क्या आज़ादी की लड़ाई में दलितों, पिछड़ों के योगदान को मिटाने की कोशिश हो रही है?
- राजेश कुमार आर्य
- बीबीसी हिंदी के लिए, गोरखपुर से
चौरी-चौरा घटना के कुछ शहीदों के नामों में फेरबदल और उम्र क़ैद पाने वाले 14 स्वतंत्रता सेनानियों में से सिर्फ़ सवर्ण जाति से जुड़े एक व्यक्ति की प्रतिमा स्मारक में स्थापित किए जाने पर सवाल पूछे जा रहे हैं कि क्या ये स्वतंत्रता संग्राम में दलितों और पिछड़ों के योगदान को धीरे-धीरे मिटाने की कोशिश है?
हालांकि, स्मारक में हुए बदलाव से जुड़े लोगों ने आरोपों को ग़लत बताते हुए कहा है कि 'ग़लती सुधार के लिए आवेदन दिया गया है.'
पुरानी पट्टिका के 'श्री लौटू पुत्र शिवनन्दन कहार' में से 'कहार' शब्द नई तख़्ती से ग़ायब है. वहीं 'श्री रामलगन पुत्र शिवटहल लोहार' अब शहीद रामलगन पुत्र शिवटहल के नाम से दिख रहे हैं.
शहीद लाल मुहम्मद के पिता हकीम फकीर का नाम अब महज़ 'हकीम' रह गया है.
लाल मुहम्मद को लाल अहमद और शिवनन्दन को शिवचरन के तौर पर अंकित करने की 'छूट' भी नई तख़्ती में दिखाई देती है.
समाप्त
लाल मुहम्मद को 3 जुलाई 1923 को रायबरेली जेल में फ़ांसी दी गई थी. उन्हें इलाहाबाद हाई कोर्ट ने 4 फ़रवरी, 1922 में चौरी-चौरा की उस घटना के लिए ज़िम्मेदार पाया था जिसमें पुलिस थाने में आग लगा दी गई थी और 23 पुलिसवालों की मौत हो गई थी.
चौरी चौरा की घटना के लिए कुल 19 लोगों को फ़ांसी और 14 को उम्रक़ैद की सज़ा सुनाई गई थी.
इतिहासकारों के अनुसार हिंसा की इस घटना से आहत महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन समाप्त कर दिया था.
हालांकि, लेखक और इतिहासकार सुभाष चंद्र कुशवाहा का मत है कि ये इस बात का एक उदाहरण था कि गांधीवादी राजनीति में जनता की पहल स्वीकार्य नहीं, 'हिंसक तो क़तई नहीं और ज़मींदारों के ख़िलाफ़ तो हरगिज़ नहीं'.
सुभाष चंद्र कुशवाहा ने चौरी चौरा पर 'चौरी-चौरा: विद्रोह, स्वाधीनता आंदोलन' नाम की पुस्तक लिखी है जो साल 2014 में प्रकाशित हुई थी.
क्या है पूरा मामला?
चौरी-चौरा की घटना की याद में उत्तर प्रदेश के गोरखपुर शहर से क़रीब 26 किलोमीटर दूर 1993 में स्मारक तैयार हुआ था, जिसका पिछले दो सालों में सौंदर्यीकरण करवाए जाने के बाद साल 2021 जनवरी में लोकार्पण हुआ है.
साल 2021 को चौरी-चौरा घटना के शताब्दी वर्ष के रूप में मनाया जा रहा है.
विवाद स्मारक में पुरानी तख़्ती की जगह नई तख़्ती लगाने के बाद शुरू हुआ है. नई पट्टिका में कई नामों में फेरबदल साफ़ नज़र आता है.
आजीवन कारावास पाने वाले 14 में से सिर्फ़ एक व्यक्ति, द्वारिका प्रसाद पांडेय पुत्र नेपाल पांडेय की ही प्रतिमा लगाए जाने को लेकर भी विवाद है.
डुमरी खुर्द निवासी बिक्रम अहीर को इसी घटना के लिए फ़ांसी दी गई थी.
उनके पड़पोते शरदानंद यादव कहते हैं, "सेशन कोर्ट ने जिन 172 लोगों को फ़ांसी की सज़ा सुनाई थी, उसे देखिए और बताइए कि उसमें अपर कास्ट के कितने लोग हैं. यह किसानों और मज़दूरों का आंदोलन था, ज़मींदारी प्रथा के सताए हुए लोग. सरकार उन लोगों के योगदान को धीर-धीरे मिटा देना चाहती है."
लाल मुहम्मद जिन्हें 3 जुलाई, 1923 को फ़ांसी हुई थी, उनके पोते मैनुद्दीन ने दादा और परदादा के नामों को 'सुधरवाने के लिए' मुख्यमंत्री को पत्र लिखा है.
मैनुद्दीन कहते हैं, "स्मारक में लगी मूर्तियों में हमारी पहचान को छिपा दिया गया है. हम फक़ीर बिरादरी के हैं. लेकिन अब उसे बदल दिया गया है."
वो कहते हैं, "जिन्होंने हिंदुस्तान के लिए इतना बड़ा काम किया, अगर आप उन्हें पहचान नहीं दे सकते हैं तो कम से कम उनकी पहचान को तो न ख़राब किया जाए."
सवर्णों के सरनेम क्यों नहीं हटाए गए?
घटना से जुड़े परिवारों की शिकायत को लेकर जब हमने अधिकारियों से मिलने की कोशिश की तो हमें एक व्यक्ति से दूसरे तक भेजा जाता रहा.
ज़िला स्वतंत्रता संग्राम शहीद स्मारक समिति के संयोजक रामनारायण त्रिपाठी कहते हैं, 'कुछ लोग हैं जो चौरी-चौरा आंदोलन को दलितों का आंदोलन बताने के लिए व्याकुल हैं.'
रामनारायण त्रिपाठी के अनुसार उन्होंने ही 'शहीदों की सूची' संबंधित विभाग को भेजी थी. वो फ़ांसी की सज़ा पाने वाले मेघू तिवारी के पौत्र हैं.
रामनारायण त्रिपाठी मानते हैं कि नामों को उल्टा-सीधा कर दिया गया है जिसके लिए उन्होंने डीएम कार्यालय में आवेदन दे रखा है लेकिन उसमें कुछ प्रशासनिक वजहों से देरी हो गई है.
स्मारक समिति के संयोजक हालांकि ये जोड़ना नहीं भूलते कि शहीदों या परिवार के लोगों के नाम से जाति का नाम हटा देने से कोई फर्क़ नहीं पड़ता है लेकिन जबसे उनसे ये पूछा गया कि घटना से जुड़े सवर्ण लोगों के सरनेम क्यों नहीं हटाए गए तो उनके पास कोई उचित जवाब नहीं था.
गोरखपुर ज़िला बीजेपी अध्यक्ष युधिष्ठिर सिंह जातीय द्वेष के आरोपों से इंकार करते हैं और कहते हैं, "सरकार की ऐसा करने में कोई रूचि नहीं है. हमारी सरकार जाति के आधार पर नहीं बल्कि 'सबका साथ, सबका विकास और सबके विश्वास' के उद्देश्य से काम करती है."
इतिहासकार सुभाष चंद्र कुशवाहा का विचार है, "चौरी चौरा विद्रोह ने पहली बार सामंतों और औपनिवेशिक सत्ता के नाभि नाल को सामने रखा. स्थानीय ज़मींदार, ज्यादा जुल्मी थे, यह सिद्ध किया. जिसने जनता की स्वतंत्र पहलक़दमी को सामने रखा."
बात को आगे बढ़ाते हुए वे कहते हैं कि, "इस आंदोलन के दौरान ये भी साफ़ हो गया कि गांधीवादी राजनीति में जनता की स्वतंत्र पहलक़दमी स्वीकार नहीं. हिंसक पहलक़दमी तो क़तई नहीं. और ज़मींदारों के ख़िलाफ़ तो हरगिज़ नहीं."
वहीं दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र के प्रोफेसर रहे प्रो. आनंद कुमार सीधे तौर पर कहते हैं कि "स्मारक पर किसी सरकारी बाबू या वोट के ज़रिए पांच साल के लिए चुने गए किसी 'राजा-रानी' की तुलना में शहीदों के वंशजों का ज़्यादा अधिकार है और अगर वो चाहते हैं कि शहीदों के नाम से जातीय पहचान न मिटाई जाए तो उसे नहीं मिटाया जाना चाहिए. शहीदों की स्मृति की रक्षा की ज़िम्मेदारी समाज की है. लेकिन वो किस रूप में याद किए जाएं यह उनके परिवार की प्राथमिकता है."
चौरी-चौरा कांड
पुलिस ने 228 लोगों के ख़िलाफ़ गोरखपुर के सेशन कोर्ट में आरोप पत्र दाख़िल किया था, जिनमें से दो की जेल में मौत हो गई थी और एक व्यक्ति सरकारी गवाह बन गए, 225 लोगों पर मुक़दमा चला.
सेशन कोर्ट जज एचई होत्म्स ने 9 जनवरी 1923 को 172 लोगों को फ़ांसी की सज़ा सुनाई थी जिसके ख़िलाफ़ इलाहाबाद हाई कोर्ट में अपील की गई. हाई कोर्ट में मुख्य न्यायाधीश एडवर्ड ग्रीमवुड मीयर्स और सर थियोडोर पिगॉट की बेंच ने इस मामले में 30 अप्रैल 1923 को फ़ैसला दिया.
14 लोगों को उम्रक़ैद और 19 को फ़ांसी की सज़ा सुनाई थी.
(बीबीसी हिन्दी के एंड्रॉएड ऐप के लिए आप यहां क्लिक कर सकते हैं. आप हमें फ़ेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम और यूट्यूब पर फ़ॉलो भी कर सकते हैं.)
Comments