इस्लामोफ़ोबिया के ख़िलाफ़ संयुक्त राष्ट्र में आए प्रस्ताव पर भारत चिंतित क्यों?
- शकील अख़्तर
- बीबीसी उर्दू संवाददाता
संयुक्त राष्ट्र महासभा ने मंगलवार को फ़ैसला किया कि अब से 15 मार्च को 'इस्लामोफोबिया विरोधी दिवस' मनाए जाएगा.
इसे लेकर भारत ने अपनी गहरी चिंता जाहिर की है और कहा है कि एक धर्म विशेष को लेकर डर उस स्तर पर पहुंच गया है कि इसके लिए अंतरराष्ट्रीय दिवस मनाने की स्थिति आ गई है.
भारत ने यह भी कहा कि विभिन्न धर्मों ख़ासकर हिंदुओं, बौद्ध और सिख धर्म के ख़िलाफ अलग-अलग तरीक़े से डर का मौहाल बनाया जा रहा है.
ऐसे में सवाल उठता है कि आख़िर भारत जैसा देश मुसलमानों के ख़िलाफ़ हिंसा और नफ़रत रोकने के लिए लाए गए किसी प्रस्ताव का विरोध क्यों कर रहा है?
क्या कहता है ये प्रस्ताव?
इससे पहले, 193 सदस्यों वाली संयुक्त राष्ट्र महासभा में पाकिस्तान के राजदूत मुनीर अकरम ने ऑर्गनाइजेशन ऑफ़ इस्लामिक कॉन्फ्रेंस (ओआईसी) की ओर से हर साल 15 मार्च को 'इंटरनेशनल डे टू कॉम्बैट इस्लामोफोबिया' यानी 'इस्लाम के प्रति डर से लड़ने का अंतरराष्ट्रीय दिवस' के रूप में मनाने का एक प्रस्ताव पेश किया था.
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ओआईसी के 57 सदस्य देशों के अलावा चीन, रूस सहित अन्य 8 देशों के समर्थन से यह प्रस्ताव पारित भी हो गया. दावा किया गया है कि दुनिया में मुसलमानों के ख़िलाफ़ नफ़रत, भेदभाव और हिंसा को रोकने के लिए इस प्रस्ताव को मंजूरी दी गई है.
इस प्रस्ताव को पेश करते हुए पाकिस्तानी राजदूत मुनीर अकरम ने कहा, "इस्लामोफोबिया एक सच्चाई है. यह प्रवृत्ति दुनिया के कई हिस्सों में बढ़ रही है. इस तथ्य को ध्यान में रखा जाना चाहिए."
अकरम ने कहा कि दुनिया में इस्लामोफोबिया को नफ़रत फैलाने वाले भाषणों, भेदभाव और मुसलमानों के ख़िलाफ़ होने वाली हिंसा के रूप में देखा जा सकता है. उन्होंने कहा कि इस तरह की हिंसा, भेदभाव और शत्रुतापूर्ण व्यवहार मुसलमानों के मानवाधिकारों का गंभीर उल्लंघन है और इससे मुस्लिम देशों में अशांति पैदा होती है.
हालांकि भारत का मानना है कि यह प्रस्ताव एक धर्म विशेष के ख़िलाफ़ अपनी आवाज़ उठाता है, पर दूसरे धर्मावलंबियों पर होने वाले अत्याचारों की उपेक्षा करता है.
संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थायी प्रतिनिधि टीएस तिरुमूर्ति ने कहा कि यह प्रस्ताव हिंदू, सिख और बौद्ध जैसे अन्य धर्मों के ख़िलाफ़ हिंसा, भेदभाव और नफ़रत को नजरअंदाज़ करता है.
टीएस तिरुमूर्ति ने कहा: "एक धर्म पर ज़ोर देना एक बात है और एक ख़ास धर्म के ख़िलाफ़ नफ़रत विरोधी दिवस मनाना बिल्कुल दूसरी बात है. यह संभव है कि यह प्रस्ताव दूसरे सभी धर्मों के ख़िलाफ़ घृणा और हिंसा की गंभीरता को दबा देगा.''
हिंदुओं, सिखों और बौद्धों के ख़िलाफ़ घृणा और हिंसा की घटनाओं का उल्लेख करते हुए, टीएस तिरुमूर्ति ने कहा, "1.2 अरब लोग हिंदू धर्म को मानते हैं. बौद्ध धर्म को मानने वाले 53.5 करोड़ लोग हैं और तीन करोड़ से ज़्यादा सिख दुनिया भर में फैले हुए हैं. ये समय है कि हम एक धर्म के बजाय सभी धर्मों के प्रति फैल रहे डर के माहौल को समझें."
"संयुक्त राष्ट्र का ऐसे धार्मिक मामलों से ऊपर रहना ज़रूरी है जो दुनिया को एक परिवार की तरह देखने और हमें शांति और सौहार्द के मंच पर साथ लाने के बजाय हमें बांट सकती है."
इस प्रस्ताव के पारित होने के बाद तिरुमूर्ति ने कहा कि भारत यहूदी, ईसाई और इस्लाम धर्म के ख़िलाफ़ की जा रही किसी भी गतिविधि की निंदा करता है. लेकिन डर का माहौल केवल इन्हीं धर्मों को लेकर नहीं फैलाया जा रहा है.
उन्होंने कहा, "वास्तव में इस बात के सबूत हैं कि धर्मों के प्रति इस तरह से डर के माहौल ने यहूदियों, ईसाइयों और मुसलमानों के अलावा अन्य धर्मावलंबियों को भी प्रभावित किया है. इससे धर्मों के प्रति, ख़ासकर हिंदुओं, बौद्धों और सिखों के प्रति डर का माहौल बढ़ा है."
उन्होंने इस ओर भी ध्यान दिलाया कि संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देशों को ये नहीं भूलना चाहिए कि 2019 में 22 अगस्त को पहले ही धर्म के नाम पर होने वाली हिंसा में मारे गए लोगों की याद में मनाया जाता है. ये दिवस पूरी तरह से सभी पहलुओं को समेटे हुए है.
भारत के जाने माने पत्रकार और विश्लेषक हरतोष सिंह बल कहते हैं, "संयुक्त राष्ट्र का प्रस्ताव एक अच्छा क़दम है, लेकिन भारत प्रस्ताव को लेकर चिंतित है क्योंकि कल इसकी आलोचना की जाएगी.
"भारत एक ओर धार्मिक समता, लोकतंत्र और सहिष्णुता की बात करता है. दूसरी ओर, नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) जैसे धार्मिक भेदभाव करने वाले क़ानून भी पारित करता है. देश के लोकतांत्रिक ढांचे को बहुसंख्यकों के धर्म के लिहाज से ढाला जा रहा है. वहीं संयुक्त राष्ट्र में सहिष्णुता की बात हो रही है."
अब से कुछ महीने पहले भारत ने संयुक्त राष्ट्र में कहा था कि सांप्रदायिक घृणा केवल अब्राहमिक धर्मों (इस्लाम, यहूदी और ईसाई धर्म) के ख़िलाफ़ ही नहीं, बल्कि हिंदू, बौद्ध और सिख धर्म के ख़िलाफ़ भी फैल रही है.
भारत के राजदूत ने अपने बयान में कहा कि अफ़ग़ानिस्तान के बामियान में गौतम बुद्ध की प्राचीन प्रतिमा को तोड़ना, गुरुद्वारों को अपवित्र करना, गुरुद्वारों में सिखों का नरसंहार, मंदिरों पर हमला और मूर्तियों को तोड़ना ग़ैर-अब्राहमी धर्मों के ख़िलाफ़ सांप्रदायिक घृणा फैलाने के नए तरीक़े हैं.
अंग्रेज़ी दैनिक द हिंदू से जुड़े जाने माने पत्रकार अमित बरुआ ने बीबीसी के साथ हुई बातचीत में कहा कि भारत ने इस मामले में बहुत असामान्य रुख़ अपनाया है.
अमित बरुआ ने कहा, "इस्लामोफोबिया एक गंभीर मुद्दा है और अच्छा है कि अब यह मामला दुनिया के मंच पर गंभीर मुद्दे के रूप में उभरा है. पहले इस्लामोफोबिया पर ध्यान न देने का एक मुख्य कारण आतंकवाद था."
हालांकि, उनका मानना है कि संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव से ज़्यादा अहम पहलू ये है कि दुनिया के तमाम देश अपने-अपने देशों में इस्लामोफोबिया के ख़िलाफ़ सख़्त क़ानून बनाएं.
भारत के रुख़ को लेकर उन्होंने कहा, "जहां तक हिंदू और सिख धर्मों के ख़िलाफ़ धार्मिक नफ़रत का सवाल है, तो ज़्यादातर यह पश्चिमी देशों की अज्ञानता का नतीज़ा हैं."
उन्होंने आगे कहा, "भारत ने अपना यह रुख़ अपने नागरिकों को संदेश देने के लिए अपनाया है."
मुसलमान भारत के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समूह हैं. देश में उनकी आबादी लगभग 14 फ़ीसदी है. इंडोनेशिया और पाकिस्तान के बाद, भारत में मुसलमानों की आबादी सबसे ज़्यादा है.
मानवाधिकार समूहों और जानकारों का मानना है कि देश में भाजपा के सत्तारूढ़ होने के बाद से मुसलमानों के ख़िलाफ़ भेदभाव, हिंसा और सांप्रदायिक घृणा की घटनाएं तेज़ी से बढ़ी हैं.
भारत में मुसलमानों के ख़िलाफ़ बढ़ते नफ़रत को लेकर संयुक्त राष्ट्र, यूरोपीय संघ, अमेरिका और कई अरब देश पिछले कुछ समय से अपनी अपनी चिंताएं जताते रहे हैं.
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