महाबोधि मंदिर पर नियंत्रण को लेकर बौद्धों और हिंदुओं में ठनी
महाबोधि मंदिर पर नियंत्रण को लेकर बौद्धों और हिंदुओं में ठनी, धरने पर बैठे भिक्षुओं की क्या है मांग?

- सीटू तिवारी
- बीबीसी संवाददाता, गया
बिहार के विश्व प्रसिद्ध बौद्ध तीर्थस्थल बोधगया में बीती 12 फ़रवरी से बौद्ध भिक्षु धरना प्रदर्शन कर रहे हैं. उनकी मांग है कि बीटी एक्ट यानी बोधगया टेंपल एक्ट, 1949 ख़त्म किया जाए.
इस एक्ट के तहत बनने वाली बोधगया टेंपल मैनेजमेंट कमिटी (बीटीएमसी) में बौद्धों के साथ-साथ हिंदू धर्मावलंबियों को सदस्य बनाने का प्रावधान है, जिसका विरोध बौद्ध भिक्षु लंबे समय से कर रहे हैं.
बौद्ध भिक्षु पहले महाबोधि मंदिर के पास आमरण अनशन पर बैठे थे, लेकिन 27 फ़रवरी को प्रशासन ने इन्हें महाबोधि मंदिर परिसर से हटा दिया.
अब महाबोधि मंदिर से तक़रीबन एक किलोमीटर दूर दोमुहान नामक जगह पर ये बौद्ध भिक्षु धरना प्रदर्शन कर रहे हैं.

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गया ज़िले के डीएम बीटीएमसी के पदेन अध्यक्ष होते हैं.
इस मामले में गया डीएम त्यागराजन एसएम ने बीबीसी हिंदी से बातचीत की.
उन्होंने कहा, "बौद्ध धर्मावलंबियों की यह मांग 90 के दशक से है. अभी आंदोलन करने वालों से जिला प्रशासन और गृह विभाग के अधिकारियों की बातचीत हुई है."
"बिहार सरकार का गृह विभाग ही बीटीएमसी को गवर्न करता है. यह पॉलिसी डिसीजन है."

क्या है विवाद?

बिहार की राजधानी पटना से 120 किलोमीटर दूर गया ज़िले के शहर बोधगया में ऊपर से सब कुछ सामान्य लगता है.
लेकिन, रह-रहकर दूसरे राज्यों से आए लोग छोटे समूहों में स्थानीय लोगों से पूछते हैं, "दोमुहान जाना है, कैसे जाएं?"
महाराष्ट्र के नागपुर से आए भीमराव चिंचोले हमें महाबोधि मंदिर परिसर के पास मिले. वो नागपुर से बौद्ध भिक्षुओं के प्रदर्शन में हिस्सा लेने आए हैं और दोमुहान जाने का रास्ता पूछ रहे हैं.
वो बताते हैं, "हम लोगों को टीवी से इस आंदोलन के बारे में पता चला. अब हमारे विहारों में इसको लेकर मीटिंग हो रही है. महाराष्ट्र से बहुत सारे लोग यहां आएंगे."

दोमुहान में गर्म हवा के थपेड़े सहते हुए बौद्ध भिक्षु धरने पर बैठे हैं. कहीं आंबेडकर की फोटो तो कहीं संविधान की प्रति इस धरना स्थल पर दिख जाती है.
इस आंदोलन का नेतृत्व कर रहे आकाश लामा कहते हैं, "संसार में किसी भी धार्मिक स्थल पर दूसरे धर्म का क़ब्ज़ा नहीं है."
"मस्जिद को मुसलमान चलाते हैं, मंदिर को हिंदू, गुरुद्वारे को सिख, लेकिन महाबोधि मंदिर में हिंदुओं का क़ब्ज़ा है."
उन्होंने कहा, "हम लोग बीते दो साल से कोशिश कर रहे हैं. बिहार सरकार और अल्पसंख्यक आयोग के पास भी गए, लेकिन किसी ने हमारी बात नहीं सुनी."
दरअसल, बीटी एक्ट के प्रावधान तैयार होने की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में ही इस बात की वजह छिपी है कि इसमें हिंदुओं को शामिल क्यों किया गया.
कैसे बना बीटी एक्ट?

बोधगया में बोधि वृक्ष (बोटैनिकल नाम- फ़िकस रिलीजिओसा) के नीचे भगवान बौद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ था. सम्राट अशोक ने इस जगह तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व एक मंदिर बनवाया था.
बोधगया टेंपल की वेबसाइट के मुताबिक़, "13वीं शताब्दी में तुर्क आक्रमणकारियों के हमले तक बोधगया मंदिर अपने अनुयायियों के हाथ में था."
"1590 में घमंडी गिरी नाम के महंत बोधगया पहुंचे और उन्होंने समय के साथ महाबोधि मंदिर पर क़ब्ज़ा कर लिया. उन्होंने यह दावा किया कि वही महाविहार (महाबोधि मंदिर) के वैध उत्तराधिकारी हैं."
बाद में इंग्लैंड के पत्रकार और लेखक एडविन अर्नोल्ड ने 1885 में महाबोधि मंदिर को बौद्धों को वापस लौटाने का सवाल उठाया.
इसके बाद श्रीलंका के अनागरिक धर्मपाल 1891 में बोधगया आए और महाबोधि सोसाइटी की स्थापना करके मंदिर पर बौद्धों के नियंत्रण के लिए आंदोलन चलाया.

बाद में यह मुद्दा साल 1922 में गया में आयोजित कांग्रेस अधिवेशन में उठा.
राजेंद्र प्रसाद सहित कई नेताओं के हस्तक्षेप के बाद अक्तूबर 1948 में बोधगया टेंपल बिल बिहार विधानसभा में लाया गया, जो 1949 में अस्तित्व में आया.
28 मई 1953 को पहली बोधगया टेंपल मैनेजमेंट कमिटी (बीटीएमसी) ने अपना काम संभाला.
बोधगया टेंपल एक्ट (बीटी एक्ट) के प्रावधानों के मुताबिक़, बोधगया टेंपल मैनेजमेंट कमिटी में कुल आठ सदस्य होंगे, जिसमें चार बौद्ध और चार हिंदू होते हैं.
कमिटी के पदेन अध्यक्ष गया के डीएम होते हैं और उनका हिंदू होना लाज़िमी है. अगर गया के डीएम गैर-हिंदू हैं, तो राज्य सरकार को किसी हिंदू सदस्य को अध्यक्ष नॉमिनेट करना होगा.
हालांकि, बाद में साल 2013 में राज्य सरकार ने बीटी एक्ट में संशोधन करते हुए डीएम के 'हिंदू' होने की बाध्यता को समाप्त कर दिया.
लेकिन, कमिटी में हिंदू सदस्य की मौजूदगी का बौद्ध धर्मावलंबी लगातार विरोध करते रहे हैं.
बोधगया मठ: 'हम बीटीएमसी में हैं, लेकिन मठ की कमिटी में बौद्ध नहीं हैं'

इस पूरे विवाद का एक पक्ष बोधगया मठ है.
बीटीएमसी में जो हिंदू सदस्य होते हैं, उनमें एक पद बोधगया मठ के महंत के लिए आरक्षित होता है.
फिलहाल, बोधगया मठ में आंतरिक विवादों के चलते यह पद खाली पड़ा है.
लेकिन, बोधगया मठ के महंत और अधिकांश हिंदू धर्मावलंबी यह मानते हैं कि महाबोधि मंदिर में बुद्ध के मंदिर के अलावा उनके देवी-देवताओं के मंदिर भी हैं.
महाबोधि मंदिर परिसर में स्थित मंदिरों को दो कमिटियां या प्रबंधन समितियां संचालित करती हैं, बीटीएमसी और बोधगया मठ.
यानी, बौद्ध भिक्षुओं और ब्राह्मण पंडितों दोनों की उपस्थिति मंदिर परिसर में बनी हुई है.

बोधगया मठ के कार्यकारी महंत विवेकानंद गिरी बीबीसी से कहते हैं, "बीटीएमसी में हम हैं, लेकिन बोधगया मठ कमिटी में बौद्धों का कोई अधिकार नहीं है."
"अनागरिक धर्मपाल जब आए, तो बोधगया मठ ने ही उन्हें आश्रय दिया. लेकिन, उन्होंने बौद्धों और हिंदुओं के अलग-अलग होने की बात प्रचारित की. इस मामले में तमाम केस हुए, जिनमें यह फ़ैसला आया कि मठ पर ही मंदिर का अधिकार है."
वह बताते हैं, "बाद में 1922 में यहां कांग्रेस अधिवेशन हुआ, जिसके बाद हिंदू महासभा और कांग्रेस नेताओं की एक कमिटी बनी. राहुल सांकृत्यायन आए."
"तब यह माना गया कि यह जगह बौद्धों और हिंदुओं की साझी विरासत है. इसी आधार पर बीटीएमसी में हिंदुओं को शामिल किया गया."
"एक्ट बनने के बाद भी हमने यह मंदिर बौद्धों को नहीं दिया था. लेकिन, बाद में मठ और बौद्धों के बीच एक समझौता हुआ और 1953 में मंदिर को बौद्धों को दे दिया गया."
'हमारे भगवान यहां हैं'

विद्यानंद पांडेय का परिवार महाबोधि मंदिर में पिंडदान करवाता आया है.
वो कहते हैं, "हमारे शिवलिंग, पांच पांडव यहां हैं. लाखों लोग यहां पिंडदान करते हैं. हमारे दादा, पिता, हम, मेरा लड़का, सब यहां पिंडदान कराते आए हैं और कराएंगे. लेकिन, ये लोग कहते हैं कि सनातन धर्म को हटा दो. आख़िर भगवान बुद्ध किनकी औलाद हैं?"
वहीं, आंदोलन कर रहे आकाश लामा कहते हैं, "हम लोग अपनी मेमोरी के लिए कैमरा तक अंदर नहीं ले जा सकते, लेकिन मंदिर में लोटा-थाली सब पिंडदान के नाम पर जा रहा है. अब तो इस्कॉन वाले भी मंदिर में आने लगे हैं. यह जगह वर्ल्ड हेरिटेज है, इसका सम्मान किया जाना चाहिए."

यह पहली बार नहीं है, जब बीटी एक्ट से हिंदू सदस्यों को हटाने की मांग उठी हो. इससे पहले 1992 में जापान से भारत आकर बस गए बौद्ध भिक्षु सराई सुसाई ने इसके लिए बड़ा आंदोलन किया था.
इस बार आंदोलन का स्वरूप छोटा दिखता है, लेकिन अमेरिका सहित देश के कई हिस्सों जैसे महाराष्ट्र, यूपी और लद्दाख में बोधगया में चल रहे आंदोलन के समर्थन में प्रदर्शन हुए हैं.
धरना स्थल पर लद्दाख से आई कज़न देचिन हेजी कहती हैं, "मैं इस प्रदर्शन के समर्थन में यहां आई हूं. हम बौद्धों के लिए सबसे मुख्य जगह यही है. इसलिए बौद्ध मंदिर, बौद्ध लोगों को सौंप दिया जाए."
वहीं, 12 फरवरी से धरने पर बैठी महाराष्ट्र की जयवंती अधव कहती हैं, "यह एक्ट संविधान लिखने से पहले बना था. हमें हमारा एक्ट बाबा साहेब के संविधान के हिसाब से चाहिए. महाबोधि मंदिर बौद्ध भिक्षुओं को मिलना चाहिए."
केजरीवाल सरकार में हिंदू देवी-देवताओं पर टिप्पणी को लेकर विवादों में आए और इस्तीफ़ा देने वाले राजेंद्र पाल गौतम भी बोधगया पहुंचे थे.

राजेंद्र पाल गौतम ने बीबीसी से कहा, "हमारे प्रधानमंत्री बाहर जाते हैं तो कहते हैं कि हम बुद्ध के देश से आए हैं, लेकिन यहां बौद्ध धर्मावलंबी ही अपने मंदिर पर अधिकार के लिए लड़ाई लड़ रहे हैं."
"सरकार और ब्राह्मणों को अपना दिल बड़ा करके हमारा मंदिर हमें दे देना चाहिए. अगर ऐसा नहीं हुआ तो आंदोलन तेज़ होगा."
उन्होंने कहा, "हमारे बहुत सारे बौद्ध मंदिरों को हिंदू मंदिर बना दिया गया है, लेकिन हम अभी बोधगया पर अपना अधिकार चाहते हैं."
बौद्ध भिक्षुओं के बोधगया में आंदोलन पर बैठने के बाद सांसद चंद्रशेखर आज़ाद ने भी इस मामले को संसद में उठाया था.
'मांग जायज़ है, लेकिन तरीका ग़लत'

बोधगया में जहां एक तरफ यह आंदोलन चल रहा है, वहीं ऑल इंडिया भिक्षु संघ का दफ़्तर वीरान पड़ा है.
यहां मौजूद भंते पतिसीएन कहते हैं, "आंदोलन की मांग ठीक है, लेकिन तरीका ग़लत है. मामले को सुलझाने के और भी तरीके हो सकते हैं, इसलिए हमारा इस आंदोलन को समर्थन नहीं है."
बोधगया के स्थानीय लोग, ख़ासतौर पर वे जिनका रोज़गार मंदिर पर आधारित है, ज़्यादातर हिंदू धर्मावलंबी हैं. वे इस मामले पर कोई कड़ी प्रतिक्रिया देने से बचते हैं.
बीते बीस साल से तांगा चला रहे बली सिंह ने कहा, "ये लोग कहते हैं कि बुद्ध हमारे हैं. लेकिन, उनकी पूजा तो हम हिंदू लोग भी बचपन से करते आए हैं. बाकी सब सरकार समझे."
वहीं दुकानदार शंभू ठाकुर बेफ़िक्री से कहते हैं, "बुद्ध रहें, चाहे ईसाई रहें, मुस्लिम रहें, मंदिर तो रहेगा ही, और मंदिर है, तो कारोबार चलता रहेगा."
साल 2002 में वर्ल्ड हेरिटेज में शामिल महाबोधि मंदिर के आसपास अलग-अलग देशों की कुल 63 मोनेस्ट्रीज़ हैं.

समाप्त
बीटीएमसी का कार्यकाल तीन साल का होता है. इस वक़्त इसकी सचिव महाश्वेता महारथी हैं.
वहीं, सदस्य के तौर पर धम्माधीरू, टी. ओकोनोगी, किरन लामा, अरविंद कुमार सिंह और मिथुन मांझी हैं.
मिथुन मांझी, दशरथ मांझी के बेटे भागीरथ मांझी के दामाद हैं.
बीटीएमसी के पूर्व सचिव और फिलहाल आंदोलनरत भदंत प्रज्ञाशील महाथेरो मूल रूप से मध्य प्रदेश के हैं.
वह 1993 में बिहार आकर बस गए और बीटीएमसी को हिंदू सदस्यों से मुक्त करवाने के आंदोलन में शामिल हुए.
वह बताते हैं, "पहले सचिव भी हिंदू होते थे, लेकिन आंदोलनों के चलते सचिव बौद्ध बनने लगे. मैं पहला बौद्ध सचिव था. सचिव रहते हुए मुझे समझ में आया कि बीटीएमसी का सर्वेसर्वा डीएम होता है और प्रक्रिया इस हिसाब से चलती है."
उन्होंने कहा, "अलग-अलग देशों से जो दान आता है, वह अस्पताल या स्कूल खोलने में नहीं, बल्कि स्वागत-सत्कार और बीटीएमसी कर्मचारियों पर ही ख़र्च हो जाता है. बीटीएमसी पूरी तरह से बौद्धों का एक नकली संस्थान जैसा है. लेकिन, अभी हमारी प्राथमिक मांग बीटी एक्ट ख़त्म करने की है."
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.
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