अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के आने के बाद कैसे बदली पाँच महिलाओं की ज़िंदगी?
- सुशीला सिंह
- बीबीसी संवाददाता
अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान को क़ाबिज़ हुए एक महीना हो गया है. इस एक महीने में हज़ारों अफ़ग़ान नागरिक अपनी मिट्टी से दूर जाने को मजबूर हुए, तो वहाँ बचे लोग तालिबान की नई सरकार के वादों के साथ जीने को मजबूर हैं.
इन्हीं में शामिल हैं वो महिलाएँ, जो उन नए क़ायदे क़ानून और पाबंदियों के साथ जीना भी सीख रही हैं. इनमें घर की दहलीज़ लांघने से पहले ख़ुद को हिजाब से ढँकना और पति या किसी महरम (मर्द और औरत के बीच ऐसा संबंध जिसमें शादी जायज़ नहीं है जैसे माँ-बेटा, भाई-बहन, पिता-पुत्री वग़ैरह) के साथ ही बाहर निकलना शामिल है.
ऐसे में इनकी आज़ादी और भविष्य पर सवाल उठ रहे हैं.
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लेकिन इन्हीं महिलाओं में एक ऐसा समूह भी है, जिन्हें तालिबान की गोलियों की परवाह नहीं है, उन्हें कोड़ों का डर नहीं है, अपने परिजनों की चिंता नहीं है. ये महिलाएँ तमाम बंदिशों को चुपचाप सहने के लिए तैयार भी नहीं हैं.
फ़राह मुस्तफ़वी
फ़राह मुस्तफ़वी 29 साल की हैं और दो बच्चों की माँ हैं.
तालिबान के ख़िलाफ़ अपनी आवाज़ बुलंद करने वाली फ़राह मुस्तफ़वी 17 साल की उम्र से मानवाधिकारों के लिए काम कर रही हैं.
वे कहती हैं, "हमने पिछले 21 सालों में जो कुछ कमाया था, वो तालिबान ने बस एक घंटे में ख़त्म कर दिया."
फ़राह बीबीसी से बातचीत में कहती हैं कि महिलाएँ प्रदर्शन कर रही होती हैं, तो तालिबान वाले आते हैं और पूछते हैं कि क्यों ये प्रदर्शन कर रही हो. इस पर महिलाएँ उन्हें डटकर तर्कसंगत जवाब देती हैं.
वे बताती हैं, ''हम उनसे बात करते हैं और तर्क देते हैं कि पैग़म्बर हजरत मोहम्मद की पत्नी ख़दीजा ख़ुद एक बहुत बड़ी बिज़नेस-वुमेन थीं और उन्हें ये करने के लिए किसी ने नहीं कहा और ये पेशा उन्होंने ख़ुद चुना था. वैसे ही ये हमारे मानवाधिकारों का मामला है और हम आपके ख़िलाफ़ नहीं हैं.''
तालिबान का विरोध कर रहे प्रदर्शनकारियों पर गोलीबारी की ख़बरों के बीच क्या इन महिला प्रदर्शनकारियों को डर नहीं लगता.
तालिबान से डर नहीं लगता?
इस पर ज़ोर से फ़ोन पर हँसते हुए फ़राह कहती हैं, ''मैं और मेरी सहेली ज़ोलिया यहाँ से कहीं नहीं जाने वाले हैं. हमारे परिवार वाले बहुत डरते हैं कि तुम उनका ऐसे सामना करती हो वो मार डालेंगे तुम्हें, लेकिन मुझे डर नहीं लगता.''
वो आगे कहती हैं, ''ये मेरा वतन है और यहाँ मेरा घर है, मुझे देश से बाहर जाने का मौक़ा भी मिला, लेकिन मैं यहाँ से कहीं नहीं जाऊँगी.''
फ़राह अमरीकी सैनिकों की वापसी से काफ़ी नाराज़ दिखती हैं और कहती हैं- हम एक अंधेरी सदी से बाहर निकले थे, जहाँ सिविल सोसाइटी थी, महिलाएँ काम कर पा रही थीं, जिम, सैलून, पार्लर, कैफ़े थे. हम आधी रात को कहीं भी जा सकते थे लेकिन बस अब चंद कैफ़े खुले नज़र आते हैं.
वो आगे कहती हैं, "हम तालिबान की सरकार को मान्यता ना दिए जाने की अपील करते हैं. हम अशरफ़ ग़नी और हामिद करज़ई की सरकार की वापसी के लिए प्रदर्शन नहीं कर रहे हैं क्योंकि हमने उस दौर में भी भ्रष्टाचार, भाई भतीजावाद, जातीयता और चुनिंदा लोगों को सत्ता का लाभ देते हुए देखा है."
उनके अनुसार, तालिबान अगर सत्ता में सबको बराबरी का अधिकार देते हैं और सभी के अधिकारों की रक्षा, भ्रष्टाचार हटा देते हैं तो हमें तालिबान की सरकार मंज़ूर है.
लेकिन जैसा रूप तालिबान का अभी है ऐसे में भारत, फ़्रांस, इंग्लैंड और जर्मनी जैसे देश और संस्थाओं को अफ़ग़ानिस्तान के लोगों और महिलाओं के साथ खड़े होना चाहिए और ये समझना चाहिए कि ये केवल हमारी समस्या नहीं है बल्कि तालिबान की चरमपंथी विचारधारा दूसरे धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक देशों के लिए चुनौती पेश कर सकती है.
तालिबान ने इससे पहले साल 1996 से लेकर 2001 तक अफ़ग़ानिस्तान में शासन किया था. महिलाओं के प्रति उनकी सोच के कारण उन्हें पढ़ने-लिखने और काम की आज़ादी नहीं थी. और महिलाओं को अब उसी दौर के दोबारा लौटने का डर सता रहा है.
दरख़्शां शादान
दरख़्शां शादान भी एक मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं. उनके अनुसार जब से तालिबान ने अफ़ग़ानिस्तान के इलाक़ों पर क़ब्ज़ा किया है, महिलाओं की स्थिति बिल्कुल बदल गई है.
तालिबान ने अपनी नई अंतरिम सरकार की हाल ही में घोषणा की थी, लेकिन उनकी कैबिनेट में फ़िलहाल एक भी महिला शामिल नहीं है. दरख़्शां सवाल उठाती हैं, ''ये कैसी सरकार है? पहले महिला मामलों का एक मंत्रालय हुआ करता था, लेकिन अब नहीं है. महिलाओं के भविष्य को लेकर स्थिति स्पष्ट नहीं है.''
वे कहती हैं, ''हमने ख़बरों में देखा कि तालिबान कहते हैं कि महिलाएँ घर पर रहें और केवल वही महिला काम कर सकती है जो शिक्षण या स्वास्थ्य सेवाओं से जुड़ी है. लेकिन उन महिलाओं का क्या जिनके घर में कोई पुरुष सदस्य नहीं है और उनको ही घर संभालना है, वो अगर काम नहीं करेंगी, तो उनके घर का ख़र्च कैसे चलेगा.''
"कई महिलाएँ हमलों में अपने पति, पिता या भाइयों को खो चुकी हैं और वे अन्य जगहों और संस्थाओं में नौकरी किया करती थीं लेकिन तालिबान के इस फ़रमान के बाद ऐसी अकेली महिलाओं का क्या होगा? लेकिन वो ख़ामोश नहीं रहेंगी और महिलाओं के अधिकारों के लिए लड़ती रहेंगी."
इस बार तालिबान ने कहा है कि महिलाओं को शरिया या इस्लामी क़ानून के तहत अधिकार दिए जाएँगे. लेकिन ये अधिकार क्या होंगे, इसको लेकर अभी स्थिति स्पष्ट नहीं है.
शकेबा तमकीन
नेशनल फ़ोर्स के एडमिनस्ट्रेशन विभाग में काम करने वाली शकेबा तमकीन बीबीसी से बातचीत में कहती हैं कि तालिबान के क़ब्ज़े के बाद उनकी अस्सी फ़ीसदी ज़िंदगी बदल गई है.
वे 25 साल की हैं और बदक्शां प्रांत से काम करने के लिए काबुल आईं थीं. उनके घर में माँ और छोटे भाई बहन हैं.
वे कुछ पैसे बचाकर अपने घर भेज दिया करती थीं लेकिन अब ख़ुद आर्थिक तंगी में जी रही हैं.
उनके अनुसार, ''पिछली सरकार से मुझे वेतन अभी तक नहीं मिला. मैं घर का किराया तक नहीं दे पा रही हूँ. खाने-पीने या कपड़े ख़रीदने के पैसे नहीं हैं. एक महीने काबुल में रहकर स्थिति देखकर फिर अपने प्रांत लौटने का फ़ैसला लूँगी.''
ज़ुलिया पारसी
देश के तख़ार प्रांत से आने वाली ज़ुलिया पारसी स्कूल और निजी यूनिवर्सिटी में पार्ट टाइम टीचर का काम करती हैं.
वे सुबह एक निजी स्कूल में पाँचवी कक्षा के बच्चों को पढ़ाती हैं और दोपहर में फ़र्स्ट सेमेस्टर के छात्रों को फ़ारसी साहित्य पढ़ाती हैं.
ज़ुलिया के मुताबिक़ बच्चे तालिबान के डर के मारे नहीं आ रहे हैं और तालिबान ने कहा है कि सातवीं कक्षा से 12वीं तक के बच्चे स्कूल न आएँ और लड़कियों को हिजाब पहने को कहा गया है.
उनके अनुसार, तालिबान ने लड़कियों के हिजाब ना पहनने पर पिटाई भी की है, ऐसे में बहुत से माता-पिता डरे हुए हैं और अपनी बच्चियों को स्कूल भेजने से घबरा रहे हैं.
कॉलेज में भी उन्होंने लड़कियों को हिजाब पहनने के लिए और लड़के और लड़कियों को अलग-अलग पढ़ाई करने के लिए कहा है.
ज़ुलिया की तीन बेटियाँ और दो बेटे हैं. पति बरसों से बेरोज़गार हैं.
वे बताती हैं कि उनकी बड़ी बेटी 12वीं और छोटी 10वीं में पढ़ती है. अब वे स्कूल नहीं जाती. उनकी छोटी बेटी चौथी कक्षा में हैं.
वो कहती हैं, "इतनी छोटी बच्ची कैसे हिजाब पहनेगी, मैंने उसका स्कूल बंद करवा दिया है. मेरे बच्चे तालिबान से डरे हुए हैं और सदमे में हैं. वे एक महीने से घर पर ही हैं."
अपने कॉलेज के बारे में वो कहती हैं कि वहाँ लड़के और लड़कियों के लिए रास्ते अलग कर दिए गए हैं. कमरे में पर्दे की दीवार लगाई गई है. लड़कियों को कक्षा में लड़कों के बाद ही प्रवेश करने की अनुमति है, वो भी तब, जब सभी लड़के कक्षा में अपना स्थान ग्रहण कर लेते हैं.
हाल ही में आई संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन या UNESCO की रिपोर्ट में कहा गया था कि तालिबान के नियंत्रण के ख़त्म होने के बाद पिछले 17 सालों में प्राथमिक स्कूलों में लड़कियों की संख्या शून्य से बढ़कर लगभग 25 लाख हो गई थी.
लेकिन अब ये आँकड़ा फिर नीचे जाता दिखता है.
तालिबान का कहना है कि देश में मौजूद यूनिवर्सिटी को जेंडर के हिसाब से अलग किया जाएगा और नया ड्रेस कोड लागू किया जाएगा.
उच्च शिक्षा मंत्री अब्दुल बाक़ी हक़्क़ानी ने इस बात के संकेत दिए हैं कि महिलाओं को पढ़ाई करने की अनुमति दी जाएगी लेकिन वो पुरुषों के साथ नहीं कर पाएँगी.
हमसा बदख़्शां
हमसा बदख़्शां 27 साल की हैं और पिछली सरकार में योजना और नीति विभाग में काम करती थीं.
वे बताती हैं, ''मैं तालिबान के आने के बाद अपने दफ़्तर जाने वाली पहली महिला थी. लेकिन जब मैं वहाँ पहुँची, तो मुझे वहाँ से जाने को बोला गया और कहा गया कि अब यहाँ हमारा स्टाफ़ है और हम भविष्य के लिए अपनी योजनाएँ और नीतियाँ बनाएँगे.''
वो आगे कहती हैं कि उनके विभाग में भी मुल्ला और मौलवी थे, लेकिन जेंडर का काफ़ी ध्यान रखा गया था. तालिबान क्या रणनीति बनाएँगे पता नहीं, लेकिन उनके विभाग ने जो कुछ योजनाएं बनाईं थीं, वे अब शून्य पर आ गई हैं.
वो कहती हैं, ''ईमानदारी से कह सकती हूँ कि मुझे नई तालिबान सरकार से कोई उम्मीद नहीं है और हमारा भविष्य अंधकार से भरा हुआ है.''
हमसा बताती हैं कि उनके पिता शिक्षा विभाग में काम करते थे और तालिबान ने ही उनकी हत्या की थी. उनके घर पर माँ और छोटे पाँच भाई-बहन हैं.
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