एके हंगल, जिन्होंने कराची में दर्ज़ियों की हड़ताल करवाई
शोले फ़िल्म के रहीम चाचा एके हंगल, जिन्होंने कराची में दर्ज़ियों की हड़ताल करवाई
- रियाज़ सोहैल
- बीबीसी उर्दू, कराची
एक सुबह जब अवतार कृष्ण कराची की एलफ़िन्सटन स्ट्रीट की टेलरिंग वर्कशॉप पर पहुंचे तो वहां के मालिक ने उन्हें एक लिफ़ाफ़ा थमा दिया.
इसमें लिखा था कि हमें आपकी सेवाओं की और ज़रूरत नहीं…उन समेत दूसरे कर्मचारियों को भी ऐसे ही लिफ़ाफ़े दिए गए थे.
यह ख़बर पूरे कराची में फैल गई. शहर में टेलरिंग के काम से जुड़े सभी कर्मचारियों ने इसका विरोध किया और दूसरे दिन पूरे शहर के दर्ज़ियों ने हड़ताल कर दी.
कराची में सन 1946 में यह दर्ज़ियों की पहली हड़ताल थी. इसका नेतृत्व दर्ज़ी यूनियन के अध्यक्ष एके हंगल कर रहे थे जो बाद में बॉलीवुड के मशहूर अभिनेता बने और शोले फ़िल्म में उन्होंने रहीम चाचा का किरदार अदा किया, जिसमें उनका डायलॉग ‘इतना सन्नाटा क्यों है भाई’ मशहूर हुआ.
ब्रिटिश अफ़सर के घर बाग़ी का जन्म
अवतार कृष्ण हंगल, जो एके हंगल के नाम से जाने जाते हैं, का जन्म सियालकोट में हुआ, जहाँ उनका ननिहाली घर था. वह अपनी आत्मकथा में लिखते हैं कि उनके मामा खद्दरधारी राष्ट्रवादी थे.
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उनके पड़ोस में एक प्राइमरी स्कूल था, जिसको आर्य समाजी राष्ट्रवादी चलाते थे और उनके मामा भी उन्हीं से जुड़े हुए थे.
एके हंगल की मां की उनके बचपन में ही मौत हो गई थी और इसलिए उनको उनकी बड़ी बहन ने पाला.
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उनका संबंध कश्मीरी पंडित घराने से था. उनके परिवार वाले पहले श्रीनगर से लखनऊ में बसे. इसके बाद उनके दादा पंडित दयाकिशन पेशावर आ गए.
एके हंगल के अनुसार, उनके दादा पेशावर के पहले मैजिस्ट्रेट थे जबकि उनके दादा के कज़न जस्टिस शंभूनाथ पंडित बंगाल हाई कोर्ट के पहले भारतीय जज रहे.
एके हंगल लिखते हैं कि उन्होंने ही वायसराय को ख़त लिखकर दादा की सिफ़ारिश की थी जिसके बाद उन्हें सरकारी नौकरी मिली.
अपने वक़्त के पेशावर शहर को याद करते हुए एके हंगल लिखते हैं कि पेशावर क़िलों वाला शहर था और शहरी आबादी को ब्रिटिश छावनी अलग करती थी.
यह शहर रात को बंद कर दिया जाता था. यहां बहुसंख्यक आबादी मुसलमानों की थी. इसके अलावा हिंदू आबादी भी थी. उनका घर रैयती गेट के सामने हुआ करता था. यह एक दो मंज़िला इमारत थी और वह किराए पर रहते थे.
धार्मिक सद्भावना एके हंगल को शुरुआती शिक्षा के दौरान ही मिल चुकी थी. उनके अनुसार, वह ख़ालसा हाई स्कूल में पढ़ते थे जो एक क़िले के सामने था.
यहां उन्होंने सिख धर्म की भी कुछ बातें सीखीं. इससे पहले प्राइमरी स्कूल में इस्लाम धर्म की जानकारी ली थी जबकि घर में हिंदू धर्म के रीति रिवाज पर चलते थे.
एके हंगल जब होश संभाल रहे थे तो उस वक़्त ख़ैबर पख़्तूनख़्वा में ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान उर्फ़ बादशाह या बाचा ख़ान का ख़ुदाई ख़िदमतगार आंदोलन सक्रिय था.
बादशाह ख़ान गांधी के साथी समझे जाते हैं. उस समय महान क्रांतिकारी भगत सिंह और उनके साथी गिरफ़्तार हो चुके थे.
उन दोनों व्यक्तियों की जद्दोजहद ने एके हंगल के व्यक्तित्व को बचपन में प्रभावित किया और वह स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ गए थे.
वह लिखते हैं, “एक दिन स्कूल के बाहर से किसानों का जुलूस गुज़रते देखा. प्रदर्शनकारियों ने लाल शर्ट पहन रखी थी और एक लंबे क़द का पठान उनका नेतृत्व कर रहा था. यह ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान थे. वह इंक़लाब ज़िंदाबाद के नारे लगा रहे थे. उसी साल भगत सिंह और उनके साथियों को गिरफ़्तार किया गया था.”
भगत सिंह के लिए दया की अपील के लिए हस्ताक्षर अभियान शुरू किया गया ताकि वायसराय को भेजकर उनकी ज़िंदगी बचाई जा सके. इस अभियान में एके हंगल भी शामिल रहे लेकिन ब्रितानी सरकार अपनी बात पर अड़ी थी कि उन्हें फांसी दी जाएगी और एक दिन भगत सिंह को फांसी पर चढ़ा दिया गया.
एके हंगल लिखते हैं कि ब्रिटिश सरकार ने भगत सिंह और सुखदेव को फांसी दे दी तो शहर में क्रांतिकारी गतिविधियों शुरू हो गईं. वह ख़ुफ़िया संदेश भेजने के लिए बतौर कूरियर काम करते थे.
एक दिन उनके पिता, जो ब्रितानी कर्मचारी थे, को पुलिस के ज़रिए उनकी सरगर्मियों की जानकारी मिली तो उन्होंने सख़्ती से दूर रहने की ताकीद की और नसीहत की कि खद्दर पहन लो लेकिन इन गतिविधियों से दूर रहो.
एके हंगल लिखते हैं कि उन्हें याद है के 23 मार्च 1931 के दिन शाही बाग में भगत सिंह की फांसी के बाद जब शोक सभा आयोजित की गई थी तो उस मौक़े पर एक पश्तो शायर ने ऐसी शायरी सुनाई थी, जिसे सुनकर सभा में मौजूद सभी लोग रोने लगे थे. इसकी आख़िरी लाइन थी- सरदार भगत संगत सरदार भगत सिंह. उस सभा को कांग्रेस नेता अब्दुल रब नश्तर ने भी संबोधित किया था.
क़िस्साख़्वानी बाज़ार में क़त्ल-ए-आम
पेशावर के क़िस्साख़्वानी बाज़ार में एक स्मारक मौजूद है. इस जगह की एक ख़ूनी पृष्ठभूमि है. इसके साथ अब दुआ करने वाले हाथ भी बनाए गए हैं.
एके हंगल 23 अप्रैल 1930 को क़िस्साख़्वानी बाज़ार में होने वाले इस क़त्ल-ए-आम के भी चश्मदीद गवाह थे.
हंगल लिखते हैं, “जब बाचा ख़ान को गिरफ़्तार किया गया था और उनकी रिहाई के लिए लोग इकट्ठा हुए तो उन प्रदर्शनकारियों पर फ़ायरिंग की गई थी, जिसमें सरकारी आंकड़ों के अनुसार, 20 लोगों की जान चली गई थी जबकि ग़ैर सरकारी गिनती 200 के आसपास थी.
एके हंगल के अनुसार, क़िस्साख़्वानी बाज़ार की दोनों तरफ़ दुकानें हुआ करती थीं, जिनमें तरबूज़, ताज़ा फल और सूखे मेवे मिलते थे.
बचपन की एक घटना ने उन्हें हिला कर रख दिया था. हुआ यह कि एक दिन गर्मी के दिनों में स्कूल के बड़े बच्चे बात कर रहे थे कि आज काबुली गली में कोई प्रदर्शन होगा.
वह भी वहां चले गए. चारों तरफ़ भीड़ थी. जैसे ही पुलिस ने उन्हें रोकने की कोशिश की तो इंक़लाब ज़िंदाबाद के नारे लगने लगे.
“पुलिस ने काबुली गेट बंद कर दिया. अधिकारी पास के कैंटोनमेंट से संपर्क में थे. इसी दौरान मिलिट्री ट्रक पहुंच गया और सशस्त्र सिपाहियों ने बंदूक़ों का रुख़ प्रदर्शनकारियों की ओर कर दिया लेकिन किसी ने डर नहीं दिखाया और आगे बढ़ते गए.”
“उनका संबंध गढ़वाल रेजीमेंट से था, जिसका नेतृत्व चंदर सिंह गढ़वाली कर रहे थे. ब्रिटिश सैनिकों ने घेराव कर लिया और उन्होंने सीधी फ़ायरिंग की. इसमें बच्चों को भी नहीं बख़्शा गया.”
उस दिन उन्होंने सड़कों पर ख़ून देखा जो देश प्रेमी मुसलमानों, हिंदुओं और सिखों का था.
एके हंगल लिखते हैं कि जब लोग बिखर गए और वह घर की तरफ़ लौटे तो उनके कपड़ों पर ख़ून के धब्बे लगे हुए थे. जब वह घर पहुंचे तो किसी ने भी उनके क़िस्साख़्वानी बाज़ार जाने पर ख़ुशी ज़ाहिर नहीं की.
“पिताजी जब वापस आए तो वह ग़ुस्से में थे. उनके मन में एक और डर भी था क्योंकि ऐसे अधिकारी जिनके परिवार का कोई व्यक्ति सरकार के ख़िलाफ़ गतिविधियों में शामिल हो उसे सस्पेंड कर दिया जाता था.”
जजों और कमिश्नरों का परिवार क्या दर्ज़ी का काम करेगा?
एके हंगल ने मैट्रिक थर्ड डिवीज़न में पास किया. उनके पिता चाहते थे कि वह सरकारी नौकरी कर लें और चीफ़ कमिश्नर को आवेदन दें क्योंकि सरकारी कर्मचारियों के बच्चों को प्राथमिकता दी जाती थी लेकिन उन्होंने ऐसा करना उचित नहीं समझा.
एके हंगल लिखते हैं कि उनके पिता के एक दोस्त, जो इंग्लैंड में थे, उनसे मुलाक़ात के लिए आए तो उनसे करियर पर भी बातचीत हुई. उन्होंने कहा कि बेटा “तुम टेलरिंग क्यों नहीं सीखते? यह काम तो तुम आज़ाद तौर पर भी कर सकते हो और यह बढ़ता हुआ कारोबार है.”
“उन्होंने कहा कि वह इंग्लैंड में ट्रेनिंग दिला सकते हैं. फिर वह पेशावर लौट आएं, जहां इसकी मांग है.”
उन्हें यह आइडिया पसंद आया लेकिन पिता ने यह कहकर इसका विरोध किया कि जजों और कमिश्नरों का परिवार क्या अब दर्ज़ी का काम करेगा.
“अगर 500 रुपये वापस न किए तो परिवार का चेहरा भी ना देखना”
मायूस होकर हंगल दिल्ली चले गए, जहां उनकी बहन रहती थीं. उनके बहनोई उन्हें एक दर्ज़ी के पास ले गए जो अंग्रेज़ी स्टाइल सूट बनाते थे. उसने कहा कि वह 500 रुपये लेगा और यह ट्रेनिंग दो साल जारी रहेगी.
हंगल लिखते हैं कि यह एक बड़ी रक़म थी. उन्होंने मदद के लिए पिता को चिट्ठी लिखी लेकिन उन्होंने इनकार कर दिया. उन्होंने दूसरी चिट्ठी लिखी तो पिता ने इस चेतावनी के साथ रक़म भिजवाई कि अगर पैसे वापस न किए तो परिवार का चेहरा भी न देखना.
दो साल दिल्ली में बिताकर वह पेशावर आए, जहां उन्होंने अपनी दुकान खोली और अपनी ज़िंदगी में भी बदलाव लाए.
खादी छोड़ दी और अच्छे मॉडर्न कपड़े पहनना शुरू किया ताकि कस्टमर पर इसका असर पड़े. प्रोफ़ेशनल ज़िंदगी में क़दम रखते ही पिता ने उनसे शादी करने की फ़रमाइश कर दी और उन्होंने इसको क़बूल कर लिया.
स्टेज ड्रामा और गायकी के शौक़ के बारे में वह कहते हैं, “बचपन में पिता मुझे संगीत की महफ़िलों में ले जाते थे. वह उसके रसिया थे और मुझे भी संगीत से लगाव होने लगा.”
वह ख़ुद बांसुरी बजाते थे. गर्मी के मौसम में जब अंग्रेज़ दफ़्तरों को नथिया गली के ठंडे इलाक़े में ले जाते तो वह भी पिता के साथ चले जाते और वहां वादियों में बांसुरी बजाते थे.
एके हंगल लिखते हैं कि उन्होंने उस्ताद ख़ुदा बख़्श से संगीत सीखना शुरू किया. उसके बाद महाराज वाशिंदास से तबला बजाना सीखा और वह म्यूज़िक और ड्रामा क्लब श्री संगीतप्रिय मंडल के सदस्य बन गए. उन्होंने पहला ड्रामा उर्दू में किया जिसका नाम था ‘ज़ालिम कंस’.
पेशावर में सन 1935 में रेडियो स्टेशन बना तो एके एंगल ने वहां गायन शुरू कर दिया. वह कहते हैं कि उस वक़्त ऑडियो बैलेंस और मिक्सिंग की कोई कल्पना तक नहीं थी. बस एक माइक्रोफ़ोन होता था और सभी संगीत के यंत्र उसके साथ होते थे और शोर में गायक की आवाज़ बैठ जाती थी.
कराची में भी क़िस्मत नहीं जागी
एके हंगल की कोशिशों के बावजूद पेशावर में उनका टेलरिंग का काम चल नहीं सका इसलिए पिता ने उन्हें राय दी कि वह कराची चले जाएं.
वह टेलरिंग के काम से जुड़े मार्केट को जांचने के लिए कराची पहुंचे, फिर वापस आकर पेशावर को अलविदा कहा और पिता, बीवी और बेटे के साथ कराची चले आए. उनके अनुसार यह सन 1940 की बात थी.
कराची की ऑक्सफ़ोर्ड स्ट्रीट समझे जाने वाली एलफ़िन्सटन स्ट्रीट पर एके हंगल ने दुकान खोली जो उस वक़्त का पॉश और फ़ैशनेबल इलाक़ा था.
एके हंगल के अनुसार, कराची के बारे में उनकी राय यह थी कि यह आधुनिक और आर्थिक केंद्र है, जहां सड़कें चौड़ी थीं और फ़ुटपाथ बने थे.
यहां उन्होंने पहली बार लड़कियों को मॉडर्न कपड़े में देखा जिनमें सिंधी हिंदू लड़कियां भी थीं. उस समय पेशावर में लड़कियां सलवार क़मीज़ पहनती थीं.
कराची में भी हंगल की क़िस्मत का तारा नहीं चमक सका और आख़िर में उन्हें यह दुकान बंद करनी पड़ी. एक दिन एक दोस्त ने उन्हें बताया कि शहर में एक बड़ी कंपनी ईश्वर दास एंड संस के पास एक ‘कटर’ (कपड़े काटने वाले हुनरमंद) की जगह ख़ाली है.
वह अच्छा लिबास पहन कर वहां गए. मालिक ने यह देखकर कि वह एक शिक्षित व्यक्ति हैं, उन्हें 400 रुपये महीने की नौकरी दे दी और वह वहां चीफ़ कटर बन गए. इसके साथ मालिक से उनकी दोस्ती भी हो गई.
एके हंगल की आर्थिक स्थिति जब बेहतर हुई तो उन्होंने अपने पुराने शौक़ संगीत और ड्रामा की ओर ध्यान देना शुरू किया और ऐसे दोस्त जमा करने की कोशिश की जिनका शौक़ एक जैसा हो.
उन्होंने एक क्लब बनाया, जिसका नाम हार्मोनिका क्लब रखा और इसके लिए कुछ ड्रामे लिखे जिन्हें उन्होंने डायरेक्टर भी किया. इस तरह कराची में स्टेज थिएटर में उनका नाम जान पहचान में आने लगा.
क्रांतिकारी राजनीति और कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता
दूसरे विश्व युद्ध के बाद जब रूस और ब्रिटेन का समझौता हुआ तो उसके राजनीतिक प्रभाव भारत पर भी नज़र आने लगे. सेंसरशिप में कमी आई और कम्युनिस्ट साहित्य भारत आने लगा.
कराची में कांग्रेस, सिंध सभा और मुस्लिम लीग सक्रिय थी, जबकि कम्युनिस्ट पार्टी ने भी यहाँ अपने क़दम रखे थे. क़ादिर बख़्श अपनी किताब ‘बलोच क़ौमी तहरीक’ में लिखते हैं, “सन 1939 की शुरुआत में सिंध बलूचिस्तान कमिटी ऑफ़ इंडियन कम्युनिस्ट पार्टी बनाई गई और वह इसके पहले सेक्रेटरी चुने गए. बाद में मीर ग़ौस बख़्श बिज़िनजो भी इसमें शामिल हुए लेकिन सन 1942 तक मतभेद के कारण वह दोनों अलग हो गए. इस साल कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया ने सैयद जमालुद्दीन बुख़ारी को कराची भेजा.
हिशू केवलरानी, जो लंदन में पढ़ रहे थे, मार्क्सवादी विचार से प्रभावित होकर कराची लौट आए. ‘हिशू केवलरानी- न भूलने वाली शख़्सियत’ के लेखक मदद अली सिंधी लिखते हैं कि उन्हें जीएम सैयद अपना उस्ताद समझते थे.
एके हंगल लिखते हैं कि उनके घर के पास केवलरानी रहते थे. उनसे उन्होंने राजनीतिक शिक्षा ली और उसके बाद कम्युनिस्टों के प्रोग्राम में जाना शुरू किया.
वह कॉमरेड जमालुद्दीन बुख़ारी को पसंद करते थे जो सिंध कम्युनिस्ट पार्टी के सेक्रेटरी थे. वह जल्द ही कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य बन गए और ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस में भी शामिल हो गए.
“कॉमरेड यूनियन बनाओ और लड़ो”
एके हंगल ने जब कम्युनिस्ट विचारधारा के तहत वर्ग विभाजन का दृष्टिकोण अपनाया तो उन्हें पहला अंतर अपने कारख़ाने में नज़र आया, जहां साप्ताहिक छुट्टी और मेडिकल छुट्टी नहीं मिलती थी और काम के समय का भी कोई ठिकाना नहीं था.
वह लिखते हैं कि उन्होंने पार्टी नेतृत्व से मशवरा किया, जिन्होंने हंगल से कहा, “कॉमरेड यूनियन बनाओ और लड़ो, हम रास्ता बताएंगे.”
एके हंगल लिखते हैं कि पहला क़दम यूनियन बनाना था. उन्होंने अपने साथी वर्कर से बात की और उसके बाद दूसरी दुकानों के वर्कर्स को भी साथ मिलाया.
वह यूनियन की सभा में पार्टी के नेताओं को भी बुलाते जो वहां जाकर भाषण देते. इसके बाद यह फ़ैसला किया गया कि कराची की सभी टेलरिंग दुकान एक दिन की हड़ताल करेंगी. उस दिन जुलूस भी निकाला गया.
उन्होंने कराची टेलरिंग वर्कर्स यूनियन का औपचारिक तौर पर ऐलान किया, जिसका उन्हें अध्यक्ष बनाया गया. इसके साथ मालिकों को भेजने के लिए एक मसौदा तैयार किया गया.
इसमें तीन बुनियादी बातें शामिल थीं. यूनियन को मंज़ूरी दें, शॉप ऐंड इस्टैब्लिशमेंट ऐक्ट का पालन करें और पीस वर्कर्स को भी कर्मचारी मानें.
एके हंगल कहते हैं कि मालिक ग़ुस्से में थे. उन्होंने कभी नहीं सोचा था कि सामूहिक आंदोलन चलेगा. उन्होंने समय मांगा और कहा कि लिखित तौर पर जवाब देंगे.
उनके अपने मालिक भी नाराज़ हो गए और हड़ताल करने पर उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया. अदालत में कर्मचारी के अधिकार और नौकरी पर बहस होती रही.
एके हंगल और उनके साथियों को ज़मानत पर रिहाई मिली और वह कम्युनिस्ट पार्टी के पूर्णकालिक सदस्य बन गए लेकिन अब उन्हें कोई नौकरी पर रखने के लिए तैयार नहीं था.
बाद में उन्हें पार्टी का कराची सेक्रेटरी बनाया गया.
कराची में इसी दौरान नेवी ने बग़ावत कर दी. कम्युनिस्ट पार्टी ने उनके समर्थन में हड़ताल की अपील की. एके हंगल लिखते हैं कि उनका छोटा राजनीतिक समूह था लेकिन यह हड़ताल कामयाब रही.
सिंध के कम्युनिस्ट नेता शोभू ज्ञानचंदानी लिखते हैं कि नेवी के विद्रोह के समय कराची के नागरिकों में जागरूकता लाने में एके हंगल की अहम भूमिका थी. वह पार्टी के धुआंधार वक्ता थे और कॉमरेड बुख़ारी के वफ़ादार साथी थे.
कराची में दंगे और गिरफ़्तारी
कराची में जनवरी 1948 में होने वाले दंगे में हिंदू और सिख समुदाय को निशाना बनाया गया. उस समय हंगल भारत में किसी काम से गए हुए थे.
वह बताते हैं कि जब स्टीमर से मुंबई से कराची के लिए निकले तो यह स्टीमर मुसलमान पंजाबी सिपाहियों से भरा हुआ था. वह जहाज़ पर अकेले ग़ैर मुस्लिम थे.
भारतीय कप्तान उनकी मुश्किल समझ गया और उसने राय दी कि नीचे अस्पताल के बेड पर चले जाओ और यह ज़ाहिर करो कि तुम बीमार हो, बाहर निकल कर किसी से भी बात नहीं करना.
जब वह कराची पहुंचे थे तो वहां कर्फ़्यू लगा हुआ था. वह सीधे पार्टी ऑफिस पहुंचे मगर रास्ते में एक यूनियन वर्कर मिला जिसने बताया कि उनके घर के आस-पास लूटमार हुई है लेकिन उनका बेटा और बीवी सुरक्षित हैं.
एके हंगल लिखते हैं कि कम्युनिस्ट पार्टी ने शहर में अमन के लिए रैली निकाली, लोगों से अपील की कि शांति बनाए रखें और लूटा हुआ सामान वापस करें. उन्हें उसमें कुछ कामयाबी भी मिली.
विभाजन के तुरंत बाद कम्युनिस्ट पार्टी एक बार फिर परेशानी में पड़ गई. 1948 को कॉमरेड जमाल बुख़ारी को पार्टी की ज़िम्मेदारी से हटा दिया गया और भारत से सज्जाद ज़हीर को पार्टी के सेक्रेटरी जनरल के तौर पर भेजा गया.
एके हंगल के अनुसार पार्टी में बहुत बहस के बाद यह लाइन पास हुई कि भारत और पाकिस्तान की आज़ादी असली आज़ादी नहीं थी जिसके ख़िलाफ़ प्रदर्शन किया गया. उन्होंने भी इस लाइन को अपनाया और उन समेत सभी महत्वपूर्ण पार्टी नेता गिरफ़्तार किए गए.
गिरफ़्तार होने वालों में एके हंगल के अलावा शुभो ज्ञानचंदानी, कीरत भवानी, गुलाब भगवानी और ऐनशी विद्यार्थी शामिल थे.
एके हंगल की पत्नी
शुभो ज्ञानचंदानी लिखते हैं, “जेल में एके हंगल को दर्ज़ी ख़ाने का प्रमुख बनाया गया. वह सूपेरिंटेंडेंट और जेलर के कपड़े बनाते थे, जिससे कुछ नरमी बरती गई और इस तरह एके हंगल टेलर मास्टर की बीवी हमारे संदेश पार्टी तक पहुंचाती थीं.”
कीरत भवानी लिखते हैं, “एके हंगल की पत्नी और पोहोमल के पिता मुलाक़ात के लिए आते थे और उन्हें बाहर के हालात की जानकारी दे जाते थे.”
शुभो लिखते हैं, “सब मांसाहारी थे, सब्ज़ी मुश्किल से गले से उतरती थी लेकिन यह यार (हंगल) इतना ही शुद्ध शाकाहारी था जो बहुत कोशिश के बावजूद हम जैसा नहीं बन सका था. हालांकि उसकी कोशिश होती थी कि खाने-पीने की ब्राह्मणीय सीमाएं तोड़कर हम जैसा बन जाए.”
“एक बार तो अपनी बीवी से फ़रमाइश करके गोश्त बनवाया और सब्ज़ियां मंगवाईं लेकिन टिफ़िन बॉक्स खोलते ही हमारी तरफ़ धकेल दिया और उल्टियां करते रहे.”
धर्म के आधार पर क़ैदियों का बँटवारा
विभाजन के बाद सिपहियों और सरकारी कर्मचारियों के बंटवारे के साथ-साथ क़ैदियों का भी बंटवारा किया गया. एके हंगल लिखते हैं कि जब क़ैदियों का बंटवारा हो रहा था तो उसमें कॉमरेड जमालुद्दीन बुख़ारी शामिल नहीं थे. कॉमरेड शुभो ज्ञानचांदी, ऐनशी, पोहोमल, गुलाब और उन्होंने फ़ैसला किया कि वह भारत नहीं जाएंगे.
हंगल लिखते हैं, “हमने टाइम्स ऑफ़ इंडिया में पढ़ा था कि क़ैदियों के बंटवारे में उनकी रज़ामंदी ज़रूरी थी. जेल में राष्ट्रीय शिव सेना के कुछ जवान भी थे जिन्हें यह हैरत थी कि हम यह फ़ैसला क्यों कर रहे हैं. दरअसल हम ट्रेड यूनियन में थे अदालत में मुक़दमे विचाराधीन थे.”
एके हंगल कहते हैं कि उन्होंने शुभो ज्ञानचंदानी से मशवरा किया और यह तय पाया कि भारत चले जाना चाहिए.
शुभो लिखते हैं, “एक साल की जेल के बाद हंगल को आख़िरी अल्टीमेटम दिया गया कि अगर वह अपनी बीवी और बेटे के साथ पाकिस्तान छोड़ दें तो उनको दो दिन का परोल दिया जाएगा. इसके बाद वह कराची बंदरगाह से बंबई रवाना हो गए.”
वतन आने की इच्छा और बाल ठाकरे
जिस धरती पर एके हंगल ने जन्म लिया, जवान हुए और राजनीति की वहां आने को वह तरसते रहे. वह लिखते हैं कि 1988 में वह मॉस्को गए थे. वापसी पर बारिश की वजह से जहाज़ दिल्ली एयरपोर्ट पर लैंड नहीं कर सका और उन्हें कराची लाया गया.
लगभग 40 साल के बाद उन्होंने कराची में लैंड किया था लेकिन वह बाहर नहीं जा सकते थे.
जब वह रेस्तरां में लंच कर रहे थे तो कुछ पाकिस्तानी लड़के लड़की आए और उनसे ऑटोग्राफ़ लिया. शाम को उनकी फ़्लाइट वापस रवाना हो गई.
सन 1993 में उन्होंने पाकिस्तान के डिप्टी हाई कमिश्नर को फ़ोन किया और वीज़ा के लिए अनुरोध किया. अगले दिन पाकिस्तान डे का फ़ंक्शन था, जिसमें उन्हें बुलाया गया, मगर उसमें शामिल होना उनके लिए मुसीबत बन गया.
वह लिखते हैं कि शिवसेना के प्रमुख बाल ठाकरे ने उनकी फ़िल्मों पर पाबंदी लगा दी और धमकी दी कि जहां उनकी फ़िल्म चले वह सिनेमा घर जला देंगे, जिसकी वजह से वह ढाई साल बेरोज़गार रहे.
एके हंगल लगभग 58 साल के बाद 2005 में कराची आए, जहां उनकी अपने साथी दोस्त शुभो ज्ञानचंदानी से मुलाक़ात हुई. इस दौरे के दौरान सज्जाद ज़हीर की बेटी नूर ज़हीर भी उनके साथ थीं.
कराची आर्ट्स काउंसिल में आयोजित समारोह में एके हंगल ने बताया कि जब सज्जाद ज़हीर पाकिस्तान आए तो उनके पास ठहरे थे. वह उस समय कम्युनिस्ट पार्टी कराची के सेक्रेटरी जनरल थे.
“गिरफ़्तारी के बाद सज्जाद ज़हीर ने संदेश भिजवाया कि भारत चले जाओ मगर मैंने इनकार किया. मैंने कहा कि मैं यहां पैदा हुआ हूं, यहां से नहीं जाऊंगा. मेरी बात के जवाब में सज्जाद ने समझाया कि तुम कम्युनिस्ट दृष्टिकोण पर चलने वाले हो, जो यहां नहीं है. तुम अल्पसंख्यक हो और एक संवेदनशील आर्टिस्ट हो. यह चीज़ भी यहां नहीं है, इसलिए यहां से चले जाओ.”
एके हंगल ने कहा, “मैंने सही फ़ैसला किया और अच्छा हुआ कि यहां से चला गया.”
नूर ज़हीर ने अपनी किताब ‘ऐट होम इन एनिमी लैंड’ में लिखा है, “सज्जाद ज़हीर ने दोनों (शुभो और हंगल) से कहा था कि भारत चले जाएं. उनमें एक ने हां कही थी और दूसरे ने नहीं. पार्टी के जनरल सेक्रेटरी के निर्देश को मानने और न मानने पर दो दोस्त इस तरह जुदा हो गए कि यह मुलाक़ात 58 साल बाद ही मुमकिन हो सकी.”
एके हंगल ने मुंबई में दर्ज़ियों की यूनियन बनाई, उसके अलावा फ़िल्मी दुनिया में क़दम रखा और अपनी पहचान बनाई लेकिन उन्होंने सादगी भरी ज़िंदगी गुज़ारी और आख़िरी समय तक उनका दिन मुश्किल में गुज़रा.
26 अगस्त 2012 में पाकिस्तान का फ़्रीडम फ़ाइटर, युवा राजनीतिक नेता और बॉलीवुड का अदाकार इस दुनिया को अलविदा कह गया.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
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