Skip to main content

जवाहरलाल नेहरू और मोहम्मद अली जिन्ना में आख़िर दूरी क्यों पनप गई थी?: विवेचना

 


  • रेहान फ़ज़ल
  • बीबीसी संवाददाता 
  • 14 अगस्त 2021
नेहरू और जिन्ना

इमेज स्रोत,GETTY IMAGES

मोहम्मद अली जिन्ना और जवाहरलाल नेहरू दोनों की शख़्सियत अंग्रेज़ीदां थी. दोनों ने लंदन से बैरिस्टर की ट्रेनिंग ली थी. दोनों अपने पालन-पोषण की वजह से अपनी मातृभाषा के मुक़ाबले ब्रिटिश लहजे में अंग्रेज़ी बोलने में ज़्यादा सहज थे.

जिन्ना नेहरू की तरह नास्तिक तो नहीं थे लेकिन उन्हें रात में एक या दो ड्रिंक्स लेने में कोई परहेज़ नहीं था जिसकी इस्लाम में मनाही है. दोनों अभिमानी, ज़िद के पक्के और बहुत जल्दी बुरा मान जाने वाले लोग थे.

दोनों अपने प्रशंसकों से घिरे रहना पसंद करते थे लेकिन इसके बावजूद दोनों एकाकी जीवन जी रहे थे.

मशहूर पत्रकार निसीद हजारी अपनी किताब 'मिडनाइट्स फ़्यूरीज़, द डेडली लेगेसी ऑफ़ इंडियाज़ पार्टिशन' में लिखते हैं, "सत्तर छू रहे जिन्ना जितने दुबले-पतले और कमज़ोर थे, नेहरू उतने ही फुर्तीले थे. पूरी उम्र रोज़ दो पैकेट सिगरेट पीने वाले जिन्ना अक्सर हाँफने लगते थे. जिन्ना की छह फ़ीट की काया का वज़न था मात्र 63 किलो था. एक ज़माने में उनके बालों की तुलना मशहूर अभिनेता सर जेरल्ड डु मौरिए से की जाती थी लेकिन चालीस के दशक के मध्य तक उनके सिर का एक-एक बाल सफ़ेद हो चुका था. नेहरू के बाल समय से पहले झड़ने शुरू हो गए थे और उसे छिपाने के लिए वह गांधी टोपी लगाने लगे थे."

पत्रकार निसीद हजारी की किताब 'मिडनाइट्स फ़्यूरीज़, द डेडली लेगेसी ऑफ़ इंडियाज़ पार्टिशन'

इमेज स्रोत,PENGUIN BOOKS LTD

इमेज कैप्शन,

पत्रकार निसीद हजारी की किताब 'मिडनाइट्स फ़्यूरीज़, द डेडली लेगेसी ऑफ़ इंडियाज़ पार्टिशन'

नेहरू और जिन्ना की विषमता

जिन्ना के व्यक्तित्व में ज़रा भी गर्मजोशी नहीं थी. एक ज़माने में उनकी नज़दीकी दोस्त रहीं सरोजिनी नायडू ने उनके बारे में कहा था, "जिन्ना इतने ठंडे थे कि उनसे मिलते समय आपको कभी-कभी फ़र के कोट की ज़रूरत महसूस होती थी."

एक आँख पर चश्मा (मोनोऑकल) लगाए जिन्ना को लंबी मंत्रणा में जितना मज़ा आता था, नेहरू को उससे उतनी ही नफ़रत थी.

जिन्ना अक्सर अपने प्रतिद्वंदियों की कमियों को भाँपकर उनको झुकने पर मजबूर कर देते थे. किसी भी तरह के सुलह-समझौते को वो तब तक मानने के लिए तैयार नहीं होते थे जब तक उन्हें पहले से ज़्यादा की पेशकश न की जाए.

एक बार उन्होंने नेहरू के बारे में ब्रिटिश लेखक बेवरली निकोल्स से कहा था, "इस जीवन में कुछ भी ऐसा नहीं है जो हम दोनों को जोड़ सके. हमारे नाम, हमारे कपड़े, हमारा खाना सब एक दूसरे से भिन्न हैं. हमारा आर्थिक जीवन, हमारे शैक्षिक विचार, महिलाओं और पशुओं के प्रति हमारी सोच सबमें हम एक दूसरे को चुनौती देते हुए पाए जाते हैं."

नेहरू और जिन्ना

इमेज स्रोत,GETTY IMAGES

जिन्ना से नेहरू का सैद्धांतिक विरोध

पाकिस्तान बनाने का सपना किसी और व्यक्ति ने देखा था लेकिन पाकिस्तान को हमेशा जिन्ना के नाम से जोड़कर देखा गया. जब से मुस्लिम लीग के नेता मोहम्मद अली जिन्ना ने एक मुस्लिम देश की संभावना के बारे में सोचना शुरू किया, जवाहरलाल नेहरू उनके सैद्धांतिक दुश्मन बन गए.

नेहरू ने इस विचार का हमेशा विरोध किया कि मुसलमान और हिंदू एक दूसरे से अलग हैं. उनके लिए हिंदुओं, मुसलमानों, सिखों और ईसाइयों का आपस में मिलना-जुलना ही भारत की असली पहचान थी. उनकी नज़र में भारत अमेरिका की तरह था जिसमें हर अलग संस्कृति को अपने-आप में आत्मसात करने की गज़ब की क्षमता थी.

नेहरू उसूलन इस सोच के ख़िलाफ़ थे कि कोई आधुनिक देश धर्म पर भी आधारित हो सकता था. वो इस सोच को मध्ययुगीन मानते थे.

निसीद हजारी लिखते हैं , "नेहरू की नज़र में यह बहुत बड़ी विडंबना थी कि जिनका मुस्लिम मुद्दों से दूर-दूर का वास्ता नहीं था, जिन्हें बिल्कुल भी दबाया नहीं गया था, वे लोग एक मुस्लिम देश बनाने की वकालत कर रहे थे."

नेहरू और जिन्ना

इमेज स्रोत,GETTY IMAGES

एक दूसरे के ख़िलाफ़ शब्द बाण

हालाँकि नेहरू और जिन्ना एक दूसरे को पिछले 30 वर्षों से जानते थे लेकिन 40 का दशक आते-आते दोनों के बीच दूरियाँ न सिर्फ़ बढ़ीं, बल्कि निजी भी होती चली गईं.

भारत छोड़ो आंदोलन में जेल में बंद रहने के दौरान नेहरू ने अपनी जेल डायरी में लिखा, "मुस्लिम लीग के ये नेता एक सभ्य दिमाग़ के अभाव का एक जीता-जागता उदाहरण हैं."

जिन्ना ने नेहरू के इन विचारों का जवाब उतनी ही कड़ी भाषा में दिया.

एक भाषण में उन्होंने कहा, "इस युवा नेता की भारत की आध्यात्मिक एकता और सभी समुदायों के बीच भाईचारे की सोच में बुनियादी गड़बड़ी है. नेहरू उस पीटर पैन की तरह हैं जो न तो कोई नई चीज़ सीखते हैं और न ही किसी पुरानी चीज़ को छोड़ते हैं."

नेहरू और जिन्ना

इमेज स्रोत,GETTY IMAGES

जिन्ना के भाषण पर नेहरू की कड़ी प्रतिक्रिया

1937 के चुनाव में मुस्लिम लीग को मुसलमानों के पाँच फ़ीसदी से भी कम वोट मिले. इसके बावजूद जिन्ना ने मुस्लिम लीग को मुसलमानों का एकमात्र नुमाइंदा बताने का कोई अवसर नहीं छोड़ा. नेहरू ने शुरू में इसे गंभीरता से नहीं लिया.

जिन्ना के साथ नेहरू के पत्राचार हुए लेकिन जब एक पत्र में जिन्ना ने नेहरू को लिखा, "मेरे लिए आपको अपने विचार समझा पाना अब मुश्किल हो चला है,"

नेहरू ने जिन्ना को पत्र लिखना छोड़ दिया. 1943 में आज़ादी से चार साल पहले ही नेहरू का जिन्ना से इस क़दर मोहभंग हो चुका था कि वो उन्हें उनका पाकिस्तान देने के लिए तैयार हो गए थे.

उन्होंने अपनी जेल डायरी में लिखा, "जिन्ना को अपने छोटे से देश को चलाने देने का फ़ायदा ये होगा कि वो भारत के विकास में रोड़े कम अटकाएंगे."

नेहरू ने तब तक पाकिस्तान की माँग को सार्वजनिक रूप से स्वीकार नहीं किया था.

जब 1944 में जिन्ना ने मुस्लिम लीग के सम्मेलन में तीन घंटे तक भाषण दिया तो नेहरू ने अपनी जेल डायरी में लिखा, "जिन्ना ने कितना मुखर, अशिष्ट, भड़कीला और अहंकारी भाषण दिया! भारत का और यहाँ के मुसलमानों का ये कितना बड़ा दुर्भाग्य है कि उन पर इस शख़्स का इतना असर है. मेरी नज़र में उन्होंने भारत के स्वतंत्रता संग्राम को हिंदू-मुसलमानों के घटिया सांप्रदायिक झगड़े में बदल दिया है."

दुर्गा दास की किताब 'इंडिया फ़्रॉम कर्ज़न टू नेहरू एंड आफ़्टर'

इमेज स्रोत,RUPA & CO

इमेज कैप्शन,

दुर्गा दास की किताब 'इंडिया फ़्रॉम कर्ज़न टू नेहरू एंड आफ़्टर'

जिन्ना के कांग्रेस पर हमले से अंग्रेज़ों को खुशी

जिन्ना-नेहरू टकराव का बारीक वर्णन मशहूर पत्रकार दुर्गा दास ने अपनी किताब 'इंडिया फ़्रॉम कर्ज़न टू नेहरू एंड आफ़्टर' में किया है.

दुर्गा दास लिखते हैं, "साल 1938 में लीग के अपने अध्यक्षीय भाषण में जिन्ना ने नेहरू की उस सोच को चुनौती दी कि इस समय भारत में सिर्फ़ दो ही शक्तियाँ हैं अंग्रेज़ और कांग्रेस. जिन्ना ने इसका विरोध करते हुए कहा कि भारत में दो नहीं चार शक्तियाँ हैं-ब्रिटिश राज, राजघराने, हिंदू और मुसलमान."

"उन्होंने कांग्रेस को फ़ासिस्ट संगठन की संज्ञा दी. जब मैंने देखा कि अंग्रेज़ अपने सबसे बड़े दुश्मन (कांग्रेस) को इस तरह आड़े हाथ लिए जाने से खुश हो रहे हैं तो मैंने जिन्ना से मिलकर कहा कि इससे गांधीजी को तकलीफ़ पहुंचेगी और उनके प्रति कांग्रेस का रवैया और कड़ा हो जाएगा. इस पर जिन्ना का जवाब था-दुर्गा, गांधी यही भाषा समझते हैं."

मशहूर पत्रकार निसीद हजारी ने अपनी किताब में लिखा है कि एक ज़माने में जिन्ना के बालों की तुलना मशहूर अभिनेता सर गेराल्ड डु मौरिये से की जाती थी
इमेज कैप्शन,

मशहूर पत्रकार निसीद हजारी ने अपनी किताब में लिखा है कि एक ज़माने में जिन्ना के बालों की तुलना मशहूर अभिनेता सर गेराल्ड डु मौरिये से की जाती थी

माचिस की डिबिया के बराबर भी पाकिस्तान स्वीकार

आज़ादी से पहले हुई लंदन वार्ता में जिन्ना ने नेहरू का अपमान करने का कोई मौका नहीं चूका. लेकिन उनके साथ गए सिख नेता बलदेव सिंह को उन्होंने अपनी तरफ़ करने की पूरी कोशिश की.

बाद में एस गोपाल ने जवाहरलाल नेहरू की जीवनी में लिखा, "सालों बाद बलदेव सिंह ने याद किया कि जिन्ना ने उनके सामने मेज़ पर पड़ी माचिस की डिबिया दिखाते हुए उनसे कहा था कि अगर मुझे इसके बराबर भी पाकिस्तान मिलता है तो मैं उसे स्वीकार कर लूँगा."

जिन्ना ने कहा था, "अगर आप सिखों को मुस्लिम लीग के साथ आने के लिए मना लें तो हमारे पास एक बेहतरीन पाकिस्तान होगा जिसके दरवाज़े दिल्ली पर खुलेंगे."

नेहरू और जिन्ना

इमेज स्रोत,GETTY IMAGES

अंतरिम सरकार में कांग्रेस और मुस्लिम लीग दोनों को जगह

भारत में ब्रिटेन के वायसराय लॉर्ड वैवेल को उम्मीद थी कि गठबंधन सरकार में नेहरू और जिन्ना कुछ महीनों तक एक साथ काम कर लें तो उनके बीच एक तरह की समझ-बूझ पैदा हो सकती है.

उसी को ध्यान में रख कर वैवेल ने अंतरिम सरकार में नेहरू के नेतृत्व में छह कांग्रेसियों, पाँच मुस्लिम लीग के सदस्यों और तीन छोटे अल्पसंख्यक समूहों के नुमाइंदों को मनोनीत किया था.

दूसरे शब्दों में वो कहना चाह रहे थे कि ब्रिटिश राज से भारत की आज़ादी इस बात पर निर्भर करती है कि नेहरू और जिन्ना किस हद तक अपने मतभेदों को पाट लेते हैं.

इसी भावना के तहत नेहरू ने जिन्ना को एक पत्र लिखकर उनसे 15 अगस्त, 1946 को बंबई में मिलने की इच्छा प्रकट की थी. वैवेल ने नेहरू को पहले ही चेतावनी दे दी थी कि वो जिन्ना से किसी सकारात्मक जवाब की उम्मीद न करें.

यही हुआ भी. जिन्ना ने नेहरू को जवाब दिया, "मुझे पता नहीं कि आप और वायसराय के बीच क्या बातचीत हुई. अगर आप ये उम्मीद पाले हुए हैं कि मैं कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार में काम करूँगा तो इस ख़्याल को अपने दिमाग़ से निकाल दीजिए."

ये क्लासिक जिन्ना थे, अक्खड़, तीखे और हठीले. ये जवाब नेहरू से ज़्यादा उनके अपने अनुयायियों के लिए था.

जब नेहरू ने जिन्ना को सफ़ाई दी और 15 अगस्त को बंबई पहुंच गए तो जिन्ना ने उन्हें एक और पत्र लिखा, "आपने कुछ सफ़ाई दी है जिनसे मैं पूरी तरह से सहमत नहीं हूँ, आपने मुझसे मिलने की इच्छा प्रकट की है. मुझे खुशी होगी अगर आप छह बजे मुझसे मिलने आ जाएं."

नेहरू और जिन्ना

इमेज स्रोत,GETTY IMAGES

नेहरू और जिन्ना की बातचीत असफल

नेहरू शाम 5 बज कर 50 मिनट पर ही जिन्ना से मिलने उनके घर पहुंच गए. वकालत में काफ़ी नाम कमाने के बाद जिन्ना ने मलाबार हिल पर संगमरमर का आलीशान घर बनवाया था. 17 साल बाद अपनी पत्नी के मरने के बाद से ही जिन्ना उस घर में अपनी बहन फ़ातिमा और नौकरों के साथ रह रहे थे.

उस दिन दोनों नेताओं के बीच 80 मिनट की बातचीत हुई. बाद में लॉर्ड वैवेल ने अपनी आत्मकथा में लिखा, "जिन्ना की स्टडी में हुई इस बातचीत में वो बहुत थके हुए लग रहे थे, दरअसल, इनमें से किसी की मेल-मिलाप करने की इच्छा नहीं थी. जिन्ना को अपने से जूनियर और युवा नेहरू के मातहत काम करने का विचार कतई मंज़ूर नहीं था और न ही वह चाहते थे कि कांग्रेस अपने कोटे से किसी मुस्लिम को मंत्री के रूप में नामांकित करे."

उधर, नेहरू भी नहीं चाहते थे कि सरकार में लीग के प्रतिनिधि उनके नेतृत्व पर सवाल उठाएं या अंग्रेज़ों से पूर्ण आज़ादी की उनकी मुहिम को ज़रा भी धीमा करें. उन्होंने लिखा, "कांग्रेस के हाथ-पैरों को ज़ंज़ीरों में नहीं जकड़ा जा सकता."

जिन्ना

इमेज स्रोत,GETTY IMAGES

नेहरू की नज़र में जिन्ना हमेशा नकारात्मक

जब माउंटबेटन ने भारत में वायसराय का कार्यभार संभाला तो वह नेहरू को पहले से जानते थे क्योंकि वो उनसे सिंगापुर में मिल चुके थे.

भारतीय परिस्थितियों का अंदाज़ा लेने के लिए माउंटबेटन ने नेहरू को अपने स्रोत की तरह इस्तेमाल किया. उन्होंने उनसे जानना चाहा कि उनका जिन्ना के बारे में क्या आकलन है?

कैंम्बेल जॉनसन अपनी किताब 'माउंटबेटन' में लिखते हैं, "नेहरू ने कहा जिन्ना के बारे में सबसे ध्यान देने योग्य बात ये है कि एक व्यक्ति के रूप में उन्हें काफ़ी देर से 60 की उम्र पार कर जाने के बाद कामयाबी मिली है. इससे पहले भारतीय राजनीति में उनकी ख़ास हैसियत नहीं थी. वो ज़्यादा अच्छे तो नहीं पर कामयाब वकील ज़रूर थे. उनकी कामयाबी का रहस्य उनकी इस क्षमता में निहित है कि वह लगातार नकारात्मक रवैया अपनाए रह सकते हैं."

स्टेनली वॉलपर्ट ने जिन्ना की जीवनी 'जिन्ना ऑफ़ पाकिस्तान' लिखी थी

इमेज स्रोत,OXFORD UNIVERSITY PRESS

इमेज कैप्शन,

स्टेनली वॉलपर्ट ने जिन्ना की जीवनी 'जिन्ना ऑफ़ पाकिस्तान' लिखी थी

गांधी की जिन्ना को प्रधानमंत्री बनाने की पेशकश

31 मार्च से 4 अप्रैल, 1947 के बीच गांधी ने माउंटबेटन से पाँच बार बातचीत की.

माउंटबेटन लिखते हैं, "गांधी ने मेरे सामने प्रस्ताव रखा कि मिस्टर जिन्ना को सरकार गठित करने का पहला मौका दिया जाना चाहिए. अगर वह ये प्रस्ताव स्वीकार कर लें तो कांग्रेस ईमानदारी से खुल कर उनसे सहयोग की गारंटी दे बशर्ते जिन्ना की मंत्रिपरिषद भारतीय जनता के हित में काम करे. मैं यह प्रस्ताव देख कर चौंक गया. मैंने उनसे ही पूछा इस पेशकश पर जिन्ना क्या कहेंगे? गाँधी का जवाब था कि अगर आप उन्हें बताएंगे कि यह फ़ार्मूला मैंने तैयार किया है तो उनका जवाब होगा 'उस धूर्त गांधी ने'."

बहरहाल गांधी की ये पेशकश जिन्ना को कभी बताई ही नहीं गई.

स्टेनली वॉलपर्ट जिन्ना की जीवनी 'जिन्ना ऑफ़ पाकिस्तान' में लिखते हैं, "माउंटबेटन ने इस मसले पर पहले नेहरू से बात की. उनकी प्रतिक्रिया पूरी तरह से नकारात्मक थी."

"नेहरू को ये जानकर बड़ी ठेस लगी कि उनके महात्मा उनकी जगह क़ायद-ए-आज़म को प्रधानमंत्री बनाने के लिए तैयार हैं. गांधी जिन्ना को अच्छी तरह से समझते थे. वो जानते थे कि इस तरह का प्रस्ताव जिन्ना के अहम को कितना मीठा स्पर्श दे सकता है. लेकिन नेहरू ने माउंटबेटन से कहा कि ये सुझाव एकदम अव्यावहारिक है."

नेहरू और जिन्ना

इमेज स्रोत,GETTY IMAGES

आज़ादी से एक हफ़्ता पहले जिन्ना कराची पहुंचे

7 अप्रैल, 1947 की सुबह जिन्ना अपनी बहन के साथ वायसराय के डकोटा विमान में बैठकर दिल्ली से कराची पहुंचे. हवाई अड्डे से सरकारी आवास की तरफ़ जाते हुए हज़ारों लोगों ने जिन्ना के स्वागत में नारे लगाए.

अपने बंगले की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए जिन्ना ने अपने एडीसी लेफ़्टिनेंट एसएम अहसान की ओर मुख़ातिब हो कर कहा, "तुम्हें पता नहीं होगा कि मैंने इस ज़िंदगी में पाकिस्तान बनते देखने की उम्मीद नहीं की थी."

14 अगस्त को अपने सम्मान में दिए डिनर में माउंटबेटन का आसन फ़ातिमा जिन्ना और प्रधानमंत्री लियाकत अली ख़ाँ के बीच में था.

माउंटबेटन लिखते हैं, "वो दिल्ली में आधी रात को होने वाले स्वतंत्रता दिवस समारोह के बारे में ये कहकर मेरी खिंचाई कर रहे थे कि किसी ज़िम्मेदार सरकार का ज्योतिषियों के निकाले गए मुहूर्त के आधार पर चलना कितना विचित्र है."

"मैं उन्हें ये जवाब देते-देते रह गया कि कराची में होने वाले समारोह का कार्यक्रम भी इसीलिए बदला गया है कि जिन्ना को रमज़ान की याद नहीं थी वर्ना वो तो दोपहर का भोज देना चाहते थे जिसे बाद में रात्रिभोज में बदलना पड़ा था."

लॉर्ड माउंटबेटन

इमेज स्रोत,GETTY IMAGES

जिन्ना के निधन के एक दिन बाद हैदराबाद पर हमला

इसके बाद नेहरू और जिन्ना की सिर्फ़ एक बार मुलाक़ात हुई. भारत की आज़ादी के दो हफ़्तों के भीतर लाहौर में बढ़ रहे शर्णार्थियों की समस्याओं को सुलझाने जिन्ना खुद लाहौर पहुंचे.

29 अगस्त को गवर्नमेंट हाउस में उनकी और नेहरू की दूसरे पाकिस्तानी और भारतीय नेताओं के साथ मुलाक़ात हुई. ये आख़िरी मौका था जब दोनों प्रतिद्वंद्वी एक ही छत के नीचे साथ-साथ बैठे. इस मुलाक़ात के एक साल और 13 दिनों बाद जिन्ना का निधन हो गया.

11 सितंबर, 1948 को जिस दिन जिन्ना का निधन हुआ, नेहरू ने उनसे अपनी प्रतिद्वंदिता को एक आखिरी झटका दिया.

राजमोहन गांधी सरदार पटेल की जीवनी में लिखते हैं, "जब पाकिस्तान के संस्थापक को कब्र में लिटाया जा रहा था, नेहरू ने अपने सैन्य कमांडरों को हैदराबाद की तरफ़ मार्च करने का आदेश दिया."

"जब बंगाल के राज्यपाल कैलाशनाथ काटजू ने पूछा कि क्या जिन्ना के सम्मान में भारत के झंडे आधे झुका दिए जाएं तो सरदार पटेल ने बहुत रूखेपन से जवाब दिया-क्या वह आपके रिश्तेदार लगते हैं?"

(बीबीसी हिन्दी के एंड्रॉएड ऐप के लिए आप यहां क्लिक कर सकते हैं. आप हमें फ़ेसबुकट्विटरइंस्टाग्राम और यूट्यूब पर फ़ॉलो भी कर सकते हैं.)

संबंधित समाचार

ज़रूर पढ़ें

सबसे अधिक पढ़ी गईं

Comments

Popular posts from this blog

#Modi G ! कब खुलेंगी आपकी आंखें ? CAA: एक हज़ार लोगों की थी अनुमति, आए एक लाख-अंतरराष्ट्रीय मीडिया

"बक्श देता है 'खुदा' उनको, ... ! जिनकी 'किस्मत' ख़राब होती है ... !! वो हरगिज नहीं 'बक्शे' जाते है, ... ! जिनकी 'नियत' खराब होती है... !!"