सऊदी अरब का यह रुख़ क्या भारत को परेशान करेगा
- रजनीश कुमार
- बीबीसी संवाददाता
अमेरिका ने 20 साल पहले जब इराक़ पर हमला किया था, तो वह पश्चिम एशिया में बड़ी ताक़त था.
अब जब चीन ने सऊदी अरब और ईरान को दुश्मनी छोड़ राजनयिक संबंध बहाल करने पर राज़ी कराया, तो अमेरिका तमाशबीन रहा.
कहा जा रहा है कि अब अमेरिका के दबदबे वाली विश्व व्यवस्था बदल रही है और वह इसे रोकने में ख़ुद को असमर्थ पा रहा है.
आलम यह है कि अब अमेरिका की न केवल सऊदी अरब और ईरान नहीं सुन रहे हैं, बल्कि उसका परम मित्र इसराइल भी नहीं सुन रहा है.
दूसरे विश्व युद्ध की समाप्ति और ख़ासकर सोवियत यूनियन के पतन के बाद पश्चिम एशिया में अमेरिका मुख्य ताक़त के रूप में रहा है.
विश्व व्यवस्था में जारी उलट-पुलट का असर भारत पर कैसा होगा?
यूक्रेन पर रूसी हमले के बाद रूस और चीन की दोस्ती में आई मज़बूती को भारत के लिए चिंता के रूप में देखा जा रहा है. कहा जा रहा है कि चीन पर रूस की बढ़ती निर्भरता भारत के लिए सुरक्षा ख़तरे के रूप में देखी जानी चाहिए.
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भारत अपनी सुरक्षा ज़रूरतों के लिए रूस पर निर्भर है और भारत के लिए चीन को सुरक्षा ख़तरे के रूप में देखा जाता है.
रूस और चीन की दोस्ती का भारत पर क्या असर होगा, इसकी चिंताएँ ख़त्म भी नहीं हुई थीं कि अब चीन और सऊदी की बढ़ती क़रीबी की चुनौती भारत के सामने आ गई है. रूस पर भारत सैन्य उपकरणों के लिए निर्भर है, तो सऊदी अरब पर ऊर्जा सुरक्षा को लेकर.
सऊदी अरब में भारत के राजदूत रहे तमलीज़ अहमद का मानना है कि मध्य-पूर्व में चीन जिस तरीक़े से आगे बढ़ रहा है, उसके मुक़ाबले भारत की कोई तैयारी नहीं है.
तलमीज़ अहमद ने वरिष्ठ पत्रकार करण थापर से बातचीत में कहा है, ''भारत को सतर्क हो जाना चाहिए. भारत को घरेलू राजनीति में समय गँवाने से बाज आने की ज़रूरत है. मैं बार-बार कहता हूँ और इसे फिर से कह रहा हूँ कि वसुधैव कुटुंबकम के दर्शन को पहले घर में लागू करना चाहिए तब विदेश में इसे कोई स्वीकार करेगा. आपको ऐसा लगता है कि भारत में जो कुछ हो रहा है, उससे विदेश में लोग अनभिज्ञ हैं? इसलिए भारत को विश्वसनीय, गंभीर और लंबी अवधि के विज़न के साथ आगे बढ़ना चाहिए. भारत की अब भी मध्य-पूर्व में प्रतिष्ठा है और इसे मज़बूत करने का मौक़ा अब भी है.''
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भारत के लिए अमेरिका के दबदबे वाली दुनिया बेहतर है या चीन के दबदबे वाली?
इस सवाल का जवाब भारत की विदेश नीति की दिशा में खोजा जा सकता है. भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर कई बार बहुध्रुवीय व्यवस्था वाली दुनिया की बात कर चुके हैं. भारत किसी एक गुट या एक देश के दबदबे का समर्थन नहीं करता है.
भारत अगर चीन के नेतृत्व वाले संगठन एसएसीओ और ब्रिक्स में है, तो अमेरिका के नेतृत्व वाले क्वॉड और I2U2 में भी है.
लेकिन क्या भारत की यह नीति रूस और सऊदी अरब की चीन से बढ़ती क़रीबी की चुनौती से निपटने के लिए पर्याप्त है?
सऊदी और अमेरिका की क़रीबी भारत के हित में मानी जाती थी, लेकिन चीन से बढ़ती क़रीबी को भारत के हितों के ख़िलाफ़ देखा जा रहा है.
सऊदी अरब की कैबिनेट ने बुधवार को शंघाई कोऑपरेशन ऑर्गेनाइज़ेशन यानी एससीओ में शामिल होने की मंज़ूरी दे दी.
सऊदी अरब के इस फ़ैसले को चीन से उसकी बढ़ती क़रीबी और अमेरिका के प्रति बढ़े अविश्वास के रूप में देखा जा रहा है.
सऊदी की सरकारी समाचार एजेंसी एसपीए के अनुसार, सऊदी अरब ने एससीओ में डायलॉग पार्टनर के रूप में शामिल होने की मंज़ूरी दे दी है.
एससीओ एक राजनीतिक और सुरक्षा गुट है, जिसमें चीन, रूस, भारत, पाकिस्तान और मध्य एशिया के कई देश हैं.
एससीओ का गठन 2001 में रूस, चीन और सोवियत यूनियन के हिस्सा रहे मध्य एशिया के देशों ने किया था.
बाद में इसमें पाकिस्तान और भारत शामिल हुए थे. एससीओ को एशिया में पश्चिम के बढ़ते प्रभाव को रोकने के तौर पर भी देखा जाता है.
समाचार एजेंसी रॉयटर्स के मुताबिक़ चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग जब पिछले साल दिसंबर महीने में सऊदी अरब गए थे, तभी एससीओ में शामिल होने को लेकर बात हुई थी. एससीओ की पूर्णकालिक सदस्यता लेने के लिए डायलॉग पार्टनर के रूप में शामिल होना पहला क़दम है.
एससीओ में शामिल होने की मंज़ूरी देने से पहले मंगलवार को सऊदी अरब की सरकारी तेल कंपनी अरामको ने चीन में अरबों डॉलर के निवेश की घोषणा की थी.
चीन और सऊदी अरब की बढ़ती क़रीबी से अमेरिका की सुरक्षा चिंताओं का बढ़ना लाजिमी है. पिछले साल ईरान भी एससीओ में शामिल हुआ था.
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