ममता बनर्जी देश की राजनीति में जगह बनाने के लिए क्या पश्चिम बंगाल का सीएम पद छोड़ देंगी?
- प्रभाकर मणि तिवारी
- कोलकाता से, बीबीसी हिंदी के लिए
क्या पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी अपनी कुर्सी किसी और को सौंपने की तैयारी में हैं? बीते विधानसभा चुनाव में लगातार तीसरी जीत के बाद ममता के लगातार बंगाल के बाहर दौरों के कारण राजनीतिक हलकों में यही सवाल पूछा जा रहा है.
उन्होंने राष्ट्रीय राजनीति में अपनी सक्रियता बढ़ाने की मंशा तो 21 जुलाई को अपनी सालाना शहीद रैली में ही साफ कर दी थी. चुनाव के बाद ममता दो बार दिल्ली और दो बार गोवा के अलावा एक बार मुंबई का दौरा कर चुकी हैं. अब साल के आखिर में भी उनका पूर्वोत्तर और दार्जिलिंग दौरे का कार्यक्रम है.
शुरुआत
ममता ने राष्ट्रीय राजनीति में बीजेपी के खिलाफ विपक्ष का चेहरा बनने की कवायद अपनी सालाना शहीद रैली से शुरू की थी. इस रैली में उन्होंने बीजेपी हटाओ देश बचाओ का नारा देते हुए तमाम विपक्षी दलों से भगवा पार्टी के खिलाफ एकजुट होने की अपील की थी औऱ भगवा पार्टी को तानाशाह और कोरोना से भी खतरनाक वायरस करार दिया.
इस साल खास बात यह रही कि पहली बार ममता ने अपना ज्यादातर भाषण हिंदी और अंग्रेजी में दिया. बीच-बीच में वे बांग्ला भी बोलती रहीं. अमूमन पहले वे ज्यादातर भाषण बांग्ला में ही देती थीं.
पहली बार बंगाल से बाहर निकलने के कवायद के तहत टीएमसी ने उनकी इस रैली का दिल्ली, त्रिपुरा और उत्तर प्रदेश के अलावा गुजरात तक प्रसारण किया था.
दिल्ली के कॉन्स्टीट्यूशन क्लब में एनसीपी नेता शरद पवार, कांग्रेस के पी. चिदंबरम और सपा के रामगोपाल यादव समेत कई विपक्षी नेताओं ने उनका भाषण सुना.
उसके एक सप्ताह की भीतर ही उन्होंने दिल्ली जाकर विपक्ष के तमाम प्रमुख नेताओं के साथ मुलाकात की थी.
उसके बाद करीब दो महीने तक इंतजार करने के बाद ममता ने कांग्रेस के नेताओं को भी तोड़ना शुरू किया और पार्टी पर निष्क्रियता का आरोप लगाते हुए हमले शुरू कर दिए.
हालत यहां तक पहुंच गई कि कांग्रेस प्रमुख सोनिया गांधी से मधुर संबंधों के बावजूद हाल के वर्षो में पहली बार अपने दूसरे दिल्ली में उन्होंने सोनिया से मुलाकात तक नहीं की.
उल्टे पत्रकारों के पूछने पर उनका कहना था, "क्या यह मेरी संवैधानिक जिम्मेदारी है कि हर बार दिल्ली आने पर सोनिया से मुलाकात करनी होगी?"
ममता के दौरे
बीते जुलाई से ही ममता करीब हर महीने बंगाल के बाहर दौरे पर निकलती रही हैं. जुलाई के आखिर में अपने पांच दिनों के दिल्ली दौरे के बाद अक्तूबर के आखिर में वे पहली बार तीन दिनों के गोवा दौरे पर पहुंची.
उसके बाद 23 नवंबर को वे दूसरी बार दिल्ली दौरे पर गईं. वहां से लौटने के चार दिनों बाद ही वे तीन दिनों के लिए मुंबई दौरे पर पहुंचीं. वहां मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के बीमार होने की वजह से उनसे ममता की मुलाकात नहीं हो सकी.
लेकिन ठाकरे के पुत्र आदित्य ने ममता से मुलाकात की और फिर अगले दिन ममता ने एनसीपी नेता शरद पवार के घर जाकर उनसे मुलाकात की. उसके बाद ही ममता ने कहा था, "यूपीए क्या है? कोई यूपीए नहीं है."
दिसंबर के पहले सप्ताह में मुंबई से वापसी के बाद 13 दिसंबर को वे दूसरी बार गोवा दौरे पर पहुंचीं. वहां भी अपनी रैलियों में उन्होंने बीजेपी के साथ कांग्रेस पर भी हमले किए. कोलकाता नगर निगम चुनाव के सिलसिले में फिलहाल वे कोलकाता में हैं.
लेकिन 19 दिसंबर को मतदान के अगले दिन ही टीएमसी प्रमुख असम और मेघालय के दौरे पर निकल जाएंगी. वहां से लौटने के बाद 27 दिसंबर को उनके दार्जिलिंग दौरे का कार्यक्रम है.
ममता ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र बनारस जाने का भी ऐलान किया है. यूपी विधानसभा चुनाव में वे सपा का साथ देने की बात कई बार कह चुकी हैं.
ममता को अक्तूबर में चार दिनों के लिए रोम जाना था और फिर दिसंबर में तीन दिन के लिए नेपाल. लेकिन केंद्र ने उनको इसकी अनुमति नहीं दी. इसके लिए ममता और उनकी पार्टी टीएमसी ने केंद्र सरकार की आलोचना की थी.
ममता तीसरी बार सत्ता में आने के बाद अब तक करीब तीन सप्ताह बंगाल से बाहर रही हैं. यह कोई अस्वाभाविक नहीं है. लेकिन अगर उनके पहले दोनों कार्यकाल से इसकी तुलना करें तो फर्क साफ नजर आता है. इससे पहले वे विधानसभा चुनाव जीतने के बाद दिल्ली के दौरे तक ही सीमित रहती थीं.
राजनीतिक विश्लेषक प्रोफेसर समीरन पाल कहते हैं, "राज्य में उनके पहले के मुख्यमंत्री भी दूसरे राज्यों के दौरे पर जाते थे. पूर्व मुख्यमंत्री ज्योति बसु तो अक्सर लंदन की यात्रा करते थे. लेकिन तब वे कैबिनेट में नंबर दो बुद्धदेव भट्टाचार्य को सरकार की कमान सौंप कर जाते थे. उनके बाद मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठने वाले बुद्धदेव भी राज्य से बाहर जाने की स्थिति में उद्योग मंत्री निरुपम सेन या सूर्यकांत मिश्र को सरकार का जिम्मा सौंप कर जाते थे. लेकिन तकनीक के मौजूदा दौर में ममता ऐसा कुछ नहीं करतीं. वे राज्य से के बाहर से भी वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए सरकार चलाती रही हैं."
सरकार का कामकाज भले ममता देखती हों, पार्टी का काम महासचिव पार्थ चटर्जी और वरिष्ठ मंत्री फिरहाद हकीम जैसे नेता ही देखते हैं. इसकी वजह यह है कि ममता के ऐसे तमाम दौरों में सांसद अभिषेक बनर्जी भी उनके साथ रहते हैं.
प्रोफेसर पाल कहते हैं, "फिलहाल मुख्यमंत्रियों में ममता बनर्जी के अलावा दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ही लगातार दूसरे राज्यों के दौरे कर रहे हैं. इनके अलावा दूसरा कोई मुख्यमंत्री अपने दौरों और बीजेपी के खिलाफ विपक्ष को लामबंद करने की कवायद करता नजर नहीं आता."
उत्तराधिकारी पर अटकलें
विधानसभा चुनाव के बाद भतीजे अभिषेक बनर्जी का कद बढ़ा कर राष्ट्रीय महासचिव बनाने के बाद से ही पार्टी के भीतर और बाहर यह अटकलें जोर पकड़ने लगी थीं कि ममता अब शायद अभिषेक को अपना राजपाट सौंप कर राष्ट्रीय राजनीति में कूदने की तैयारी में हैं.
इस साल हुए विधानसभा चुनाव में अभिषेक की भूमिका अहम रही थी. उनका गढ़ समझे वाले दक्षिण 24-परगना जिले की 31 में 29 सीटें टीएमसी ने जीत थीं. इसके अलावा उनको जिस झाड़ग्राम जिले का प्रभारी बनाया गया था वहां की चारों सीटें भी पार्टी ने जीत ली. चुनाव से पहले झाड़ग्राम में बीजेपी की स्थिति मजबूत बताई जा रही थी.
टीएमसी में अभिषेक का बढ़ता कद किसी से छिपा नहीं है. सत्ता में आने के बाद पहले दस साल तक जहां पार्टी की प्रचार सामग्री, पोस्टरों और बैनरों में सिर्फ ममता की तस्वीर होती थी. लेकिन बीते चुनाव के बाद अब टीएमसी का युवा तुर्क कहे जाने वाले अभिषेक की तस्वीरें पोस्टरों और बैनरों पर छाई हुई हैं.
क्या वे ममता के बाद टीएमसी में नंबर दो हैं? इस सवाल पर खुद अभिषेक का कहना है, "पार्टी में ऐसा कोई पद नहीं है.पहले नंबर पर मुख्यमंत्री ममता बनर्जी हैं. और अगर दूसरे नंबर का कोई पद है तो इस पर पार्टी के तमाम कार्यकर्ताओं का अधिकार है."
वंशवाद के आरोप
विपक्ष ममता बनर्जी पर वंशवाद को बढ़ावा देने के आरोप लगाता रहा है. लेकिन ममता इन आलोचनाओं से परेशान नहीं हैं. अब तो पार्टी के नेता भी सार्वजनिक रूप से अभिषेक को टीएमसी का भविष्य बताते हैं.
पार्टी के एक वरिष्ठ नेता नाम नहीं छापने की शर्त पर कहते हैं, "बंगाल में टीएमसी को अभिषेक ही चला रहे हैं. हालांकि औपचारिक रूप से इसकी घोषणा नहीं की गई है. लेकिन दीदी अब राष्ट्रीय राजनीति में ज्यादा सक्रिय रहेंगी. ऐसे में उनकी विरासत को आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी अभिषेक के कंधों पर ही होगी."
राजनीति में वंशवाद के आरोप
पश्चिम बंगाल में 34 साल तक सत्ता में रहने वाली सीपीएम ने आरोप लगाया है कि राज्य में ममता बनर्जी ने ही राजनीति में वंशवाद की शुरुआत की है.
पूर्व विधायक सुजन चक्रवर्ती कहते हैं, "राजनीति में कोई भी कदम रख सकता है. लेकिन ममता ने पहले अपने भतीजे अभिषेक को राजनीति में उतारा था और अब अपने भाई की पत्नी काजरी बनर्जी को कोलकाता नगर निगम चुनाव में टिकट दिया है. कम से कम बंगाल में वंशवाद की यह राजनीति पहले कभी नहीं थी. हमने कभी किसी मुख्यमंत्री के करीबी रिश्तेदार को राजनीति में उतरते नहीं देखा है. ममता के दोनों करीबी रिश्तेदार उनके नाम का इस्तेमाल करते हुए सत्ता में आए हैं."
बीजेपी के नेता भी ऐसे ही आरोप लगाते रहे हैं. प्रदेश बीजेपी प्रवक्ता शमीक भट्टाचार्य कहते हैं, "टीएमसी भी कांग्रेस की तर्ज पर वंशवाद की राह पर चल रही है."
लेकिन टीएमसी ने इन आरोपों को निराधार बताया है. टीएमसी के प्रदेश महासचिव और प्रवक्ता कुणाल घोष कहते हैं, "पार्टी में निष्ठावान और मेहनती कार्यकर्ताओं को उनके कामकाज के आधार पर टिकट दिए जाते हैं, रिश्तेदारी के कारण नहीं."
विधानसभा चुनाव के दौरान ममता की करीबी मंत्री और पार्टी के वरिष्ठ नेता फिरहाद हकीम ने पत्रकारों से साफ कहा था कि अभिषेक तृणमूल कांग्रेस का भविष्य हैं. विपक्ष के वंशवाद के आरोपों पर उनका कहना था, "इसे वंशवाद नहीं कहा जाना चाहिए. पार्टी के युवा मोर्चे की कमान संभालने के लिए युवा नेताओं का आगे आना स्वाभाविक प्रक्रिया है. पहले शुभेंदु अधिकारी को कमान सौंपी गई थी. लेकिन वे गद्दार निकले. उसके बाद अब यह जिम्मेदारी अभिषेक के कंधों पर है."
राजनीतिक विश्लेषक प्रोफेसर समीरन पाल कहते हैं, "अभिषेक हालांकि सरकार में कोई पद नहीं लेने की बात कहते रहे हैं. किन राजनीति में कुछ भी स्थायी नहीं होता. ममता ने सरकार की कमान अपने हाथों में ही रखी है. लेकिन पार्टी में अभिषेक निश्चित रूप से नंबर दो हैं. इससे कुछ पुराने नेताओं में नाराजगी भी है. लेकिन ममता के आगे कोई इस बारे में बोलने को तैयार नहीं है."
वह कहते हैं कि अभिषेक को पार्टी में ज्यादा तरजीह मिलने की वजह से ही बीते दिसंबर में शुभेंदु बीजेपी में शामिल हुए थे. उन्होंने खुद यह बात कही थी.
पाल कहते हैं, "ममता अगर राष्ट्रीय राजनीति में उतरती हैं तो देर-सबेर उनको बंगाल की कमान किसी को सौंपनी ही होगी. और मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य में फिलहाल मुख्यमंत्री पद के लिए अभिषेक के अलावा दूर दूर तक दूसरा कोई दावेदार नजर नहीं आता."
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