राधिका कहती हैं, "दूसरे देशों से अलग तरह से संबंध रखना और देश के भीतर अलग तरह से समुदायों को देखना, ये दो तरह की बातें हैं जो अब नहीं चल सकेंगी. बीजेपी एक तरह के दोराहे पर है कि वो कट्टर बने रहना चाहेगी है या फिर मॉडरेट (मध्यमार्गी) रास्ता अपनाना चाहेगी."
नूपुर शर्मा के मामले में सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी से जुड़े कुछ ज़रूरी सवालों के जवाब
- मानसी दाश
- बीबीसी संवाददाता
पैगंबर मोहम्मद को लेकर भड़काऊ बयान के लिए देश की सर्वोच्च अदालत ने बीजेपी की प्रवक्ता रही नूपुर शर्मा को शुक्रवार को कड़ी फटकार लगाई और कहा कि उनके बयान ने पूरे देश में अशांति का माहौल बना दिया है.
कोर्ट ने नूपुर शर्मा की टिप्पणियों को "तकलीफ़देह" बताया और कहा कि किसी पार्टी की प्रवक्ता होने का मतलब ये नहीं है कि उनके पास ऐसे बयान देने का लाइसेंस है.
कोर्ट ने ये भी कहा कि जिस तरह से नूपुर शर्मा ने देश भर में भावनाओं को उकसाया, वैसे में देश में जो भी हो रहा है उसके लिए वो अकेली ज़िम्मेदार हैं. उन्हें पूरे देश से माफ़ी मांगनी चाहिए.
बीते एक महीने से जिस तरह इस पूरे मामले ने तूल पकड़ा, देश के बाहर भी इसे लेकर कड़ी प्रतिक्रिया देखी गई और अब सुप्रीम कोर्ट ने इस पर टिप्पणी की है. ऐसे में सवाल उठता है कि क्या इसके बाद कुछ बदलेगा?
इस मामले से जुड़े क़ानूनी और राजनीतिक सवालों का जवाब हमने सुप्रीम कोर्ट के एडवोकेट विराग गुप्ता और राजनीतिक विश्लेषक राधिका रामाशेषण से समझने की कोशिश की है.
सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी: रेशियो डिसेंडाई और ओबिटर डिक्टा क्या हैं
नूपुर शर्मा मामले में सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी के क्या मायने हैं?
इस पर सुप्रीम कोर्ट के वकील विराग गुप्ता का कहना है, "सुप्रीम कोर्ट के अंतिम फैसले को आदेश या जजमेंट कहते हैं. न्यायिक आदेश के उस हिस्से को क़ानून की भाषा में रेशियो डिसेंडाई कहते हैं, जो संविधान के अनुच्छेद-141 के तहत देश की सभी अदालतों के सामने मान्य होता है. उसके पहले अंतरिम आदेश पारित किए जाते हैं जो एक निश्चित समयावधि के लिए लागू होते हैं."
"सुप्रीम कोर्ट लिखित जजमेंट में अनेक ऑब्जरवेशन भी देता है, जिन्हें कानून की भाषा में ओबिटर डिक्टा कहा जाता है. इनकी न्यायिक मान्यता नहीं होती लेकिन संवैधानिक मामलों के विश्लेषण में अदालतें इन पर गौर कर सकती हैं."
"सुप्रीम कोर्ट या अन्य अदालतों की मौखिक टिप्पणियों का मीडिया और सरकार के लिए बहुत महत्व होता है लेकिन न्यायिक दृष्टि से उनका ज्यादा महत्व नहीं होता. कोई भी बात जो सुप्रीम कोर्ट के लिखित आदेश में नहीं है उसको न्यायिक तरीके से बहुत तवज्जो नहीं दी जा सकती. तमिलनाडु में चुनावों के एक मामले में मद्रास हाईकोर्ट के जजों ने चुनाव आयोग के खिलाफ बहुत गंभीर टिप्पणी की थी. वह मौखिक टिप्पणी लिखित आदेश का हिस्सा नहीं थी."
"इसके बावजूद चुनाव आयोग ने उसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील की. सुप्रीम कोर्ट ने मई 2021 में 31 पेज के आदेश में कहा कि जो बात लिखित आदेश में शामिल नहीं है उस पर रोक या निरस्त करने का आदेश पारित करना मुमकिन नहीं है. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने यह अपेक्षा की कि न्यायिक फैसले देते समय बेवजह की और कठोर मौखिक टिप्पणियों से जजों को बचना चाहिए."
न्यायिक क्षेत्राधिकार क्या होता है?
इस मामले में नूपुर शर्मा ने अदालत से अंतरिम राहत मांगी थी. उन्होंने मांग की थी उनके खिलाफ मामलों को एक जगह ट्रांसफर किया जाए. कोर्ट ने उन्हें हाई कोर्ट जाने को कहा. ऐसे में उनके क्या अधिकार हैं?
इस सवाल पर विराग कहते हैं, "नूपुर शर्मा के खिलाफ कई राज्यों में अनेक जगहों पर एफआईआर दर्ज की गई है. सोशल मीडिया या फिर टीवी में की गई किसी भी टिप्पणी को देश-विदेश में कहीं पर भी देखा और सुना जा सकता है. इसलिए इसमें अपराध का निश्चित स्थान नहीं होता."
विराग गुप्ता कहते हैं, "व्यक्ति ने किस जगह से बोला, कहां से उसका ब्रॉडकास्ट हुआ और पीड़ित व्यक्ति कहां का निवासी है उसके अनुसार न्यायिक क्षेत्राधिकार का निर्धारण होना चाहिए. लेकिन सोशल मीडिया के मामलों में किसी भी राज्य में एफआईआर दर्ज करने का प्रचलन बढ़ गया है जो कानून का दुरुपयोग है. पुलिस की जांच को राज्य के एक थाने से दूसरे थाने में ट्रांसफर करने का अधिकार हाई कोर्ट को होता है लेकिन एक राज्य से दूसरे राज्य में मामले को ट्रांसफर करने के लिए सुप्रीम कोर्ट के पास ही न्यायिक क्षेत्राधिकार है."
क्या नूपुर शर्मा को अब हाई कोर्ट जाना होगा?
विराग गुप्ता कहते हैं, "इस मामले में सुप्रीम कोर्ट से राहत नहीं मिलने के बाद नूपुर शर्मा के मामले को निरस्त कराने के लिए हर राज्य के हाई कोर्ट में सीआरपीसी की धारा-482 के तहत याचिका दायर करनी होगी. इस मामले में यह दिलचस्प है कि दिल्ली पुलिस का कहना है कि सबसे पहले उसने एफआईआर दर्ज की है इसलिए यहीं पर प्राथमिक जांच होनी चाहिए. एक अपराध के खिलाफ कई पुलिस थानों में जांच कानून और सुप्रीम कोर्ट के फैसलों के अनुसार गलत है इसलिए अन्य राज्यों में दर्ज पुलिस एफआईआर को दिल्ली ट्रांसफर कराने के लिए नूपुर शर्मा पुलिस या फिर हाईकोर्ट के सामने अर्जी दे सकती हैं."
अगर मामला हाई कोर्ट से सुप्रीम कोर्ट पहुंचा तो फिर अदालत क्या करेगी?
इस सवाल पर उन्होंने कहा, "हाईकोर्ट से राहत नहीं मिलने पर नूपुर शर्मा उस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में विशेष अनुमति याचिका दायर कर सकती हैं. वह मामला कब और कैसे सुप्रीम कोर्ट में किस बेंच के सामने आएगा और हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ कौन से न्यायिक आधार बनाए जाएंगे, उनके अनुसार ही सुप्रीम कोर्ट नए सिरे से विचार करके फैसला करेगा."
'वक्त रहते संभलना था'
बीजेपी पर नज़र रखने वाली वरिष्ठ पत्रकार राधिका रामाशेषन कहती हैं कि बीजेपी को उसी वक्त संभलने की ज़रूरत थी जब कई देशों ने इसे लेकर आपत्ति जताई थी.
वो कहती हैं, "बीजेपी को ये समझने की ज़रूरत है कि भारत दुनिया में अलग-थलग रहने वाला देश नहीं है. वो दूसरे मुल्कों के साथ मिलकर रहता है. मलेशिया, इंडोनेशिया जैसे देश भारत के लिए आर्थिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं. दूसरे इस्लामिक देशों के साथ भी भारत के अच्छे संबंध हैं. मुझे लगता था कि अगर इस्लामिक दुनिया के देश भारत के ख़िलाफ़ कहेंगे तो क्या होगा और नूपुर शर्मा के बयान के बाद मेरा डर हकीकत में बदल गया."
वो कहती हैं, "जहां तक नूपुर शर्मा को पार्टी से निलंबित करने का सवाल है, ये कोई कार्रवाई नहीं है. उनके ख़िलाफ़ सख़्त कदम उठाने चाहिए थे. कुछ महीनों के बाद उन्हें पार्टी में वापस ले लेंगे. आने वाले वक्त में गुजरात और कर्नाटक चुनाव होने हैं उनमें उनका इस्तेमाल हो सकता है."
राधिका कहती हैं, "नवीन जिंदल, जिन्होंने सोशल मीडिया पर नूपुर का समर्थन किया था, उन्हें पार्टी से निष्कासित किया गया है, लेकिन नूपुर के साथ ऐसा नहीं है, जबकि पार्टी को उनसे पूरी तरह से दूरी बना लेनी चाहिए थी."
हालांकि राधिका कहती हैं कि बीजेपी के भीतर नूपुर को समर्थन मिला है और ये सोशल मीडिया पर भी साफ दिखा है.
'बीजेपी एक तरह के दोराहे पर है'
राधिका रामाशेषन कहती हैं, "केवल नूपुर के ख़िलाफ़ कदम उठाने से मामला ख़त्म नहीं होगा. पार्टी में तेजस्वी सूर्य, साक्षी महाराज जैसे लोगों की कमी नहीं है जो इसी भाषा शैली का इस्तेमाल करते हैं. पार्टी में ये परंपरा बन गई है."
वो कहती हैं, "विनय कटियार जैसे नेता हेट स्पीच ही देते थे, उन्हें पार्टी ने चुनाव लड़वाया. वो लोकसभा और राज्यसभा सांसद थे. लेकिन अब बीजेपी को सोचना चाहिए कि उसे कैसे देश पर शासन करना है, क्योंकि अब वो ताकतवर पार्टी बन गई है और सरकार में रहने वाली है."
बीजेपी नेता विनय कटियार विश्व हिंदू परिषद की यूथ विंग बजरंग दल की स्थापना के लिए जाने जाते हैं. अयोध्या राम जन्मभूमि बाबरी मस्जिद मामले में भी उनकी भूमिका महत्वपूर्ण रही है. उन पर बाबरी मस्जिद तोड़ने के लिए लोगों को भड़काने का आरोप है.
राधिका कहती हैं, "दूसरे देशों से अलग तरह से संबंध रखना और देश के भीतर अलग तरह से समुदायों को देखना, ये दो तरह की बातें हैं जो अब नहीं चल सकेंगी. बीजेपी एक तरह के दोराहे पर है कि वो कट्टर बने रहना चाहेगी है या फिर मॉडरेट (मध्यमार्गी) रास्ता अपनाना चाहेगी."
हिंदुत्व के एजेंडे का क्या होगा?
लेकिन अगर बीजेपी से मध्यमार्गी रास्ता अपनाने की बात की जाए तो फिर सवाल ये भी उठेगा कि उसके हिंदुत्व के एजेंडे का क्या होगा.
राधिका कहती हैं, "ये पार्टी के खुद के लिए विरोधाभासी बात है. महाराष्ट्र में शिवसेना के ख़िलाफ बीजेपी का यही आरोप था कि सरकार बनाने के लिए वह कांग्रेस और एनसीपी से हाथ मिलाकर हिंदुत्व के रास्ते से हट गई है."
"बीजेपी के सामने अब मूल प्रश्न ये है कि वो क्या करे, अगर वो हिंदुत्व का एजेंडा छोड़ती है तो पार्टी का अस्तित्व ही नहीं रहेगा, वो खोखली हो जाएगी. हिंदुत्व कार्यकर्ता और नेता इस विचारधारा से उनके साथ जुड़े हैं, अब वो इससे अलग नहीं हो सकते. सोशल मीडिया इसकी गवाह है कि पार्टी काडर से बाहर के लोग भी पार्टी की इस विचारधारा को समर्थन देते हैं."
"लेकिन ये बात भी सच है कि ये पूरा मामला अब गहराने लगा है. बीजेपी को अपने रुख़ को नरम करना अब आसान नहीं होगा, इस विचारधारा को छोड़ने की बात तो उसके लिए असंभव ही है. लेकिन यही पार्टी के सामने सबसे बड़ी चुनौती है.''
क्या है पूरा मामला?
ये पूरा मामला महीने भर पहले एक टीवी डिबेट से शुरू हुआ था. ज्ञानवापी मस्जिद को लेकर हो रहे इस डिबेट के दौरान नूपुर शर्मा ने पैगंबर मोहम्मद पर आपत्तिजनक टिप्पणी की थी. उस वक्त वो बीजेपी की प्रवक्ता थीं.
इस मामले पर विवाद कुछ दिन बाद तब बढ़ा जब एक पत्रकार ने इसका वीडियो सोशल मीडिया पर शेयर किया. ये वीडियो वायरल हो गया.
इसके बाद ऑर्गेनाइज़ेशन ऑफ़ इस्लामिक कॉऑपरेशन समेत एक के बाद एक कई देशों ने इसकी निंदा की. इनमें से कुछ देशों ने भारत से इस मामले में माफी मांगने तक को कहा.
मामला बढ़ा तो बीजेपी ने नूपुर शर्मा को पार्टी से निलंबित कर दिया और भारत सरकार ने एक बयान जारी कर इसके लिए कुछ 'फ़्रिंज एलिमेंट' यानी शरारती तत्वों को ज़िम्मेदार ठहराया और कहा कि ये भारत सरकार के विचारों को नहीं दर्शाते.
नूपुर शर्मा ने माफ़ी भी मांगी और बयान भी वापस लिया था. लेकिन मामला थमा नहीं, इसे लेकर कई जगहों पर विरोध प्रदर्शन हुए, कहीं-कहीं हिंसा भी हुई.
सुप्रीम कोर्ट तक मामला कैसे पहुंचा?
नूपुर शर्मा के ख़िलाफ़ देश के अलग-अलग राज्यों में कई एफ़आईआर दर्ज हुई, नूपुर ने इन सभी को दिल्ली शिफ़्ट करने के लिए सुप्रीम कोर्ट में अर्ज़ी दी थी.
इस मामले की सुनवाई करते हुए कोर्ट ने सवाल किया कि टीवी चैनल का एजेंडा चलाने के अलावा ऐसे मामले पर डिबेट करने का क्या मक़सद था, जो पहले ही न्यायालय के अधीन है.
कोर्ट ने कहा, "अगर आप एक पार्टी की प्रवक्ता हैं, तो आपके पास इस तरह के बयान देने का लाइसेंस नहीं है. जिस तरह से नूपुर शर्मा ने देशभर में भावनाओं को उकसाया, वैसे में देश में जो भी हो रहा है उसके लिए वो अकेली ज़िम्मेदार हैं."
"जब आपके ख़िलाफ़ एफ़आईआर हो और आपको गिरफ़्तार नहीं किया जाए, तो ये आपकी पहुंच को दिखाता है. उन्हें लगता है उनके पीछे लोग हैं और वो ग़ैर-ज़िम्मेदार बयान देती रहती हैं."
कोर्ट ने नूपुर शर्मा को हाई कोर्ट जाने को कहा है.
नूपुर शर्मा की टिप्पणी का उदयपुर में हुई हत्या से कनेक्शन
इस मामले की आंच फिर तब महसूस हुई जब राजस्थान के उदयपुर में दो युवकों ने एक हिंदू दर्जी कन्हैयालाल की गला रेतकर हत्या कर दी.
सुप्रीम कोर्ट ने अपनी टिप्पणी में इसी मामले का जिक्र किया.
हत्या करने वाले दोनों अभियुक्तों ने वीडियो बनाकर इसकी ज़िम्मेदारी भी ली. इसके बाद से उदयपुर में स्थिति तनावपूर्ण है. वहां धारा 144 लागू है और चप्पे-चप्पे पर पुलिस बल तैनात है.
बीबीसी संवाददाता नितिन श्रीवास्तव के अनुसार यहां माहौल में तनाव स्पष्ट दिख रहा है.
30 जून को कुछ संगठनों ने यहां पर एक जुलूस निकाला, इसमें ख़ास तौर से युवा और कुछ महिलाएं शामिल थीं जो धार्मिक नारेबाज़ी कर रहीं थीं और कन्हैयालाल की हत्या का 'बदला लेने की' धमकियां भी दे रहीं थी.
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