मीर का मामला है ताकि अफ़ग़ानिस्तान में जो हो रहा है उसका असर वहां न पहुंचे."
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कैसे हैं अफ़ग़ानिस्तान के मौजूदा हालात?
तालिबान ने दावा किया है कि अगर वो चाहे तो दो हफ्तों में पूरे मुल्क पर कब्ज़ा कर सकता है. फ़िलहाल माना जा रहा है कि अफ़ग़ानिस्तान के एक तिहाई हिस्से पर इस चरमपंथी संगठन का क़ब्ज़ा हो चुका है.
अफ़ग़ानिस्तान में काम कर चुके विदेशी फौजों के जनरल ने कहा है कि मुल्क में जो स्थिति तैयार हो रही है वो गृह युद्ध की तरफ इशारा कर रही है.
मुक़तदर ख़ान कहते हैं कि 'तालिबान चीन की सीमा तक पहुंच गया है. वो भारतीय कश्मीर में ख़तरा पैदा कर सकते हैं, पाकिस्तान का तालिबानीकरण कर सकते हैं, ईरान भी इस ख़तरे से दूर नहीं. तालिबान के सत्ता में आने से पाकिस्तान, ईरान, चीन और भारत में चिंता बढ़ेगी. आने वाले कुछ महीनों में हम इन मुल्कों के रिश्तों को नई तरह से परिभाषित होते देख सकते हैं.'
ईरान की अफ़ग़ानिस्तान में भूमिका
ईरान और अफ़ग़ानिस्तान के बीच 945 किलोमीटर लंबी सीमा है. एक दिन पहले ही तालिबान ने इस्लाम क़लां इलाक़ों पर क़ब्ज़ा कर लिया है, जो ईरान की सीमा के पास है.
शिया बहुल ईरान ने यूं तो कभी तालिबान का खुला समर्थन नहीं किया है लेकिन उसने कभी-कभी सुन्नी चरमपंथी संगठन तालिबान और अफ़ग़ानिस्तान सरकार के प्रतिनिधियों के बीच शांति वार्ता की मेज़बानी की है.
ईरान ऐतिहासिक तौर पर अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका की मौजूदगी का विरोध करता रहा है और इसे अपनी सुरक्षा के लिए ख़तरा मानता रहा है.
पिछले सप्ताह अफ़ग़ानिस्तानी सरकार और तालिबान के प्रतिनिधियों के बीच तेहरान में हुई वार्ता के बाद ईरान ने कहा है कि 'अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका की नाकामी के बाद ईरान वहां जारी संकट को सुलझाने के लिए प्रतिबद्ध है.'
अफ़ग़ानिस्तान में भारत
भारत अफ़ग़ानिस्तान सरकार का समर्थक है और तालिबान को लेकर आशंकित रहा है. भारत ने साल 2002 के बाद से अफ़ग़ानिस्तान में क़रीब तीन अरब डॉलर का निवेश किया है. उसके हित सुरक्षा और अर्थव्यवस्था दोनों से जुड़े हैं.
भारत को आशंका है कि यदि अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान का प्रभाव बढ़ता है तो कश्मीर में हालात प्रभावित हो सकते हैं.
तालिबान के एक धड़े पर पाकिस्तान का भारी प्रभाव है. यदि अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान की पकड़ मज़बूत होती है तो भारत के लिए स्थिति अच्छी नहीं होगी. तालिबान के एक प्रमुख समूह हक्क़ानी नेटवर्क ने अफ़ग़ानिस्तान में भारतीय निवेश को पहले बार-बार निशाना बनाया है.
अमेरिका के नेतृत्व वाली नेटो सेना की वापसी के बाद अफ़ग़ानिस्तान में भारत को अपनी प्राथमिकताएं बदलनी पड़ सकती हैं.
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में अंतरराष्ट्रीय मामलों की प्रोफ़ेसर स्वास्ति राव कहती हैं, "भारत ने अफ़ग़ानिस्तान में काफी निवेश किया है. भारत ने वहां 7200 किलोमीटर के नॉर्थ-साउथ कॉरिडोर में निवेश किया है जो ईरान से लेकर रूस तक जाएगा. यदि वहां के सुरक्षा हालात बिगड़ते हैं तो ये सब खटाई में पड़ जाएगा."
भारत का सधा हुआ क़दम
विश्लेषकों का मानना है कि भारत अफ़ग़ानिस्तान को लेकर सक्रिय है और सधे हुए क़दम उठा रहा है.
तुर्की के अंकारा में इल्द्रिम बेयाज़ित यूनिवर्सिटी में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर ओमैर अनस कहते हैं, "विदेश मंत्री के ईरान जाने का अपना महत्व है. ईरान डरा हुआ है कि कहीं अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान का पूर्ण नियंत्रण न हो जाए. ईरान ये भी नहीं चाहेगा कि अफ़ग़ानिस्तान एक नए गृहयुद्ध में घिर जाए. ऐसे में अफ़ग़ानिस्तान को लेकर भारत और ईरान के हित एक जैसे हैं. दोनों इस मामले में कई स्तर पर सहयोग कर सकते हैं."
पूर्व में भारत अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका के साथ तो सक्रिय था लेकिन ईरान और रूस के साथ उसका ऐसा गठजोड़ नहीं था.
अनस कहते हैं, "जयशंकर के तेहरान पहुंचने से पहले वहां तालिबानी प्रतिनिधिमंडल मौजूद था. वो जब रूस पहुंचे, वहां भी तालिबानी थे. लगता है भारत इस समय ईरान और रूस दोनों के साथ मिलकर अफ़ग़ानिस्तान पर काम कर रहा है. तालिबान के आने की स्थिति में भारत चाहेगा कि ईरान और रूस के साथ मिलकर कोई रास्ता निकाला जाए."
स्वास्ति राव कहती हैं, "भारत सरकार ने अफ़ग़ानिस्तान सरकार से अच्छे रिश्ते बनाए रखे और इन रिश्तों में लंबा निवेश किया. अमेरिका के जाने के बाद वहां एक तरह का शून्य पैदा हो रह है जिससे भारत के हित भी प्रभावित हो सकते हैं. भारत इनकी रक्षा करना चाहता है, इसके लिए वो ईरान और रूस से बात करने की कोशिश कर रहा है."
भारत ईरान का बड़ा तेल ख़रीदार भी रहा है हालांकि अमेरिकी प्रतिबंधों की वजह से उसे 2019 के बाद से उस पर रोक लगानी पड़ी.
ओमैर अनस कहते हैं, "ईरान में नए राष्ट्रपति आए हैं. भारत चाहेगा कि ईरान की नई सरकार के साथ तेल की क़ीमतों पर चर्चा के लिए पहल कर की जाए. बाइडन के आने के बाद से ईरान पर कुछ प्रतिबंध हटने की उम्मीद की जा रही है. भारत इसका फ़ायदा उठाना चाहेगा."
वहीं प्रोफ़ेसर मुक़तदर ख़ान कहते हैं, "अफ़ग़ानिस्तान के नए सुरक्षा हालात में ईरान की भूमिका भी अहम होगी. हालांकि भारत के विदेश मंत्री की ईरान यात्रा के बाद कोई बयान नहीं आया है लेकिन भारत ये संकेत दे रहा है कि अमेरिका की ईरान-विरोधी नीति के बावजूद भारत ईरान के साथ रिश्ते बनाए रखना चाहता है. एक तरह से ये अमेरिका को संकेत है कि अमेरिका और भारत के रिश्ते बेहतर होते रहेंगे लेकिन भारत अपनी विदेश नीति को स्वतंत्र रखेगा और अमेरिका की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ ईरान के साथ संबंध मज़बूत किए जाएगा."
अफ़ग़ानिस्तान में बढ़ता तुर्की का प्रभाव और भारत की भूमिका
अमेरिका की वापसी के बाद अफ़ग़ानिस्तान में तुर्की की भूमिका अहम हो जाएगी. नेटो सदस्य देश तुर्की के हाथ में ही काबुल एयरपोर्ट की सुरक्षा कमान रहेगी. यदि तुर्की की भूमिका अफ़ग़ानिस्तान में बढ़ती है तो इसका असर भारत और तुर्की के रिश्तों पर भी पड़ेगा.
कश्मीर पर तुर्की के बयानों के बाद भारत और तुर्की के रिश्तों में तल्ख़ी आई है. तुर्की भारत के मुकाबले पाकिस्तान के अधिक क़रीब भी है. लेकिन विश्लेषकों का मानना है कि अफ़ग़ानिस्तान के कारण भारत और तुर्की को करीब आना पड़ सकता है.
प्रोफ़ेसर मुक़तदर ख़ान कहते हैं, "तुर्की और भारत के संबंध बहुत अच्छे नहीं हैं लेकिन पाकिस्तान और तुर्की के संबंध ठीक-ठाक हैं. पाकिस्तान अफ़ग़ानिस्तान के गृहयुद्ध में तालिबान के साथ होता है और तुर्की अफ़ग़ान सरकार का साथ देता है तो शायद तुर्की भारत के साथ अपने रिश्ते अच्छे करना चाहे."
ओमैर अनस बताते हैं कि यदि तुर्की, ईरान, रूस और भारत अफ़ग़ानिस्तान को लेकर कोई साझा नीति बनाते हैं तो ज्यादा असरदार होगा.
विश्लेषक मानते हैं कि भारत यदि तुर्की के क़रीब आता है तो भारत के पास पूरे मध्य एशिया में प्रभाव बढ़ाने का मौका होगा.
अफ़ग़ानिस्तान में चीन भी बढ़ाएगा प्रभाव?
हालांकि अफ़ग़ानिस्तान में चीन की सक्रियता स्पष्ट नहीं लेकिन अफ़ग़ानिस्तान में हालात चीन के हितों को भी प्रभावित कर सकते हैं.
चीन ने अपने बेल्ट एंट रोड इनिशिएटिव के तहत पाकिस्तान में चीन-पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडोर में भारी निवेश किया है. अफ़ग़ानिस्तान में गृहयुद्ध की स्थिति में सीपैक को ख़तरा पैदा हो सकता है.
विश्लेषक मानते हैं कि चीन न तो अफ़ग़ानिस्तान सरकार से वार्ता करने में हिचकेगा और ना ही तालिबान से. चीन और पाकिस्तान के रिश्ते बेहद मज़बूत हैं, चीन पाकिस्तान के प्रभाव का इस्तेमाल करके तालिबान पर प्रभाव बनाने की कोशिश कर सकता है और अफ़ग़ानिस्तान में निवेश भी करना चाहेगा.
प्रोफ़ेसर स्वास्ति राव कहती हैं, "ये माना जा रहा है कि देर-सवेर चीन अफ़ग़ानिस्तान में एक मज़बूत प्लेयर बन सकता है. भारत ये मानकर चल रहा है कि भविष्य में अफ़ग़ानिस्तान में चीन की भूमिका हो सकती है, ऐसे में वो वहां प्रभाव रखने वाले देशों से अच्छे संबंध क़ायम कर अपने हितों की सुरक्षा करने की कोशिश कर रहा है."
अफ़ग़ानिस्तान में चीन की सक्रियता का असर मध्य एशिया पर भी पड़ेगा. ये तुर्की के लिए चिंता का विषय है.
तुर्की अफ़ग़ानिस्तान में उज़्बैक और हज़ारा समूहों का समर्थन करता है और तालिबान का प्रभाव रोकना चाहेगा, ऐसे में भारत और वो मिलकर काम कर सकते हैं.
ओमैर अनस कहते हैं, "तुर्की चाहेगा कि पाकिस्तान चीन के ऊपर अपनी निर्भरता कम करे और पश्चिमी देशों के क़रीब आए."
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